विशेष लेख माला-१७ - यह सरल है कठिन नहीं

April 1990

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सर्वतोमुखी श्रेय साधना का यह सर्वश्रेष्ठ समय है। इसे चूका नहीं जाना चाहिए। जो उपयुक्त अक्सर पर मुँह मोड़ते और पीठ दिखाते हैं, वे परीक्षा भवन में गायब हो जाने वालों की तरह सदा-सर्वदा पछताते ही रहते हैं। इस भूल को अनेक बार दुहराया जाता रहा है पर जब भगवान ने सुदामा से उसकी तंदुल पोटली माँग कर बदले में टूटे छप्पर वाली सुदामापुरी को सर्वसम्पन्न सृजित द्वारिकापुरी के रूप में बदलने का आमंत्रण भेजा हैं, तब उस स्वर्ण सौभाग्य को स्वीकार करने में आना कानी नहीं ही की जानी चाहिए। पेट और प्रजनन की छोटी-सी परिधि में तो कीड़े-मकोड़े भी अपना समय गुजार लेते हैं, पर जब कल्पवृक्ष के नीचे विश्राम मंच किसी ने बिछाया तो उस पर बैठने भर का निर्वाह करने में आनाकानी क्यों करनी चाहिए?

धन दान तो फालतू पैसे वाले उपेक्षापूर्वक अपना ढिंढोरा पिटवाने के लिए भी खर्च कर देते हैं, पर उच्चस्तरीय लक्ष्य पर चल पड़ना तभी बन पड़ता है जब श्रद्धा, सद्भावना और उत्कृष्टता का उसके साथ समुचित समावेश बन पड़े। परीक्षा की इस घड़ी में यहाँ जाँच खोज हो रही है कि यदि कहीं महानता जीवित होगी तो वह इस नवनिर्माण के पुण्य पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी। दिनमान का अभिनन्दन करने में मात्र निशाचर ही मुँह छिपाते देखे गये हैं। हमारी गणना उन भगोड़ों में नहीं होनी चाहिए जो मोर्चे पर ऐसे पराक्रम का परिचय देने में अपने को असमर्थ पाते और कायरों की तरह सभी धिक्कार सहते हुए पीछे भाग खड़े होते हैं और उलटे सीधे बहाने खोजते हैं।

गाँधी और बुद्ध के आह्वान पर असंख्यों ने अपने तथाकथित आवश्यक काम छोड़ कर भी उन दिनों के महान अभियान में अपनी कारगर भूमिका निबाही थी और पीढ़ियों तक के लिए यशगाथा सुरक्षित छोड़ गये थे।

लिप्सा, तृष्णा और अहमन्यता के उन्माद पर यदि थोड़ा अंकुश लगाया जा सके तो हर किसी के पास इतना समय श्रम और साधन सहज बच जाता है जिसके बलबूते सराहनीय स्तर पर युग धर्म निबाहते बन पड़े। जो सादा जीवन जी सकेगा वहीं उच्च विचारों की अवधारण में समर्थ हो सकेगा। अच्छा हो वासना विलासिता की जंजीरों को कम से कम इस अवधिकाल में थोड़ा ढीला कर ही लिया जाय। भौतिक महत्त्वाकाँक्षा के लिए आतुर होने पर अंकुश लगाया जाय। कुबेर सा सम्पन्न और इन्द्र सा वैभववान् बनने की लालसा तो संजोई जा सकती है, किन्तु विश्व व्यवस्था का अनुशासन ऐसा है कि इन लुटेरों की भी अमर्यादित अभिलाषाओं में से पूरी यत्किंचित् ही किसी की होती है।

परिवार परिकर का अनावश्यक व्यामोह बढ़ाते चलने की मूर्खता से समय रहते जो सजग हो जाते हैं, ऐसे लोगों के लिए याचनारत भगवान को दरवाजे पर से दुत्कार देने का अकार्य नहीं करना पड़ता। अपरिग्रही साधु ब्राह्मण ही दैवी प्रयोजनों को पूरा कर सकने में समर्थ हुए है। लिप्सा और तृष्णा की समुद्र जैसी खाई को पाट सकना किसी से भी नहीं बन पड़ा। सोने के पहाड़ जमा करने से कोई लाभान्वित नहीं हुआ। विश्व विजयी बनने के लिए सब कुछ कर गुजरने के लिए उद्धत महादैत्यों के लिए असीम मनोकामनाओं को पूरा कर सकना संभव नहीं हुआ, तो सामान्य योग्यता और क्षमता वाले कुछ कहने लायक सुखोपभोग कर सकेंगे इस मान्यता को उपहासास्पद ही बनना पड़ेगा।

जो तृष्णाओं को मर्यादित कर सके, जिनकी परमार्थ भावना गहरी खुमारी से उबर सके, उनमें से किसी के लिए भी इन दिनों की अनिवार्य समयदान योजना को उदारतापूर्वक पूरी करने से वंचित न रहना पड़ेगा। व्यस्तता और अभावग्रस्तता तो मात्र बहाने हैं। अभिरुचि होने पर जब अवांछनीय कार्यों के लिए सारा समय और मनोयोग खपाते रह सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि भावनाशीलों के लिये युगचिन्तन के अनुकूल बनने में कोई ऐसा व्यवधान सामने आये जिसे हटा सकना बन ही न पड़े।


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