लेने और देने दोनों का ही अपने-अपने स्थान पर अपना-अपना महत्व है। इस सुविस्तृत प्रसंग पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए “दान” के सम्बन्ध में भी वैसा ही विचार करना पड़ता है। दान देते समय प्रसन्नता एवं गर्व-गौरव की अनुभूति होती है। लेने वाले से कृतज्ञ, सहयोगी, प्रशंसक बनने की अपेक्षा रहती हैं। देखने-सुनने वाले उदार व्यक्तित्व की झाँकी करते और समय-समय पर प्रशंसा भरी चर्चा करते हैं। विश्वस्त मानते और परोक्ष रूप से सहायक बनते हैं। इसके अतिरिक्त पापों के प्रतिफल से छुटकारा, पुण्यों की अभिवृद्धि, स्वर्ग और मुक्ति के प्रति-अमुक देवता की अनुकम्पा जैसी कितनी ही उपलब्धियों की आशा की जाती है जो खर्ची हुई राशि की तुलना में कहीं अधिक लाभ मिलने का आश्वासन दिखाती हैं। इतने पर भी इस संदर्भ में फूँक-फूँककर कदम उठाने की आवश्यकता समझी जाती हैं।
संकटग्रस्तों, अभावग्रस्तों की सहायता करने में धन का सदुपयोग ही है। सुविधा-संवर्द्धन के लिए कई लोग धर्मशालाएँ सदावर्त आदि ऐसा भी विनियोग करते हैं, जिनका लाभ सत्पात्रों को कम और कुपात्रों को अधिक मिलता है। मुफ्त औषधि वितरण की व्यवस्था को सराहा तो जाता है, तीर्थयात्रा पर-प्रीतिभोजों पर किये जाने वाले खर्च भी वास्तविक हित-साधन कितना कर पाते हैं-इसके लिए उपयोग की प्रक्रिया पर भी ध्यान देना-होगा लाखों-करोड़ों की संख्या में भिखारियों की संख्या बढ़ाने वालों ने गृहस्थों से स्वावलम्बन और आत्मगौरव छीना है। ऐसा कुप्रचलन बढ़ाया है, जिसने आदर्शनिष्ठा को, मानवी गरिमा को गिराने में ही सहायता की है। भिक्षा भी एक व्यवसाय गिना जाने लगने से देश का गौरव बढ़ा नहीं, वरन् गिरा ही हैं। इसलिए विचारशील वर्ग में उसे अनुचित ठहराया गया और हेय कहा गया है। प्रीतिभोजों से बची हुई जूठन मुफ्त में लेते रहने वाले वर्ग भी अब उस परम्परा को छोड़ रहे हैं। पहने हुए कपड़ों की उतरन सस्ते या मुफ्त में मिलने पर भी लेने वाला लजाता है और उस लाभ को संकोचपूर्वक ही ग्रहण करते-करते असमंजस में पड़ता हैं। आपत्तिग्रस्त दुर्घटना में फँसे हुए लोगों के अतिरिक्त अन्य लोग भिक्षास्तर के अनुदानों को अस्वीकार करते हैं। जिन संस्थाओं को दान देने पर इनकम टैक्स की छूट मिलती हैं, उन्हें साझीदार बना कर कई चतुर लोग दानी भी बन जाते हैं और आर्थिक लाभ भी उठा लेते हैं। चन्दाजीवी, धन्धेखोर भी ऐसी ही उलटी-पुलटी विसंगतियाँ बनाते रहते हैं। ऐसी दशा में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि धन दान करें तो किसी हद तक पुण्य कमाया या पाप घटाया। दहेज का लेन-देन भी कहने की दृष्टि से दान ही बन जाता है।
देवालय और तीर्थ कभी लोकशिक्षण की अतिमहत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करते रहे होंगे। कोई समय ऐसा भी रहा होगा, जब लोकमंगल के लिए समर्पित पुरोहित वर्ग आकांक्षीवृत्ति पर अपरिग्रही रीति-नीति अपनाये रहा होगा। तब उन्हें दान-दक्षिणा देने की भी उपयोगिता थी, पर जब वह अधिकार वंश और वेश के आधार पर उनके हिस्से में चला गया, तो उनकी परिणति क्या हुई?, इसकी विवेचना करते किस प्रकार बन पड़े। देवालय कभी धर्म प्रचार केन्द्र थे, पर आज तो उनमें मात्र मनोकामना पूरी कराने के लिए उसी स्तर के देवताओं को बदले में अनेक गुना लाभ देने के लिए मनाया जाता रहता हैं।
यहाँ मात्र इतना कहा जा रहा है कि कृपाओं को ही यदि धन दान दिया जाना हो तो मुट्ठी खोलने से पहले हजार बार यह भी विचार कर लेना चाहिए, कि इसकी परिणति क्या हुई या क्या हो सकती है? गिरों को उठाने और उठों को उछालने जैसी सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में सहायक होने वाले दान सदा से सराहनीय एवं श्रेयस्कर रहे हैं। उस पुनीत परम्परा को तो अभी भी और भविष्य में भी जीवन्त बनाये रहने की, रखे जाने की आवश्यकता हैं।
यहाँ इन पंक्तियों में एक नया सोच प्रस्तुत किया जा सकता हैं कि मानवता को लगे घावों को भरने के लिए जिस दान-पुण्य की परमार्थिक आवश्यकता हैं, उसके लिए उपयुक्त माध्यम जन-मानस का परिष्कार होना चाहिए। यह बन पड़ते तो समझना चाहिए कि इस क्षेत्र की उर्वर भूमि में बोया गया प्रत्येक बीज ऐसे प्रतिफलों से लदा रहेगा जिसमें प्रस्तुत संकटों को टालने से लेकर भविष्य में हर क्षेत्र को समृद्धिमय बनाने की क्षमता होगी। विचार परिमार्जन से लेकर सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन तक की परिधि में आने वाले पुनीत कार्य ही ऐसे है जिनके लिए स्वयं आधे पेट रह कर भी भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करने की उदारता दिखाई जानी चाहिए। व्यक्ति और समाज का सर्वतोमुखी कल्याण उन्हीं भाव-संवेदनाओं के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ हैं।
सर्वोच्च स्तर का ब्रह्मदान है सत्प्रयोजनों के लिए अधिकाधिक मात्रा में समयदान का-नियोजन क्योंकि वह तभी बन पड़ेगा, जब उसके पीछे श्रद्धा, सद्भावना और शालीनता के अभिवर्धन का गहरा पुट हो।
भगवान ने मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी बनाया है और साथ ही शारीरिक, मानसिक क्षमताओं का अजस्र भण्डार भी विपुल मात्रा में दिया है। इसे अन्य प्राणियों के साथ किया गया अन्याय या मनुष्य के साथ बरता गया भाई भतीजावाद स्तर का पक्षपात नहीं समझा जाना चाहिए। यह सामंतों से उनकी संतान को उत्तराधिकार में मिलने वाला मुफ्त का कोष या भण्डार नहीं है जिसे कुकर्मों और दुर्व्यसनों में भी मनमाने ढंग से खर्च कर डालने की छूट मिली हो। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को, जो कुछ भी अतिरिक्त रूप से मिला है वह एक विशुद्ध धरोहर है। उसे ऐसी अमानत समझा जाना चाहिए जिसे मात्र विश्व वाटिका को अधिक सुरम्य और अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिए ही खर्च किया जा सकता है। सरकारी खजाने में बड़ी सम्पदा जमा रहती है, पर उसमें से खजांची किसे कितना दे, यह शासकीय निर्धारणों पर ही निर्भर है। बैंक के कोषाध्याक्षों की तिजोरी में भी प्रचुर सम्पदा रहती है और उस तिजोरी की चाभी-कुँजी नियुक्त खजांची ही सँभालते हैं। इतने पर भी वे उसमें से निजी प्रयोजन के लिए अथवा अनधिकारी कामों के लिए एक पाई भी खर्च नहीं कर सकते। यदि वे लोग उस धन को ले भागें या मनमाना खर्च करने में उड़ा दें तो इसे अनाधिकारपूर्व चेष्टा माना जायगा। अमानत में खयानत करने का मुकदमा चलेगा और जेल ही न जाना पड़ेगा वरन् उस हड़पे हुए धन को घर घूरा बेचकर भी वापस जमा करना पड़ेगा
इस तथ्य को भुला देने वाले ही ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदा, जीवनकाल की अवधि का मनमाने ढंग से दुरुपयोग करते हैं और बदले में अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। पैसा तो मनुष्य का अपना कमाया हुआ है इसलिए उसमें की जाने वाली धाँधली को तो दरगुजर भी किया जा सकता है, पर समय सम्पदा की बरबादी तो खुली डकैती के सदृश्य है। इसे असाधारण स्तर का अनाचार कहा जा सकता हैं। ईश्वर के प्रति विद्रोह भी, जीवन के साथ की गई खिलवाड़ भी।
मनुष्य की आवश्यकताएँ अत्यन्त स्वल्प हैं। उसकी उपार्जन क्षमता इतनी अधिक है कि कुछ ही घण्टे श्रम साधना से निर्वाह की उचित आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं। सात घण्टे सोने में, आठ घण्टे कमाने में, पाँच घण्टे इधर उधर के कामों में खर्च कर लेने पर भी बीस घण्टे से अधिक रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने वाले को भी खर्चने नहीं चाहिए। चौबीस घण्टे समय में से चार घण्टे हर किसी के पास इसलिए बच जाते हैं कि उन्हें ईश्वर द्वारा निर्धारित प्रयोजनों के लिए लोकमंगल के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए लगाया जा सके। पर जो इस अनुशासन को पूरी तरह भूल जाते हैं। सारा समय विलास, संग्रह, मनोरंजन एवं अवांछनीय प्रयोजनों के लिए खर्च है कि वे आत्मा और परमात्मा के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। जो कर्तव्यों को अवहेलना में ही निरत हैं। उन्हें ऐसी ऊत सूझ रही है जैसी कि उन्मादियों और आतंकवादी, अनाचारियों को सूझती रहती हैं।
यह आपत्तिकाल जैसा समय है। अग्निकाण्ड, तूफान, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, बाढ़, दुर्घटना जैसे समय में तो हर भावनाशील को अपने निजी आवश्यक कामों को छोड़ कर भी उस विपत्ति में सहायता करने के लिए दौड़ना पड़ता है। उस समय निष्ठुरता धारण करके यदि कोई मूकदर्शक बना रहे और गुलछर्रे उड़ाने में निरत रहे तो वह सर्वत्र धिक्कारा जाएगा जो सुनेगा, देखेगा, वह भी इस निष्ठुरता को धिक्कारे बिना रहेगा नहीं। आत्मा ओर परमात्मा की दृष्टि से भी इस प्रकार की उपेक्षा का बरता जाना अक्षम्य ही समझा जायगा।
लूट, बलात्कार, हत्या, डकैती जैसे अपराध आँखों के सामने होते रहें, पर जो समर्थ होते हुए भी उन अनाचारों की रोकथाम के लिए टस से मस न हो तो उसे भी अपराधियों की श्रेणी में ही गिन लिया जाता हैं।
समय की सम्पदा को जिस भी प्रयोजन के लिए लगाया जाय, उसी स्तर की फल पक कर सामने आती है। लोभ, मोह और अहंकार के लिए, वासना, तृष्णा के लिए बौनी समझ के लोग उसे लगाते हैं, फलस्वरूप शोक-सन्ताप कलह-पतन के पराभव भुगतते हैं। इसी प्रचलन ने व्यक्ति और समाज को ऐसे जंजालों में फँसा दिया है जिनमें विनाश और विग्रह के अतिरिक्त और कुछ मिलता ही नहीं दीख पड़ता। आवश्यकता इस अभ्यास को आदि से अन्त तक बदलने की है। देवमानवों को मात्र पुण्य और परमार्थ ही सुहाता था, अन्तराल की शक्तियों और बहिर्जगत की सम्पदाओं को सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए लगाया जाता था। वे अपनी सामर्थ्य का नियोजन अपने और परायों का कल्याण करने में ही निरत रहते थे। फलतः सर्वत्र सतयुगी वातावरण बिखरा दीखता था और दैवी अनुग्रह अमृत वर्षा की तरह बरसता था। अभ्युदय के सभी द्वार खुल रहते थे और यहाँ के वातावरण को स्वर्गोपम बनाते थे।
पिछली शताब्दी में गिरने और गिराने का मार्ग अपनाया गया उसने नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करके रख दी हैं। इस अनाचार से प्रकृति और परमेश्वर दोनों को ही भारी कष्ट हुआ है। उनने कुमार्गगामियों को कड़ी प्रताड़ना देकर सीधे रास्ते पर चलाने का निश्चय किया है। साथ ही जो विनाश हो चुका है, उसे नये सिरे से सुधारने का भी। लंकाध्वंस और धर्मराज की स्थापना की त्रेता वाली दुहरी प्रक्रिया पुनः दुहराई जा रही हैं। इस भवितव्यता में सम्मिलित होकर श्रेयाधिकारी बनने की मानसिकता वाले हनुमान, जामवन्त, नल-नील ढूँढ़े जा रहे हैं। देवताओं को मनुष्य कलेवर धारण करके इस नवसृजन के लिए परमसत्ता द्वारा आमंत्रित किया जा रहा है। जो सहमत हो रहे हैं उनसे एक ही अपेक्षा की जा रही है-महाक्रान्ति के लिए समयदान। इन दिनों यही एक कार्य है-हरिश्चन्द्र भामाशाह स्तर का उदार आचरण। इसे अपनाने वाले लगभग उतने ही बड़े श्रेय के अधिकारी बनेंगे जिसे अब तक मात्र परमेश्वर को ही दिया जाता है। राम की प्रतिष्ठा के लिए जितने देवालय बने हैं, उनसे हनुमान के मन्दिर अधिक ही हैं।
यह चिन्ता करना व्यर्थ है कि अपनी समस्त सम्पदा यदि महाकाल की पुकार सुनकर नवसृजन के लिए लगा दी गई तो हमें घाटा पड़ेगा। वस्तुतः यह नफे का सौदा है। संसार भर के महामानवों का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि परमार्थी देव-पुरुषों ने जो खपाया उसकी तुलना में पाया कहीं अधिक हैं। मात्र संकीर्णता के वशीभूत होकर ही लोग युगधर्म निबाहने और समय की पुकार सुनने में आना कानी करते हैं, पर जिनने भी इस प्रयोजन के लिए साहस बटोरा है, वे कृतकृत्य होकर रहेंगे ओर लोकहित के निमित्त इतना कुछ कर सकेंगे जिसके लिए उसे अनुकरणीय अभिनंदनीय देवमानव के रूप में अनंतकाल तक स्मरण किया जा सके।
भगवान का द्वार निजी प्रयोजनों के लिए अनेकों खटखटाते पाये जाते हैं। पर अब की बार भगवान ने अपना प्रयोजन पूरा करने के लिए साथी-सहयोगियों को पुकारा है। जो इसके लिए साहस, जुटाएँगे, वे लोक और परलोक की सिद्धियों-विभूतियों से अलंकृत होकर रहेंगे। शान्तिकुञ्ज के संचालकों ने यही सम्पन्न किया और अपने को अति सामान्य होते हुए भी अत्यन्त महान कहलाने का श्रेय पाया है। अपेक्षा जाग्रत आत्माओं से भी इन दिनों ऐसा अनुकरण करने की की जा रही हैं।