विशेष लेख माला-१० - सत्संग प्रशिक्षण एवं संगठन

April 1990

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विचार विनिमय भी उपयोगी आदान-प्रदान की तरह है। प्रगति के लिए मिलजुल कर कदम बढ़ाने पड़ते हैं। जीवनक्रम को ठीक तरह चलाने के लिए जिस प्रकार अनेक साधन जहाँ-तहाँ से जुटाने पड़ते हैं, उसी प्रकार विचार सम्पादन को बढ़ाने के लिए आवश्यक मणिमुक्तक वहाँ से खोजने पड़ते हैं जहाँ वे पहले से ही मौजूद हैं। हाट-बाज़ार की व्यवस्था भी इसीलिए की जाती है कि जरूरतमंदों को आवश्यक वस्तुएँ एकत्रित एवं उपलब्ध कराने में सुविधा रहे। अनगढ़ विचार तो कूड़े करकट की तरह कहीं भी बिखरे पाये जाते हैं और बिना बुलाये ही घर में घुस आते हैं, पर उपयोगी, आवश्यक और महत्वपूर्ण वस्तुएँ हस्तगत करने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न करने पड़ते हैं। ठीक इसी प्रकार हर किसी को सुनियोजित प्रगतिशील विचारों को ढूँढ़ने-बटोरने की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रक्रिया को सम्पन्न करने का नाम है सत्संग।

सर्वविदित है कि संगति का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। सुगंध और दुर्गंध के समीप बैठ कर इस तथ्य का प्रमाण परिचय सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। बच्चे भाषा, आचरण और व्यवहार समीपवर्ती लोगों का अनुकरण करते हुए ही उपलब्ध करते हैं। व्यक्तित्व और दिशा निर्धारण में भी संगति का असाधारण प्रभाव पड़ते देखा जाता है। उत्थान और पतन में इसी प्रक्रिया की बड़ी भूमिका रहती हैं। इसलिए जो अपना या दूसरों का हित चाहते हैं उन्हें जीवन की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की तरह सत्संग उपलब्ध होते रहने की भी व्यवस्था करनी चाहिए।

हर किसी के संपर्क में कुछ न कुछ लोग होते ही हैं। परिवार के लोग एक साथ रहते और एक दूसरे से न केवल सहयोग प्राप्त करते हैं, वरन् प्रभावित भी होते हैं। इसलिए परिवार के वरिष्ठ व्यक्तियों का कर्तव्य बनता है कि वे कम योग्यता वालों को अधिक सुयोग्य, अधिक सुसंस्कृत बनाये रखने के लिए घर-कुटुम्ब में सत्संग का उपक्रम अनिवार्य रूप से बनाये रहें। विचार विनिमय चलता रहे। शंका-समाधान की गुंजाइश रहे। अनुभवों को सुनने और सुनाने का कार्यक्रम भी अन्य नित्यकर्मों की तरह सुनियोजित ढंग से चलता रहे।

संकोचवश या व्यस्तता के बहाने परिवारों के सदस्यों के विचारों का आदान-प्रदान प्रायः उपेक्षित रहता है। इससे जहाँ ज्ञानवृद्धि में रुकावट पड़ती हैं वहाँ पारस्परिक घनिष्ठता भी बढ़ने से रुक जाती हैं। परिवारों में कोई न कोई सभ्य ऐसा अवश्य रहना चाहिए जिससे एक दूसरे की कमी कठिनाई जानने और उनके समाधान सुझाने का अवसर मिलता रहे। यह कार्य कथा, कहानी, जीवन चरित्र, संस्मरण, घटनाक्रम, समाचार सुनने-सुनाने के माध्यम से भी चल सकता है। साथ में एक उपयोगी मनोरंजन की व्यवस्था भी रह सकती है।

घर में अन्य आवश्यक वस्तुओं की तरह घरेलू पुस्तकालय की भी ऐसी व्यवस्था रहनी चाहिए जिसके माध्यम से सद्विचारों को पढ़ने और सुनने का अवसर मिलता रहे। स्वाध्याय और सत्संग यह दोनों ही मनुष्य की मानसिक एवं भावनात्मक आवश्यकताएँ है। इनकी पूर्ति वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अपनी परिस्थितियों के अनुरूप क्रियान्वित करते ही रहना है। इन पंक्तियों में इसे पारिवारिक क्षेत्र में आरंभ करने के लिए इसलिए कहा गया है ताकि उसे सहज सुगमता के साथ सीखा और सिखाया जा सके। उसका प्रत्यक्ष लाभ अपनों को विकसित करने के रूप में उठाया जा सके और सामाजिक क्षेत्र में क्रियान्वित करने के लिए प्रभावी अभ्यास करने में प्रवीणता प्राप्त हो सके। युग अवतरण अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए तो यह युक्ति ऐसी हैं जिसे हर हालत में प्राथमिकता देनी पड़ेगी। इस अवलम्बन से ऐसे वक्ता भी प्रशिक्षित हो सकते हैं जो भावी संभावनाओं को साकार करने में अपनी असाधारण उपयोगिता का परिचय दे सकें।

युग निर्माण आन्दोलन का एक अनिवार्य चरण साप्ताहिक सत्संग है। रविवार को आमतौर से छुट्टी रहती है। उस दिन इस हेतु दो-तीन घण्टे का कार्यक्रम बनाया और उसमें अधिकाधिक लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है। (१) संक्षिप्त दीपयज्ञ (२) सहगान कीर्तन (३) नवसृजन के संदर्भ में प्रवचन (४) झोला पुस्तकालय उपक्रम का भी इसी में समावेश, यह चार कार्यक्रम एक साथ जोड़ देने से थोड़े से लोगों के बीच भी साप्ताहिक सम्मेलन नियमित रूप से चालू रह सकता है। जहाँ अवसर हो वहाँ घनिष्ठ लोगों का जन्म- दिवसोत्सव मनाने के रूप में इसी प्रक्रिया को उसके घर सम्पन्न किया जा सकता हैं, ताकि उस व्यक्ति विशेष के मित्र संबंधी उसमें विशेष उत्साहपूर्वक सम्मिलित हो सकें और अपनी सत्संग योजना को नये लोगों तक पहुँचाने का अवसर मिल सके।

इन सत्संग आयोजनों का एक विशेष लाभ यह है कि जिन लोगों को इसमें रस आने लगता है, वे बार-बार आपस में मिलते हैं। परिचित होते एवं घनिष्ठ बनते हैं। इस प्रकार विचारशील लोगों का संगठन बनने, बढ़ने और सुदृढ़ होने का सिलसिला भी साथ ही चल पड़ता है। यह बहुत बड़ी बात है कि दैत्य इसलिए सफल होते रहे हैं कि वे संगठित होते हैं। देवताओं की-संत सज्जनों की एक ही सबसे बड़ी कमी है कि वे आत्मकेन्द्रित रहते और संगठन को महत्व नहीं देते। पौराणिक कथा प्रख्यात है कि हारे हुए देवताओं ने जब अपने उद्धार का उपाय प्रजापति से पूछा तो उनने उन्हीं की सामर्थ्य को एकीकृत करके महाकाली का अवतरण किया। उसी ने दैत्यों को हराया और देवताओं को दुर्गति से उबारा। यह कथा अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए सटीक मार्गदर्शन करती है। नवसृजन में रुचि लेने वाले प्रज्ञावानों काम करने हैं, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के अनेक निर्धारणों को पूरा करना है, वहाँ उससे भी पहले यह करने की आवश्यकता है कि सृजनशिल्पी परस्पर संगठित हों। इसके लिए साप्ताहिक सत्संग, जन्म दिवसोत्सव जैसे छोटे कार्यक्रम अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में असाधारण रूप से सहायक हो सकते हैं। इसलिए जहाँ भी प्रकाश की किरणें फूटे, वहाँ उपरोक्त स्वाध्याय और सत्संग के उभयपक्षीय शक्तिशाली चरण उठने ही चाहिए। छोटे-बड़े रूप में इस प्रयोजन के लिए नियमित रूप से उत्साहपूर्वक निरत रहा जाना चाहिए।

सत्संग और संगठन का महत्व एवं वास्तविक उद्देश्य तो छोटे आयोजनों से ही पूरा होता है। पर प्रचार प्रयोजन के लिए जनजागरण के लिए बड़े आयोजन, समारोहों की भी आवश्यकता रहती ही है। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक संस्थाएँ अवसर अपने बड़े वार्षिकोत्सव सम्पन्न किया करते हैं। इससे एक विचारों को एक स्थान पर बड़ी संख्या में एकत्रित होते देखकर उपस्थितजनों का उत्साह भी बढ़ता है और दर्शकों पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अच्छा प्रभाव पड़ता है। जिस विचार धारा को प्रचारित करना है। जिस विचार धारा को प्रचारित करना है उसे अनेक लोगों तक एक ही समय में पहुँचा देने का यह सफल प्रयोग माना जाता हैं। धार्मिक मेलों का भी प्रचलन इसी दृष्टि से हुआ है। तीर्थों पर पर्व भी इसीलिए मनाये जाते हैं। भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग माने जाने वाले पर्व-त्यौहार भी सामूहिक रूप से इसीलिए मनाये जाते हैं कि उत्कृष्ट विचारधारा के संपर्क में अनेक लोग एक साथ एकत्रित हों और सामूहिक वातावरण में उत्कृष्ट चिन्तन की गरिमा से एक साथ एक समय में लाभान्वित हों।

युग सृजन संगठनों के लिए यह एक आवश्यक कर्तव्य ठहराया गया है कि वे छोटी विचार गोष्ठियों, साप्ताहिक सत्संगों और बन पड़े तो बड़े आयोजन समारोहों के पर्व-त्यौहारों के अवसर पर अथवा वार्षिकोत्सव के रूप में बड़े आकार-प्रकार बड़ी तैयारी, बड़ी धूमधाम के साथ सम्पन्न करें ताकि अपने साथी-सहयोगियों की बढ़ी-चढ़ी संख्या देखकर लोगों में संगठित होने की ललक उठे और उस विशालता से दर्शक एवं सम्मिलित लोग उत्साह वर्धक प्रेरणा प्राप्त करें। यह सभी छोटे-बड़े कार्यक्रम सत्संग में ही गिने जाते हैं। इनके सहारे देवजनों का पारस्परिक परिचय एवं संगठन बनने का कार्य भी सरलतापूर्वक सम्पन्न होता चला जाता हैं।


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