विशेष लेख माला-२ - माथा पच्ची निरर्थक नहीं गई

April 1990

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इस बार का वसंत पर्व एक प्रकार का ब्रह्म यज्ञ रहा। शान्तिकुञ्ज की भूमि पर उन दिनों यही समुद्र मंथन होता रहा और जिज्ञासाओं को यह पता चल सका कि मनुष्य का निजी पुरुषार्थ नगण्य है। उसकी इच्छा-आकांक्षा वासना, तृष्णा और अहंता से आगे नहीं बढ़ती। उसी छोटे दायरे में वह कूप-मंडूक एवं गूलर के भुनगे की तरह अपनी बहुमूल्य जीवन सम्पदा को विसर्जित कर देता हैं। पूजा पत्री, छिटपुट पूजा पाठ तक तनिक से उपहार मनुहार तक सीमित रहकर वह स्वयं संतुष्ट रहता एवं उसे ईश्वर उपासना मानकर मन बहलाता, पास पड़ोस वालों को बहकाता रहता हैं। ऐसी दशा में प्रवंचना की विडम्बना उन्हें मात्र निराशा ही प्रदान करती हैं जो अपने को भक्तजनों की श्रेणी में गिन लेते हैं।

शक्ति के स्रोत ईश्वर के साथ जुड़कर मनुष्य भी हिमालय से निकलने वाली गंगा की तरह अपने और संसार का भला करने में समर्थ होता हैं। जिन सफलताओं के संबंध में चर्चा होती रहीं, वे मात्र सर्वविदित सुपरिचित एवं दृश्यमान हैं। इस श्रृंखला में अभी और कुछ कहीं अधिक जानने योग्य शेष रह जाता है जिसको आँखें से नहीं देखा गया, कानों से नहीं सुना गया, वरन् उसे समयानुसार फिर कभी पूछे और बताये जाने के लिये सुरक्षित रख लिया गया है। संक्षेप में व्यक्ति विशेष के द्वारा बन पड़े चमत्कारी कहे जाने वाले कार्यों के संबंध में उतना ही पूछना बताया जाना सीमित रहा कि शक्ति स्रोत से जुड़ने के लिये अपनी क्षुद्रता को महापुरुष के चरणों पर समर्पित करने और उनकी महानता को मान्यताओं भावनाओं, संवेदनाओं आकांक्षाओं एवं क्रिया–कलापों में कस लेने का सघन साहस यदि सच्चे अर्थों में किया जा सके तो अपने को ईश्वर के हाथों सौंपे जाने के बदलें में उसके अनुदान और सिद्धि सम्पदा को सहज खरीद पाना संभव है। मात्र पूजा पाठ की राई-रत्ती चिन्ह पूजा अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर सकती। यही समझा-समझाया जा सकता है, साधना से सिद्धि का रहस्य और मार्ग सदा से यही समझा-समझाया जाता रहा है।

वसन्त पर्व के महासत्संग ने अनजाने में भक्ति के साथ शक्ति के जुड़े होने का रहस्य समझाया है, जिसकी शाब्दिक जानकारी तो थी पर न कभी श्रद्धा जगती थी और न विश्वास परिपक्व होता था। मात्र जानकारी भर को पर्याप्त समझते थे, क्रिया रूप में कुछ परमार्थ जैसा कुछ करने के लिये साहस नहीं जुटा पाते थे। उनने इस बार तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझा। साथ ही यह भी अनुभव किया कि शरीरबल, बुद्धिबल मनोबल धनबल आदि क्षमताओं और सामर्थ्यों का कितना ही बाहुल्य क्यों न हो, आत्मबल की तुलना में उन सब की सम्मिलित क्षमता भी नगण्य हैं। शान्तिकुञ्ज परिकर द्वारा अब तक जो घटित हुआ है, उसके मूल में तप ही एक मात्र वास्तविकता है और यदि कोई ऐसा ही ओजस्वी तेजस्वी, वर्चस्वी, तपस्वी बनना चाहता है तो ऋद्धियों और सिद्धियों को प्राप्त करने के लिये कस्तूरी के मृग की तरह भटकने की क्या आवश्यकता हैं? मात्र पूजा के सहारे दैवी अनुकम्पा के रूप में मिलने वाले अनुदानों की जो अपेक्षा करते हैं, उन्हें मृग तृष्णा में भटकने पर खीज़, थकान और निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

बीज अपने बल बूते वृक्ष नहीं बन जाता। उसे खाद पानी भी चाहिए। व्यक्तित्व की प्रामाणिकता और व्यवहार में उच्चस्तरीय उदारता की समावेश ही वह आधार है जिसके बलबूते किसी को भी साधारण परिस्थितियों में रहते हुए भी असाधारण स्तर का देवमानव बनने का अवसर मिल सकता है

वसन्त पर्व के दिन इस संदर्भ में चलता रहा शंका समाधान निरर्थक नहीं गया। रहस्योद्घाटन की जानकारी प्राप्त करके जिज्ञासा की तुष्टि भर नहीं हुई, वरन् सहस्रों ने निश्चयपूर्वक संकल्प लिया कि वे अगले दिनों राजमार्ग पर चलेंगे। शेष जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनायेंगे। ईश्वर की आशा अपेक्षा पूरी करेंगे और बदले में उसे सच्चे साथी सहचर की भूमिका निबाहते हुए निहाल कर देने के लिये बाधित करेंगे।


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