इस बार का बसन्त पर्व एवं उसकी उपलब्धियाँ

April 1990

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लम्बी मंजिल लगातार चल कर पार नहीं की जाती। बीच में सुस्ताने के लिए विराम भी देना पड़ता है। रेलगाड़ी जंक्शन पर खड़ी होती हैं। पुराने मुसाफिर और असबाब उतारे जाते हैं। नये चढ़ाये जाते हैं। ईंधन भरने और सफाई करने की थी आवश्यकता पड़ती हैं। आर्थिक वर्ष पर पुराना हिसाब-किताब जाँचा जाता है और नया बजट बनता हैं। भ्रूण माता के गर्भ में रहकर अंग प्रत्यंगों को इस योग्य बना लेता है कि शेष जीवन उससे बाद काम में लगाया जा सके। किसान हर साल नई फसल बोने और काटने का क्रम जारी रखता हैं। यह सब कृत्य लगातार नहीं होते, बीच में विराम के क्रम भी चलते रहते हैं। फौजियों की टुकड़ी भी कूच के समय में बीच-बीच में सुस्ताती हैं।

ब्रह्मकमल की एक फुलवारी अस्सी वर्ष तक हर साल एक नया पुष्प खिलाने की तरह अपनी मंजिल का एक विराम निर्धारण पूरा कर चुकी। अब नयी योजना के अनुरूप नयी शक्ति संग्रह करके नया प्रयास आरम्भ किया जाना है। यह विराम प्रत्यावर्तन लगभग किया जाना है। यह विराम प्रत्यावर्तन लगभग वैसा ही है जैसे वयोवृद्ध शरीर को त्याग कर नये शिशु का नया जन्म लिया जाता है और नये नाम से सम्बोधन किया जाता है। नवसृजन की सन्धिवेला में भी लगभग ऐसा ही हो रहा है। विराम की अवधि अस्सी वर्ष रहे तो इसमें कुछ अनहोनी नहीं मानी जानी चाहिए। नवसृजन अभियान तथा उसके लिए नियमित रूप से काम करने वाले व्यक्ति के सम्बन्ध में भी ऐसा ही सोचा जा सकता है।

सभी को तो नहीं पर साथ में जुड़े हुए लोगों को इसका पूर्व संकेत विदित था। इसलिए उन्हें भूतकाल के आश्चर्य जनक रहस्यों और भविष्य के अभूतपूर्व निर्धारणों के सम्बन्ध में अधिक कुछ जानने की उत्सुकता एवं जिज्ञासा उभरी। समय रहते उनने प्रत्यक्ष पूछताछ करने की आतुरता प्रदर्शित की। सन् ९० का वसन्त आने से पूर्व कई महीने पूर्व आत्मीयजनों के हरिद्वार आने पर ताँता लग गया। आगमन का उद्देश्य वह लाभ उठाने का था जो किसी बड़े व्यवसायी के कारोबार में भागीदार बन जाने वालों को सहज ही मिलने लगता है। अनुसंधान-अन्वेषण भी एक कारण ही रहा है। रहस्यों का पता लगाने का सहज कौतूहल भी इस उत्साह का निमित्त कारण हो सकता है। जो हो पिछले छः महीने इसी ऊहापोह में बीते हैं। इस बीच इतने प्रज्ञापुत्रों का आगमन हुआ जितना कि इस आश्रम के निर्माण से लेकर अब तक के पूर्व वर्षों में कभी भी नहीं हुआ। बहुसंख्य परिजनों के आगमन से भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि जिज्ञासुओं ने आग्रहपूर्वक वह सब उगलवा लिया जो रहस्यमय समझा जाता और लुक-छिप कर लिया जाता रहा हैं। महत्वपूर्ण स्थानान्तरों के अवसर पर सहज सौम्यता इसके लिए बाधित भी तो करती ही हैं कि चलते समय तो गोपनीयता का, आश्चर्य-असमंजस का समाधान कर ही दिया जाय। सो कुशलक्षेम सहज आतिथ्य के अतिरिक्त ऐसा भी बहुत कुछ पूछा बताया गया जिनका तनिक दूर रहने वालों को अनुभव भी नहीं हैं। जो आ नहीं सके उन्हें भी उस रहस्यमयी चर्चाओं की जानकारी प्राप्त करने से वंचित न रहना पड़े, यह विचार करते हुए आवश्यक रहस्यों का इन व्यक्तियों में लिपिबद्ध कर देना उचित समझा गया ताकि उपयोगी जानकारी से वे लोग भी वंचित न रहें जो अब तक न सही अगले दिनों संपर्क में आयेगी और अतीत के संबंध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक होंगे। कारण कि इस रहस्योद्घाटन में उनका भी तो ऐसा लाभ सन्निहित है जो सफल लोगों के महामानवों के सहचरों को सहज मिलता रहता है।

अनुमान सभी को वह था कि इस तंत्र की प्रायः सभी महत्वपूर्ण गतिविधियों का प्रथम दिन वसंत पंचमी हैं। सो उस मुहूर्त को विशेष महत्व देने वाले आगन्तुकों की संख्या निश्चय ही पहले दिनों की अपेक्षा निश्चित रूप से अधिक रहेगी। हुआ भी ठीक ऐसा ही। मिशन के साथ जुड़े हुए परिजन इस वसन्त पर्व पर इतनी अधिक संख्या में आये जितने कि विगत दस वर्षों में कुल मिलाकर भी नहीं आये थे।

आश्रम की परिधि और आगन्तुकों के लिए साधनों की तुलनात्मक दृष्टि से कमी होने के कारण शान्तिकुञ्ज के आश्रमवासी इस आपत्तिकालीन समस्या से निपटने में जुट गये। भूमि न मिल सकी तो जितना स्थान पास में था उसे बहुमंजिला और सघन बनाया गया। लगभग सारा काम श्रमदान से हुआ और जितनों के लिए जगह थी उससे प्रायः ढाई-तीन गुना के लिए जगह बना दी गई। भोजन व्यवस्था के लिए बड़े आधुनिक यंत्र-उपकरण नये सिरे से लगाये गये और ऊपरी मंजिल पर बने भोजनालय से नीचे खाद्य पदार्थ लाने के लिए एक गुड्स लिफ्ट को फिट किया गया। बिछाने के लिए फर्शों का अतिरिक्त प्रबंध किया गया। फिर भी असुविधा रहने की आशंका थी पर काम किसी प्रकार चल गया, जैसे कि ईश्वर पर आश्रित लोगों का चल जाया करता है। इस बार का बसन्त पर्व न केवल आयोजन की दृष्टि से वरन् स्वजनों के साथ आत्मीयता भरे परामर्श देने की दृष्टि से भी अनुपम रहा। लोगों ने इतना कुछ ऐसा कुछ पाया जिसकी आशा या संभावना कदाचित थोड़ों को ही रही होगी।

सुनना अधिक कहना कम, करना-अधिक बताना कम, सिखाना कम-सीखना अधिक जिनकी जीवन शैली रही हो, वे इतने गंभीर प्रसंगों को इतनी सरलतापूर्वक बता देंगे इस स्थिति का प्रावधान पाकर आगन्तुकों में से अधिकांश को भारी संतोष हुआ। प्रश्नों की-जिज्ञासाओं की झड़ी लगी रही। इतनों को एक व्यक्ति इतना कुछ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बता सकता हैं, यह प्रसंग भी अपने आप में अद्भुत रहा।

अधिकांश जिज्ञासुओं ने एक जिज्ञासा प्रधान रूप से प्रकट की एक साधन रहित एकाकी व्यक्ति सीमित समय में इतने भारी और इतने व्यापक काम कर सकता है, इसका रहस्य बचा है? पूछने वालों को उन सर्व विदित बातों का तो पता ही था जो कानों से सुनी और आँखों से देखी गई हैं।

मूल प्रश्न था युगचेतना उभारने वाला इतना साहित्य कैसे सृजा गया? उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन प्रसार कैसे सम्पन्न हुआ? इतना बड़ा परिवार कैसे संगठित हो गया, जिसमें पाँच लाख पंजीकृत और इससे पाँच गुना अधिक सामयिक स्तर पर सम्मिलित उच्चस्तरीय व्यक्तियों का समुदाय किस प्रकार जुड़ता चला गया और साथ चलता रहा? एक व्यक्ति के तत्त्वावधान में २४०० आश्रम-देवालय कैसे बन सके? शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस् गायत्री तीर्थधाम जैसे बहुमुखी सेवा कार्य में संलग्न संरचनाओं की इतनी सुव्यवस्था कैसे बन सकी? सुधारात्मक और सृजनात्मक आन्दोलन की देश व्यापी विश्व-व्यापी व्यवस्था कैसे बन गई? “रोता आये हँसता जाये” वाला उपक्रम अनवरत रूप से कैसे चलता रहा? आदि-आदि ऐसे विदित अगणित क्रिया-कलाप इन अस्सी वर्षों में घटित हुए हैं जिनकी इतने सुचारु रूप से चलने की सूत्र संचालक जैसे एक नगण्य एवं साधारण से व्यक्तित्व से आशा की नहीं जा सकती कर भी वे कैसे सम्पन्न होते चले गए?

जड़ी बूटी चिकित्सा पर आधारित आयुर्वेद की नयी सिरे से शोध कैसे बन पड़ी व मनोरोगों के निवारण और मनोबल के संवर्द्धन की ब्रह्मवर्चस प्रक्रिया कैसे चलती रही? सात पत्रिकाओं का सम्पादन एकाकी प्रयास से कैसे चल पड़ा? लाखों शिक्षार्थी हर वर्ष प्रशिक्षण पाने से किस प्रकार लाभान्वित होते रहे? सृजनात्मक आन्दोलनों को इतनी गति कैसे मिल सकी जितनी कि अनेकानेक संगठन और समुदाय भी नहीं उपलब्ध कर सके?

उपरोक्त प्रत्यक्षदर्शी कृत्यों को जिनने अंकुरित, पल्लवित और फलित होते देखा है, उनका समाधान एक ही उत्तर से हुआ कि सर्वशक्तिमान सत्ता की इच्छा और प्रेरणा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व, मानस और श्रम को समर्पित कर सकने वालों के लिए ऐसा कुछ बन पड़ना तनिक भी कठिन नहीं हैं। एक छोटी सी चिनगारी के ईंधन के अम्बार से मिल जाने पर प्रचण्ड अग्निकाण्ड बन सकता है। पारस को छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। फिर भगवान के साथ रहने सर्वतोभावेन जुड़ने वालों की स्थिति वैसी क्यों नहीं हो सकती, जैसी कि बिजली के विशाल उत्पादन केन्द्र के साथ जुड़ जाने पर छोटे मोटे यंत्र उपकरण सहज ही चलते रहते हैं। बताया जाता रहा है कि यह सब कुछ मात्र कठपुतली के खेल की तरह होता रहा। श्रेय लकड़ी के खिलौने को नहीं, बाजीगर की उस कलाकारिता को मिलना चाहिए जो पर्दे के पीछे रह कर उँगलियों में बँधे तारों के सहारे अद्भुत हलचल करते चलने लायक बनाता और नचाता रहता हैं।

कुछ का समाधान तो हो गया, पर हजारों जिज्ञासु सन्देह ही प्रकट करते रहे और पूछते रहे कि जब लाखों की संख्याओं में गिने जो सकने वाले भगवद् भक्त गई गुजरी उपहासास्पद अवांछनीयताओं के बीच ही जीवन व्यतीत करते हैं। तब एक व्यक्ति ने ऐसा क्या किया जिसमें भगवान के अनुदान नरसी मेहता के हुण्डी बरसने तथा हनुमान अर्जुन जैसे किन्हीं बिरलों को भगवत् सखा होने के रूप में मिलें। संदेह सही भी था, पर जो उत्तर दिया गया वह भी कम समाधान कारक नहीं था। पात्रता के अनुरूप उपलब्धियों का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता है जिसे हर कहीं चरितार्थ होते देखा जा सकता हैं। खोटे सिक्के ही सर्वत्र ठुकराये जाते हैं। खरे सोने की कीमत तो कहीं भी उठाई जा सकती हैं। भगवान से जो अपना स्वार्थ साधना चाहता है। उस प्रपंची पाखण्डी को सदैव भगवान को उलाहना देने और निरंकुश कहते रहने की शिकायत रहती है। जिसने अपना सब कुछ पति के सामने सौंप दिया उस पत्नी को अपने पति की समूची सम्पत्ति सहायता और सद्भावना मिलकर रहती है।

स्रष्टा की एक ही अपेक्षा है कि सुरदुर्लभ मानव तन तथा जीवन पाने वाला प्राणी उपलब्ध विभूतियों के सहारे स्रष्टा के विश्व उद्यान को हरा भरा रखने के लिए वफादार माली की भूमिका निबाहें तो कोई कारण नहीं कि उसे आत्म संतोष, सभी का सम्मान, श्रेय यश तथा स्वामी का समुचित अनुग्रह अनुदान प्राप्त न हो। इस तथ्य की परीक्षा करनी हो तो संसार में जन्मे अब तक के महामानवों की जीवनचर्या को साक्षी देने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। पुण्य और परमार्थ को उस बीज की तरह विकसित होते देखा जा सकता हैं जो आरंभ में राई के बराबर होता है पर कुछ ही समय में विशालकाय बरगद वृक्ष की तरह उत्कर्ष के उच्च शिखर तक जा पहुँचता है। ईश्वर का अजस्र अनुदान प्राप्त करने का एक ही तरीका है और रहेगा कि स्वार्थ को परमार्थ में बदल दिया गया। धर्मधारणा और सेवा साधना को जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाया जाय। भिखारी बनकर नहीं, उदारचेता दानवीर बनकर भगवान के दरवाजे पर पहुँचा जाय और अनुदान का प्रतिदान असंख्यों गुनी मात्रा में वापस लौटाया जाय।

“साधना से सिद्धि” प्राप्त होने के रहस्य का उद्घाटन करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को यही जताया और बताया गया है कि सत्प्रवृत्तियों के धन हेतु अपने को प्रखर, प्रामाणिक और साहसी, उदारचेता बनाया जाय तो उतने भर से अनेकानेक कर्मकाण्डों की आवश्यकता पूरी हो जाती हैं और बदले में वह मिल जाता हैं जो सच्चे भगवद् भक्तों को मिलना चाहिए। साधना अपने आपको संयमी और सुसंस्कृत बनाने की की जाती हैं। इसके लिए स्रष्टा की एकमात्र इच्छा को पूरा करना पड़ता हैं कि संयमशील उदारचेता स्तर का परमार्थ परायण जीवन जिया जाय। साधु ब्राह्मण, सन्त, सुधारक और शहीद इसी स्तर के होते रहे हैं। उनकी साधारण सी पूजा उपासना भी तिल से ताड़ और राई से पर्वत बनती देखी जा सकती हैं, ईश्वर समर्पित मनुष्य ही देव-मानव कहलाते हैं और उन्हीं में वे सिद्धियाँ विभूतियाँ प्रकट होती हैं जिनके बारे में एक व्यक्ति के माध्यम से बन पड़े अनेकानेक महान कार्यों की चर्चा एवं पूछताछ की जाती हैं।


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