विशेष लेख माला-१८ - शेष जीवन का उत्सर्ग

April 1990

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कृपणता, कायरता, और अभ्यस्त हेय परम्परा मनुष्य को मात्र वासना, तृष्णा के लिए अहंकार प्रदर्शन में यत्किंचित् सफलता प्राप्त करने के लिए बाधित करती हैं। मनुष्य रूप में कृमि-कीटकों की तरह जीने वालों का चारों और फैला हुआ समुदाय भी ऐसा ही अनुकरण, आचरण, अपनाने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समझाता-फुसलाता रहता हैं। भूतकालीन मानव की दूरदर्शिता देखी जाय, कि वह इसी प्रयास में जीवन संपदा गँवा देता है और पापों की पोटली सिर पर लाद कर हाथ मलते प्रभु के दरबार में वापस लौटता है।

यदि कहीं से एक प्रकाश किरण अन्तराल तक पहुँचे, तो मानवी गरिमा का उल्लास उभरे और ऐसा कुछ बन पड़े, जिससे संतोष, सम्मान और प्रभु अनुग्रह का दिव्य अनुदान हाथों हाथ उपलब्ध करते हुए जीवन बीते।

पेट भरने की आवश्यकता प्रभु ने जन्म से पूर्व ही दो दूध के कटोरे भर कर पूरी कर दी हैं और विश्वास दिला दिया कि उसे भूखा-नंगा नहीं मरना पड़ेगा। आश्वासन दाता ईश्वर यदि आँखों से दृष्टिगोचर न होता हो, तो उस प्रतिज्ञा का प्रत्यक्ष निर्वाह शान्तिकुञ्ज भी कर सकता है, क्योंकि वहाँ नवसृजन के लिए भावनाशील और कर्मठ व्यक्तियों की असाधारण आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

उपेक्षा उन्हीं की की जाती हैं, जो अपना यौवन पूरी तरह गँवा चुके। कोल्हू के बैल की तरह लोभ मोह के कुचक्र में फँस कर खली की तरह छूँछ बन चुके। जिनमें श्रम साहस जैसा कुछ शेष नहीं रह गया है, आलसी-प्रमादी संसार पर भार बनकर रहते हैं, तो उसे शान्तिकुञ्ज ही अपनी दस-दस पैसे की याचना करके यत्किंचित् जमा की गई राशि को क्यों बरबाद करें? स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार जैसे निरर्थक प्रलोभन देने का यहाँ कोई तारतम्य है नहीं। यहाँ तो कर्म-चेतना को भगवान के चरणों पर अर्पित करने और आत्मोत्कर्ष का प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करने की ही शिक्षा और प्रेरणा दी जाती है।

जिन्हें प्रभु के अनुपम उपहार मानव जीवन के प्रपंचों के दुर्गन्धित दलदल में फँसे रहने से अरुचि उत्पन्न हो, जिन्हें युगदेवता द्वारा द्वार-द्वार खटखटाये जाने पर सर्वथा निष्ठुर न बने रहने की भाव-चेतना उभरे, उन्हें नये सिरे से सोचना चाहिए कि मसखरी के लिए जिन्दगी निछावर करने की अपेक्षा युगधर्म के निर्वाह हेतु शेष जीवन बिताना चाहिए। जहाँ भी ऐसी मान्यता बल पकड़े, वहाँ यह सोच भी गंभीरतापूर्वक उभरना चाहिए कि शेष जीवन को परमार्थ प्रयोजन के लिए ईश्वर के हाथों सौंप देना ही श्रेयस्कर होगा।

शान्तिकुञ्ज में स्थानीय एवं परिव्राजक स्तर के भी कई काम रहते हैं। इसके अतिरिक्त शाखा-प्रशाखाओं में भी कार्यकर्ताओं की ही माँग रहती हैं। उसके लिए तत्परता प्रकट करते हुए नये युग की नई साधना आरंभ की जा सकती हैं।

कठिनाई तभी पड़ती है, जब कोई व्यक्ति लोकसेवी तो बनता है, पर वितृष्णा से आक्रान्त होकर औसत नागरिक से अधिक खर्च करना चाहता है, काम से जी चुराता है या अहंकार की पूर्ति के लिए आत्मविज्ञापन का प्रपंच रचता है। ऐसे लोग विज्ञ समुदाय में सर्वत्र दुत्कारे जाते हैं, फिर सेवा-साधना के क्षेत्र में ही उनकी क्यों व्यापक उपयोगिता-आवश्यकता रह जायेगी। धर्म-धारणा और सेवा-साधना वस्तुतः योगाभ्यास और तपश्चर्या का ही एक बुद्धिसंगत उपचार है।

घोर संसारी बनकर जीना भी कहाँ सरल हैं? उसमें भी पग-पग पर उपहास, आरोप और संकट भरे रहते हैं। जो कमाया जाता है, उसे मसखरे झपट ले जाते हैं। उस सड़े दलदल में हाथ पैर पीटते रहने की अपेक्षा जिन्हें आदर्शवादी अनुशासन अपनाना श्रेयस्कर लगे, उनके लिए शान्तिकुञ्ज का आह्वान है। जो शान्तिकुञ्ज चल पड़ने की सोचें, अपनी संचित कमाई को भी साथ ले जाने की योजना बनायें, अन्यथा उसे मसखरे हड़प लेंगे और अपना गुजारा भिक्षा के धन पर काटना पड़ेगा। जिनके पास कुछ अर्थसाधन संचित नहीं हैं, उनका तो शान्तिकुञ्ज अपना घर हैं ही।


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