विशेष लेख माला-५ - अध्यात्म अविश्वस्त सिद्ध हुआ तो?

April 1990

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साधना शक्ति की की जाती हैं। शक्ति, समृद्धि या शक्ति के रूप में प्रकट होती है। सम्पत्ति, सिद्धि और सफलता का चिन्ह परस्पर पर्यायवाचक है। किसने किस स्तर की साधना की इसका पता उसकी परिणति को देखकर ही जाना समझा जाता है।

शरीर बल की साधना करने पर बलिष्ठता सुन्दरता आदि विभूतियों की प्राप्ति होती है। उसी के सहारे अभीष्ट उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ करते बन पड़ता है। आक्रमण किया या उसे निरस्त किया जा सकता हैं। रुपये पास में हों तो बाज़ार में मिलने वाली हर वस्तु उससे खरीदी जा सकती है। सुविधा साधनों का अभीष्ट मात्रा में संचय करते बन पड़ता है। अहंता का प्रदर्शन, चाटुकारों का समर्थन आदि की उपलब्धियों धन बल के सहारे होती हैं। बुद्धिबल के धनी उच्च पदाधिकारी बनते हैं। वकील, डॉक्टर इंजीनियर, नेतृत्व संयोजन संचालन कर सकने की गौरव, पाई-कमाई जा सकती हैं। दार्शनिक, वैज्ञानिक, निर्णायक होने के लिए अभीष्ट मात्रा में बुद्धिबल का संचय आवश्यक है।

युद्ध में शस्त्र संचालन, साहस, रणनीति का कौशल काय आता है। कलाकारिता की साधना करने वाले, साहित्यकार, कवि, संगीतज्ञ, चित्रकार, मूर्तिकार, अभिनेता आदि बनते हैं। इसी प्रकार संसार में अनेकानेक शक्तियों के अपने-अपने चमत्कार देखे जा सकते हैं। अशक्तों को अभाव तिरस्कार, दौर्बल्य पराजय आदि का ही भाजन बनना पड़ता है। वे जैसे तैसे काम चलाते और परावलम्बन पर आश्रित रहते हैं। इसलिए बहुमुखी शक्तियों में से किसी न किसी की साधना के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील होना पड़ता है। जो इसकी उपेक्षा करते हैं उन्हें आलसी-प्रमादी कहा, गया-गुजरा माना और अभागेपन का आरोपण किया जाता है।

शक्तियों में सर्वोपरि स्तर की क्षमता आत्मबल है। उसे अलौकिक, असाधारण माना जाता है। इस स्तर के प्रयासों को परम पुरुषार्थ गिना जाता है। उनकी ललक उच्चस्तरीय होती है। वे आत्मबल सम्पादित करने के लिए उन्मुख तत्पर होते हैं। इसकी कीमत तपश्चर्या के रूप में चुकानी पड़ती हैं और वे इसे प्रसन्नतापूर्वक चुकाते हैं। उपार्जन के लिए पूँजी तो जुटानी ही पड़ती है। शक्तिवानों में से प्रत्येक को यही करना पड़ा है। अन्यथा शेख चिल्ली जैसी बेसिर पैर की कल्पना-जल्पना करते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता। छल छद्म की बाजीगरी द्वारा कुछ को कुछ बताकर नासमझों को बहका देना दूसरी बात हैं।

ऋषियों को आत्मबल सम्पादन की साधना के लिए अभीष्ट तपश्चर्या के लिए साहस जुटाते रहना पड़ा है। योगी-तपस्वी अपने कार्यक्रम इसी आधार पर विनिर्मित करते हैं। बदले में उन्हें जो कुछ मिलता है वह भी उत्कृष्टता की दिशाधारा का अवलम्बन के कारण हस्तगत भी ऐसा ही होता है। असाधारण अद्भुत, अलौकिक कहा जा सके। इस बल के धनी होते ही इस स्तर के हैं कि वे अपने को महामानव, धरती के देवता कह सकें। उन्हीं को ऋद्धि-सिद्धियों के अधिष्ठाता स्तर का अभ्युदय कर सकने की स्थिति में पाया जाता हैं। अपने को अभ्युदय के चरम शिखर तक वे पहुँचाते हैं। अलौकिक स्तर की विभूतियों से सम्पन्न होते हैं। अपनी नाव पर बिठाकर अनेकों को भयंकर प्रवाह वाली नदी से उबारते उतारते और पार करते हैं। वातावरण को प्रवाह को बदल देता भी ऐसों से ही बन पड़ता है। दैवी अनुकम्पा एवं सहायता भी ऐसे ही लोग विपुल मात्रा से हस्तगत करते हैं। उनमें दूसरों को प्रभावित करने वाली शाप वरदान देने की क्षमता होती हैं। स्वर्ग की मुक्ति के नाम से दिव्य आनन्दों की जो चर्चा होती रहती हैं उन्हें उपलब्ध कर सकना भी आत्मबल के अधिष्ठाताओं से बन पड़ता है। इन सनातन मान्यताओं को कोई भी कभी भी यथार्थता की कड़ी कसौटी पर कस सकता है। आग पर तपाये, कसौटी पर कसे सोने की तरह खरा पा सकता हैं।

इस संदर्भ में भी इन दिनों एक भारी असमंजस भरी विपन्नता देखी जाती है। आत्मसाधना का अवलम्बन करने का दावा असंख्यों को करते देखा जाता है। पर उनमें वे विभूतियाँ नहीं देखी जातीं जो इस दिशा में सफल पुरुषार्थियों में देखी जानी चाहिए। असफलता के लक्षण न दीख पड़ने पर विडम्बना का ही आरोप लगेगा। वह धनाध्यक्ष कैसा?, जो रोटी कपड़े जैसी सामान्य आवश्यकता न जुटा सके। वह पहलवान कैसा? जो सौ कदम की दौड़ न लगा सके। वह विद्वान कैसा? जो चिट्ठी पत्री तक पढ़ने लिखने में असमर्थता प्रकट करे। वह कलाकार कैसा? जो एकाग्र रहने तक ही क्षमता प्रदर्शित न कर सके। इसी प्रकार आत्मसाधना में अपने को संलग्न करने वालों के लिए क्या कहा जाए जो न तो अपना निजी व्यक्तित्व परिष्कृत कर सके जो न सामयिक विपत्तियों के समाधान में कोई योगदान दे सके। जिनमें दूसरों को प्रभावित, परिवर्तित करने की सामर्थ्य, कुछ कहने लायक सफलता प्राप्त कर सकने की क्षमता न हो। जिनमें समय की माँग, प्रवाह के परिवर्तन और पतन को अभ्युदय में परिवर्तित कर सकने की क्षमता न हो। इन अभावों को देखते हुए सन्देह होता है कि या तो आत्मबल की, आत्मसाधना की जो महत्ता बताई, महिमा गाई जाती रही है, वह अत्युक्ति या अलंकारिक है। अथवा जो आत्मसाधना के करने के दावेदार हैं, वे भ्रमग्रस्त हैं। छल-प्रपंच का आश्रय लेते है अथवा वास्तविकता को न समझ पाने के कारण अंड-जडं करते, अस्त-व्यस्त रहते और दिग्भ्रान्त होने पर भी बड़े लक्ष्य प्राप्त करने की आशा करते हैं।

किसी समय आत्मशक्ति से सम्पन्न अनेकों व्यक्तित्व थे। उनने अपनी अर्जित क्षमता के सहारे ऐसे कार्य कर दिखावे जो साधारणजनों की दृष्टि में अलौकिक कहे जा सके। विश्वमित्र, अगस्त्य, परशुराम, नारद, दधीचि जैसे तपस्वियों के नाम याद आते ही वे घटनाएँ भी आँखों के सामने गुजरने लगती हैं जिनमें उनने अपने समय में असाधारण पुरुषार्थ प्रकट करते हुए सिद्ध पुरुषों जैसे स्तर के प्रमाण परिचय दिये गये थे।

आज साधु-संतों की जनसंख्या प्रायः ६० लाख के लगभग है। तंत्र मंत्र की कला में अपने को प्रवीण-पारंगत करने वालों की संख्या भी हजारों में हैं। देवी देवताओं की पूजा पत्री में निरन्तर निरत रहने वाले पुजारी वर्ग के लोगों की गणना भी लाखों में की जा सकती है क्योंकि प्रस्तुत देवताओं में से हर मन्दिर पीछे कम से कम एक पुजारी की नियुक्ति तो आँकी ही जा सकती हैं। व्यक्तिगत पूजा-पाठ में घंटों समय लगाने वाले भक्तजनों को गिना जाय तो वे भी करोड़ों न सही लाखों तो होंगे ही। पंडित पुरोहित अपने को देवताओं का एजेण्ट बना कर प्रचुर परिमाण में दान दक्षिणा बटोरते रहे हैं। इस समूचे परिकर को एकत्रित करके गिना जाय तो उनकी संख्या मात्र अपने देश में ही लाखों करोड़ों हो सकती हैं। प्रस्तुत तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता और साथ ही यह विश्वास भी नहीं किया जा सकता कि उनकी स्थिति वैसी ही हैं जैसी कि कहीं सुनी और बताई जाती हैं। सामयिक समस्याएँ इतनी हैं कि समर्थ अध्यात्म के सहारे उन्हें इतने सारे लोग एकाकी न सही तो मिलजुल कर तो कर ही सकते हैं। किन्तु देखा इसके ठीक विपरीत जाता हैं। एक ओर तथाकथित अध्यात्मवादियों की संख्या बरसाती उद्भिजों की तरह बढ़ती जा रही हैं। उनके द्वारा नियोजित कर्मकाण्डों का भी अत्यन्त खर्चीला और आडम्बरभरा प्रदर्शन इतना बढ़ रहा है जिसे आसमान छूने स्तर का कहा जा सके। इस विषय के पक्षधर देवताओं, आश्रमों, मठों की, साहित्य की भी तूफानी गति से अभिवृद्धि हो रही हैं।

यह उलझन किसी प्रकार सुलझाने में नहीं आती कि आत्मशक्ति की प्रखरता जिस प्रकार गाई बताई जाती है वह किस प्रकार विश्वस्त हो सकती हैं जबकि हर क्षेत्र में संकटों, विग्रहों, अभावों और अनाचारों के अम्बार लगे हुए हैं और उन्हें निरस्त करने में निरन्तर बढ़ते हुए अध्यात्म विस्तार का दबाव कुछ ऐसा नहीं कर पा रहा है जिससे परिस्थितियाँ सुधरे, अवांछनीयताओं की बाढ़ रुके हो तो इतना भी नहीं रहा हैं कि उपरोक्त लाखों करोड़ों वेशधारियों की संख्या लोकहित की दृष्टि से कुछ न कर सके तो कम से कम अपने आपको तो आदर्श व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करे। जिनके चिन्तन चरित्र और व्यवहार, प्रयास को देखते हुए यह मान्यता बने कि अपने देश में उच्चस्तरीय व्यक्तित्व से सम्पन्न ऐसे लाखों करोड़ों मौजूद हैं जो अपनी उपस्थिति से जनसाधारण की जनजागरण में बढ़ती जा रही अश्रद्धा से तो निपट सकें। कम से कम इतना तो सिद्ध कर सकें कि अध्यात्म के दावेदार निजी जीवन में तो इतने प्रखर और प्रामाणिक होते ही हैं उनकी साक्षी में आत्म विधा की गरिमा को तो विश्वस्त समझा जा सके।

लगता है कहीं बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई हैं। कुछ को कुछ समझ लिया गया है। मात्र कलेवर को सब कुछ समझा गया है और यह आवश्यकता-अनुभव नहीं की गई है कि उपासक को प्राणवान भी होना चाहिए। पूजा कृत्यों के साथ आध्यात्मवादी की जीवनचर्या भी उच्चस्तरीय होनी चाहिए। उसके व्यक्तित्व में प्रामाणिकता एवं उत्कृष्टता का भी गहरा पुट होना चाहिए।

मात्र बहिरंग कलेवर का गठन कर लेना पर्याप्त नहीं होता। मिट्टी के खिलौने जैसी गाय से बच्चे का मन तो बहला सकता है, पर उससे दूध देने और बछड़े जनते रहने की आशा नहीं की जा सकती। काठ से बड़े हाथी की आकृति तो बन सकती हैं, पर उन पर सवारी करके लम्बी मंजिल पूरी करने की आशा नहीं की जा सकती। खोटे सिक्के देखने में असली जैसे लगते तो हैं, पर दुकानदार के हाथ तक पहुँचने पहुँचने उपहासास्पद बनने लगते हैं। नकली तो आखिर नकली ही रहेगा। उससे मन बहलाया जा सकता है पर वह प्रयोजन पूरा नहीं कराया जा सकता जो असली के माध्यम से सम्पन्न हो सकता हैं।

चकली आध्यात्म के खिलौने से एक बड़ी भारी हानि यह हो सकती है कि अध्यात्मिकता और आस्तिकता के तत्त्वज्ञान को ही लोग अविश्वस्त और अप्रामाणिक मानने लगें। उसे छद्म समझने और इस प्रपंच से दूर रहने की बात सोचने लगें। यदि ऐसा हुआ तो आप्त वचनों को, संसार के उच्चस्तरीय प्रतिपादनों को भारी क्षति पहुँचेगी और उस नास्तिकता का बोलबाला होने लगेगा जिसकी आड़ में अनैतिकता, असामाजिकता, अराजकता, अवांछनीयता, का बोलबाला होने लगे। उत्कृष्टता आदर्शवादिता को अनावश्यक समझा जाने लगे। अंकुश भी महावत का रहने पर उन्मत्त हाथी किसी भी दिशा में चल सकता है और कुछ भी अनर्थ कर सकता हैं। आत्मिक तत्व के साथ जुड़े हुए उत्कृष्टता के, मर्यादाओं के, पुण्य-परमार्थों के विचार यदि बाँध तोड़ कर उच्छृंखलता की दिशा में चल पड़ें तो मनुष्य-मनुष्य नहीं रह जायगा, उसे प्रेत पिशाचों जैसे उद्दंड कोलाहल खड़े करते चारों ओर देखा जायगा।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों कड़वी गिलोय का कड़ुवा नीम पर चढ़ने का सम्मिलित कुयोग बन रहा है। एक तो भौतिक विज्ञान ने नियन्ता बन रहा है। एक तो भौतिक विज्ञान कुयोग बन रहा है। एक तो भौतिक विज्ञान ने नियन्ता की मान्यता से इंकार करके विशुद्ध भौतिकवादी मान्यताओं को जन्म दिया हैं। आत्मा परमात्मा को अमान्य ठहराकर प्रकारान्तर से उस नीति निष्ठा की उपयोगिता से इंकार कर दिया है जो अब तक किसी रूप में मानवी गरिमा और मर्यादा से किसी सीमा तक मनुष्य को सराबोर बनाये हुए थी। पथ-भ्रष्ट हुए विज्ञान ने अनेक आविष्कारकों की तरह उस नास्तिकता का भी बीज बो दिया जो नीतिनिष्ठा को भी साथ ही अमान्य ठहराता हैं। इस प्रतिपादन से प्रभावित होने से भविष्य में लोग क्या रीति-नीति अपनाने लगेंगे, इस विचारणा से भी भयंकर भविष्य की ही आशंका उभरती हैं।

इसी के साथ-साथ यह दार्शनिक संकट भी उभरता दीखता हैं जो अध्यात्म आधारों के सहारे बड़े महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होते रहने की आशा दिलाता रहा हैं। उच्चस्तरीय सिद्धियों और साधना द्वारा व्यक्तित्व के देवोपम बनने की मान्यता पर विश्वास कराता रहा हैं।

वर्तमान परिस्थितियाँ सन्निपात जैसी बन गई हैं। मनुष्य में विकसित पशुता द्वारा पतन के गर्त में गिरने का प्रोत्साहन, विज्ञान द्वारा नास्तिकता का पोषण तथा आत्मिक क्षेत्र में बढ़ रही विडम्बनाओं की भरमार जनमानस को इतना भ्रमित कर रही हैं कि उनका जनमानस को इतना भ्रमित कर रही हैं कि उनका प्रतिफल विनाशकारी रूप धारण करके ही सामने आ सकता है। वही हो भी रहा है।


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