विशेष लेख माला-१२ - तीर्थ प्रक्रिया का पुनर्जीवन

April 1990

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भारतीय ही नहीं, विश्व की साँस्कृतिक मान्यताओं में तीर्थयात्रा का अतिशय महत्व है। यरुशलम मक्का, बोधगया सारनाथ आदि तीर्थों की यात्रा उन मतों के अनुयायी दूरवर्ती क्षेत्र तय करके उन केन्द्रों में पहुँचते और अपनी श्रद्धा की सघनता का परिचय देते हैं। भारतीय धर्म में उनकी महिमा और गरिमा का असाधारण प्रतिपादन हुआ है इसलिए असंख्य तीर्थयात्री इस प्रयोजन के लिए असाधारण मात्रा में समय, श्रम और धन का नियोजन करते हैं। इस प्रयास को अनेक सत्परिणाम उत्पन्न करने वाले धर्मानुष्ठानों में गिनते हैं। आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार धाम बनाये थे। इसके उपरान्त हजारों की संख्या में छोटे बड़े तीर्थ विभिन्न स्थानों पर बने। उनके कारण समीपवर्ती क्षेत्र के लोगों को भाव-संवेदनाएँ चरितार्थ करने के अवसर मिले।

इन दिनों विकृतियों ने कोई क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा है। तीर्थ प्रयोजन भी नहीं। तीर्थयात्रा का महत्व एवं पुण्यफल इस तथ्य पर आधारित है कि वह धर्मप्रचार की पद यात्रा का रूप लेकर जन जन के संपर्क साधती और उसका नेतृत्व करने वाले विचारशील जन-जीवन में समझदारी, ईमानदारी, एवं बहादुरी जैसी सत्प्रवृत्तियों को उभारने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। पर आज तो द्रुतगामी वाहनों में सवारी करके बड़े-बड़े नगरों में अवस्थित भव्य देवालयों की दर्शन झाँकी करने, जलाशयों में डुबकी लगाने और पूजा पत्री करने पात्र जैसी लकीर पीट कर लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। खीज़, निराशा, निरर्थकता जैसी भावनाएँ लेकर वापस लौटते हैं। धक्का-मुक्की और फैली हुई गंदगी के अतिरिक्त और कोई वस्तु बाद में स्मरण नहीं रहती। यह कैसी तीर्थयात्रा? इतने भर से पुण्यफल कैसे आकाश से बरसेगा और पापों का क्षय होने जैसी मान्यताओं को किस आधार पर प्रश्रय मिलेगा?

भूल सुधारनी पड़ती हैं। भटक जाने पर राह बदलनी पड़ती है। अच्छा हो तीर्थयात्रा संबंधी प्रचलन में हम नये सिरे से विचार और परिवर्तन करें और देखें कि उस परिभ्रमण के साथ कहीं लोकमंगल जुड़ा है या नहीं। धर्मप्रचार की पद यात्रा के पुराने प्रचलन में अब यह अन्तर हो सकता है कि उसे बिनोवा सर्वोदयी पदयात्रा स्तर की उपयोगिता से समन्वित किया जाय। समीपवर्ती क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों की प्राचीन या अर्वाचीन कार्यपद्धति के प्रति निष्ठा जमाने के लिए सुनियोजित क्रिया प्रक्रिया निर्धारित करें।

गाँधी जी जब काँग्रेस के माध्यम से देश सेवा की तैयारी करने लगे तो उन्हें श्री गोखले ने सलाह दी कि वे पहले उस भारत माता की परिस्थितियाँ आँखों से देख ले। इसके लिए एक बाद देश भ्रमण कर लें। गाँधी जी ने वही किया और एक अर्धनंगी महिला की परेशानी आँखों देखकर इतने द्रवित हुए कि स्वयं भी आधी धोती पहनने और आधी ओढ़ने लगे। तभी से वे सच्चे अर्थों में महात्मा जी नाम से प्रख्यात हुए। लोकसेवियों के लिए तीर्थयात्रा इसीलिए आवश्यक है कि वे अपने समाज की वस्तुस्थिति समझें और तदनुसार उपचार के लिए जुटें। संत परिव्राजक इसी प्रयोजन के लिए तीर्थयात्रा को धर्मकृत्य मानते और उसमें निरत होकर लोक-कल्याण की बहुमुखी योजनाओं में निरत होते थे।

आज की स्थिति में यह उपयुक्त लगता है कि जन जागरण की साइकिल यात्राओं पर टोली बना कर निकलें। पदयात्रा के स्थान पर अब साइकिल यात्रा को अपनाने में कोई हर्ज नहीं। अब साइकिल ही सर्वजनीन वाहन बनने जा रही है। ईंधन से चलने वाले वाहन तो उपयुक्त आवश्यकता जुटा न पाने और प्रदूषण फैलाने के कारण एक प्रकार से बेमौत मरने ही जा रहे हैं।

साइकिल यात्राओं की टोली एक प्रवाहक्रम बना कर जन-जागरण के लिए निकलें और जिधर से गुजरें, उधर ही युग-चेतना का प्रकाश वितरण करें। दीवारों पर आदर्श वाक्यलेखन-सहगान कीर्तन और युगधर्म संबंधित स्थानीय आधारों का स्वरूप और समाधान प्रस्तुत करें। इसके लिए देवालयों को केन्द्र बनाने की आवश्यकता नहीं है। अपने देश का हर गाँव एक तीर्थ बन कर रहेगा। इस स्थापना के लिए हमीं लोग कटिबद्ध होकर क्यों न निकल पड़ें।

योजना इस प्रकार बने कि साइकिल टोली प्रचारक अपने यहाँ से शान्तिकुञ्ज को विश्व तीर्थ मान कर उसके लिए प्रयाण करें। जहाँ भी उपयुक्त लगे, विराम करें और अपने ढंग से प्रचार प्रक्रिया क्रियान्वित करें। शान्तिकुञ्ज पहुँच कर दो-चार दिन विश्राम करें, साधना करें एवं प्रेरणा ग्रहण करें।

यों पैदल-यात्रा में अधिक जनसंपर्क होने खर्च कम पड़ने, चाहे जहाँ सुस्ताने आदि की अधिक सुविधाएँ तो हैं, पर समय अधिक लगने तथा श्रम को सहन करने की सुविधा भी तो चाहिए। जिन्हें साइकिल चलाना नहीं आता, ऐसे लोग, विशेषतया महिलाएँ साइकिल की अपेक्षा पैदल चलने अथवा वाहनों का उपयोग करने के लिए विवश होती हैं, पर औसत व्यक्ति के लिए, जिन्हें चलाना आता हो, उन्हें साइकिलों की टोली बना कर निकलना ही सुविधाजनक होता है। साइकिलों की दो तीन-चार की टोली ही पर्याप्त है। इनमें से एक भार वाहक रिक्शा भी होना चाहिए, जिसमें बिस्तर कपड़े, भोजन बनाने के साधन वाद्ययंत्र आदि को सुविधापूर्वक ले जाय जा सके। साइकिलों में लोग कैरियर पर बहुत सीमित सामना ही लाद सकते हैं। रिक्शे को टोली वाले बारी-बारी भी लेकर चल सकते हैं, अथवा यात्रियों में से भी कोई ऐसा हो सकता है, जो रिक्शा चलाने आगे जाकर सूचना देने, भोजन का प्रबन्ध करने में अपनी हेठी अनुभव न करे। छोटा या बड़ा लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर हर हालत में साथ रहना चाहिए। स्लाइड प्रोजेक्टर भी ऐसा ही, सस्ता साधन है जो रंगीन प्रकाशचित्र दिखा कर किसी गली मुहल्ले की भीड़ इकट्ठी कर सकता है और प्रवास के साथ धर्म प्रचार का दुहरा उद्देश्य एक साथ पूरा कर सकता हैं।

यों झोला पुस्तकालय चलाना, ज्ञानरथ धकेलना घरों में स्लाइड प्रोजेक्टर दिखाना, आदर्शवाक्य लेखन, स्टीकर्स लगाना, प्रचार उपकरण पेटी से छोटी-छोटी गोष्ठियाँ नियोजित करना, प्रभात फेरी स्तर का अलख जगाना, साप्ताहिक सत्संग के लिए दौड़-धूप करना यह सब भी प्रकारान्तर से पदयात्रा, तीर्थयात्रा की ही आवश्यकता पूरी करते हैं, पर साइकिल टोलीयात्रा का जो प्रभाव-परिणाम देखने को मिलता है, उसकी बात ही दूसरी हैं।

तीर्थयात्रा के पुण्य से प्रभावित का समावेश की बात सोचने वाले उसमें उपयोगिता का समावेश नहीं कर पाते, तो नर्मदा परिक्रमा गोदावरी परिक्रमा, गंगा परिक्रमा, किसी तीर्थ या क्षेत्र की परिक्रमा कर लेने भर से भी मन को सन्तुष्ट कर लेते हैं। महिलाएँ घरों के भीतर तुलसी के थाँवले तथा घर से बाहर पीपल वट आँवला आदि वृक्षों की परिक्रमा कर लेते हैं और कितनी बार भ्रमण हुए इसकी गणना के लिए सूत का कच्चा धागा निर्धारित केन्द्र के आस-पास लपेटती जाती हैं। इन चिन्ह पूजाओं को देखकर अभी भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस महान परम्परा की स्मृति तो किसी न किसी रूप में लोग अपनाये हुए ही हैं।

श्रावण या फागुन के महीनों में गंगाजी की काँवर कंधे पर रखकर लोग ले जाते हैं और समीपवर्ती किसी शिवालय में उस चढ़ाते हैं। काँवर पदयात्रा अभी भी देहाती क्षेत्रों में किया जाना प्रचलित है। जो लोग इस प्रयोजन के लिए निकलते हैं, वे मिल जुलकर धार्मिक गीत ऊँचे स्वर से गाते चलते हैं ताकि जो भी उस गायन को सुने वे कुछ प्रेरणा प्राप्त करें। जुलूसों में भी सहगान कोरस गाये जाते हैं। यह चिन्ह पूजा बताती है कि धर्म प्रचारक ही नहीं, तीर्थयात्रा का उपक्रम किसी न किसी प्रकार हर स्तर के लोग किसी न किसी रूप में क्रियान्वित करने के लिए लालायित रहते हैं।

पापों के प्रायश्चित के लिए एक बहु प्रचलित माध्यम तीर्थयात्रा ही की मान्यता अभी भी है। साधु और ब्राह्मणों के लिए निर्धारित क्रियाकृत्यों में एक तीर्थयात्रा भी है। वे चारों धाम, उत्तराखण्ड यात्रा आदि पर निकलते हैं। अन्यथा इतना तो करते ही है कि समीपवर्ती किसी पर्व पर मेलों में सम्मिलित होकर उस तरह का मन बनाते हैं। कुंभ आदि के बड़े मेलों एवं सोमवती अमावस्या, ग्रहण आदि के अवसर पर समीपवर्ती नदियों-सरोवरों में नहाने जाते हैं। वहाँ अच्छा खासा मेला लग जाता हैं।

प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों की एक प्रशिक्षण पद्धति यह भी थी कि वे अपने शिष्यों की मण्डली साथ लेकर तीर्थयात्रा पर निकलते थे और उपयुक्त स्थानों पर विराम करते हुए अध्ययन-अध्यापन का क्रम चलाते रहते थे। इससे उस ऋषि मण्डली को अनेक क्षेत्रों के साथ संपर्क साधने, अनुभव बटोरने एवं स्वास्थ्य संवर्द्धन के बहुमुखी लाभ मिलते थे। पद यात्रा स्वास्थ्य संवर्द्धन का एक अति सरल और महत्वपूर्ण माध्यम माना गया है। अभी भी छुट्टी के दिनों में छात्रों, किसानों एवं दूसरों लोगों को पर्यटन-परिभ्रमण के लिए विशेष सुविधा मिलती रहती है। इस प्रकार पर्यटन एक उद्योग भी बन गया है, जिसमें अनेक श्रमिकों, व्यापारियों एवं वाहनों आदि को कुछ कमाई कर लेने का अवसर मिलता है। यह सब प्रयोजन प्राचीनकाल की उस तीर्थ परम्परा का ही स्मरण दिलाते हैं। जिससे अनेकों को अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभ उठाते रहने का अवसर मिलता था।

इक्कीसवीं सदी की युगान्तरीय चेतना का संदेश सुनाने एवं वातावरण बनाने, उत्साह उभारने के लिए उसी प्राचीन परम्परा को अब नये ढंग से नये कार्यक्रम के साथ प्रयुक्त करने की योजना बनाई गई है। जिसे अपनाकर प्रचारकों और विचारकों ने यहाँ के जन समुदाय एवं वातावरण को उच्चस्तरीय बनाने में असाधारण सफलता अर्जित की, उसे पुनर्जीवित करे उद्देश्य तथा सार्थक बनाने का ठीक यही समय हैं।

साइकिल टोलियों का प्रवास कार्यक्रम अपने चुने हुए क्षेत्र में किया जाय ताकि सर्वथा अजनबी क्षेत्र के साथ संपर्क साधने में, यात्रा सम्बन्धी तथा लोगों का सहयोग पाने के संदर्भ में असाधारण कठिनाई का सामना न करना पड़े। असाधारण निर्धारण में अपेक्षाकृत कम कठिनाइयों का सामना करने से काम चल जाता हैं।

कभी प्रचलन यह भी रहा है कि देवालयों, धर्मशालाओं का निर्माण विशालकाय धर्म प्रचार केन्द्रों के रूप में ही किया जाता था। वहाँ दान-दक्षिणा के रूप में खाद्य-पदार्थों आदि का भी संचय रहता था ताकि प्रचारकों को कम से कम असुविधाओं का सामना करना पड़े। तब धर्म केन्द्र और तीर्थयात्रा प्रयोजन दोनों एक दूसरे के साथ अत्यन्त सघनतापूर्वक जुड़े हुए थे। अब वह समय न जाने कब आवेगा। इसकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अब तो सिर्फ चिन्हपूजा की मनोरंजन प्रक्रिया ही सर्वत्र हावी है, परमार्थ किसी को सूझता ही नहीं। देवालयों में मनोकामनापूर्ण करने या सस्ती वाह-वाही लूटने के उद्देश्य से ही धर्म स्थानों का निर्माण होते देखा गया हैं।

इस दिशा में शान्तिकुञ्ज ने २४०० प्रज्ञापीठों की स्थापना उत्तर भारत के अनेकों स्थानों पर पिछले दिनों की थी। किन्तु दुर्भाग्य यही रहा कि पुरानी मान्यताओं को बदल सकने में वैसी सफलता नहीं मिली जैसी मिलनी चाहिए। कलेवर मुख्य रहा और प्राण प्रतिष्ठा के तथ्य को एक प्रकार से उपेक्षित ही रखा गया।

अब नये सिरे से नये ऐसे धर्म-स्थानों को बनाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है जो तीर्थ यात्रा आन्दोलन के साथ सघन रूप से जुड़े हुए रहें। जहाँ धर्म प्रचारकों को ठहरने की, भोजन ही सुविधाएँ उपलब्ध रहें।

अगले दिनों हर गाँव-कस्बों को ऐसे ही धर्म संस्थानों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ेगी। भले ही वे आर्थिक असुविधा की स्थिति में, झोपड़ी, खपरैल, टिनशेड, चौपाल, सघन वृक्ष के उद्यान जैसे ही आच्छादनों के सहारे बना लिये जाएँ। अपने तीर्थयात्री अब यह प्रयत्न भी करेंगे कि जहाँ ठहरें, वहाँ किसी न किसी रूप में एक प्रबल प्राण वाले तीर्थ आच्छादनों की स्थापना करें। भले ही उनके कलेवर सस्ते साधनों से बने हुए ही क्यों न हों?

एक प्राचीन परम्परा यह भी थी कि हर घर से एक-एक रोटी संग्रह करके तीर्थयात्रियों की भोजन व्यवस्था जुटा ली जाती थी। किसी पर अधिक भार न पड़ता था। बनाने-पकाने का झंझट भी नहीं रहता था और देने वाला यह अनुभव करता था कि उसने भारतीय धर्म में सर्वोत्तम स्तर के माने जाने वाले कार्य में सहयोग दिया। अब से जहाँ संभव होगा वहाँ शान्तिकुञ्ज की साइकिल यात्राएँ उस परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न करेंगे। जहाँ संभव न होगा वहाँ मंडली के साथ रहने वाले भारवाहक रिक्तों में वे सभी साधन लदे रहेंगे जो यात्रा अवधि में भोजन वस्त्र, प्रचार उपकरण आदि के रूप में आवश्यक होते हैं।

जहाँ भी प्रज्ञा केन्द्र हैं छोटे बड़े संगठन बन चुके हैं, वहाँ समय समय पर तीर्थ यात्राएँ निकलने का प्रयत्न चलना चाहिए। साइकिल, रिक्शा आदि उपकरण एक बार पूरी तरह संग्रह कर लिए जायँ तो टोलियों में जानें वाले ढपलियों को बजाते हुए नये मार्ग से जाने और लौटने के लिए चुनते हुए प्रबंध ऐसा करें कि तीर्थ प्रक्रिया वर्षा को छोड़ कर अन्य महीनों में बराबर चलती रहे। जहाँ इतना प्रबंध न हो रहा है वहाँ अपनी व अपने पड़ोसी की साइकिल माँग कर वर्ष में एक से दो बार दो टोलियाँ निकाल ही सकते हैं। इसके लिए फरवरी से जून तक का और सितम्बर से दिसम्बर तक का समय भी ऋतु की दृष्टि से अनुकूल रहता है। देश का हर गाँव तीर्थ बने, हर क्षेत्र में जीवंत युगान्तरीय चेतना उभरे, इसके लिए मनीषियों को गाँव-गाँव पहुँचने और जन-जन को ऐसे विचारशील प्रतिभाशाली लोगों के संपर्क कि नवयुग के अवतरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का सूत्र संचालन बन पड़ा।

जहाँ कोई बड़ी तैयारी नहीं हैं। पूर्व योजना बनाने तथा इस संबंध में अब तक प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला है वहाँ एक सरल उपाय यह है अपने यहाँ से हरिद्वार चल पड़ने की योजना बनाई जाय। रास्ते में वाक्य लेखन, दीपयज्ञ, सहगान कीर्तन, प्रवचन, साहित्य विस्तार, स्टीकर लगाने आदि कार्य करते हुए शान्तिकुञ्ज पहुँचा जाय। वहाँ दो चार दिन विश्राम एवं मये प्रशिक्षण का लाभ प्राप्त करते हुए दूसरे रास्ते से घर वापस लौट चला जाय ताकि जाने में अलग और लौटने में अलग गाँवों से संपर्क सधे।

इसके अतिरिक्त यह भी हो सकता है कि अपने इलाके की एक परिधि बना कर उसके हर गाँव के साथ संपर्क बनाने का काम हाथ में लिया जाय और निर्धारित परिक्रमा पूरी की जाय। इमारतों, मन्दिरों-जलाशयों तक तीर्थयात्रा को सीमित न करते हुए उस क्षेत्र को ही एक जीवंत तीर्थ मान लिया जाय और उसकी अभ्यर्थना नव चेतना संचार द्वारा ही जाय।

अगले दिनों जन शक्ति ही समस्त समस्याओं का समाधान करेगी। राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, पारिवारिक एवं अनीति उन्मूलन, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन जैसे कार्यक्रमों में जो लोग निरत होंगे उन्हीं के हाथ सुदृढ़ और सुनिश्चित नेतृत्व अनायास ही जा पहुँचेगा। सेवा के बदले श्रद्धा उपलब्ध करने वाले ही संसार का नेतृत्व करते और महामानव बनते रहे हैं। वातावरण बदलने में भी उन्हीं को सराहनीय श्रेय मिला है। इस साधना को सम्पन्न करने वाले स्वयं लाभान्वित होंगे और अपने संपर्क क्षेत्र को भी लाभान्वित करेंगे। इसलिए नवयुग के आगमन की पुण्य बेला में तीर्थयात्रा के रूप में युगचेतना का अभिनव संचार किया जा रहा है।

इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज की अपनी योजना है। बड़ी संख्या में यहाँ नई साइकिलें भाषण-वादन प्रचार उपकरण आदि संग्रह कर लिये गये है। शान्तिकुञ्ज के प्रामाणिक और प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता अपनी-अपनी टोलियाँ लेकर माँग वाले क्षेत्रों में भेजे जाते रहते हैं। यात्रियों को कहाँ क्या करना चाहिए, इस प्रकार का प्रशिक्षण भी मिल जाता है और सुविधा साधन भी जुट जाते हैं। शान्तिकुञ्ज ने इन्हीं दिनों सन् १७७० में एक हजार साइकिल टोलियों को कार्य क्षेत्र में भेजने का निश्चय किया है। आवश्यकतानुसार यह संख्या लाखों तक पहुँच सकती है और समूचे विश्व को अपना कार्य क्षेत्र बना सकती हैं।


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