विशेष लेख माला-१९ - अपने को बदल क्यों न दें?

April 1990

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मकड़ी अपने लिए अपना ताना बाना स्वयं बुनती और उसी में इच्छानुसार फँसी जकड़ी रहती है। बंधन अनुभव होने पर रुका करती हैं, पर जब भी उसकी मान्यता बदलती है तभी जाले को समेट कर गोली की तरह पेट में निगल लेती है और सहज स्वाभाविक स्थिति में निर्द्वन्द्व विचरती है। बाद में वह नये निर्धारण के अनुरूप नया मार्ग अपनाती और नई परिस्थितियाँ पैदा करती है।

मनुष्य भी एक प्रकार की मकड़ी है। वह अपने लिए अपने ढंग का संसार स्वयं विनिर्मित करता हैं। वह गया गुजरा, दुख-दारिद्रय से भरा भी हो सकता है, पर यदि परिवर्तन पर उतारू हो जाय तो पिछड़ी मनःस्थिति के साथ उन परिस्थितियों को भी बदल सकता है जो अवांछनीयताओं से भरी, अनावश्यक एवं विपन्नता विद्रूपता से भरी पूरी दीखती हैं।

जन्म से एक जैसी रुचि और मान्यताएँ लेकर सभी जन्मते हैं। ईश्वर का इतना ही अनुदान बहुत हैं, आगे की संरचना मनुष्य स्वयं ही करता है। वह भला भी हो सकता है और बुरा भी। राहगीर एक दिशा में जाने वाली सड़क पर चलता है, पर जब भिन्न आवश्यकता अनुभव करता है तो चौराहे पर से दूसरी दिशा अपना लेता है। दूसरे रास्ते चलते और दूसरी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। यह सब अपने ही निर्णय-निर्धारण और बदलाव का खेल हैं। यों उसकी परिणति चर्मचक्षुओं से बदलती घटनाओं के रूप में दीखती हैं, पर वस्तुतः इस उलट-पुलट के पीछे मनुष्य की मानसिकता ही प्रमुख होती है। आखिर मनुष्य भी तो एक विशेष प्रकार की मकड़ी ही हैं न?

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जिनमें आरंभ में अपनाये गये निर्धारण को लोगों ने भिन्न दिशा में पूरी तरह बदल दिया है। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जिसमें बहुतों को कुलबुलाते देखा गया है, पर कितनों ने ही ऐसा भी सहज कर दिखाया है जिसमें उनने अपनी अभ्यास अवांछनीयता में पूरी तरह परिवर्तन कर लिया और कुछ से कुछ बन गये। यही प्रक्रिया कायाकल्प कहलाती है।

विपन्नों को संपन्न बनने में भले ही देर लगती हो पर मानसिकता में अभीष्ट परिवर्तन करके अपना स्तर, क्रिया−कलाप एवं लक्ष्य तो निश्चित रूप से बदला जा सकता है। यह न आश्चर्य है, न चमत्कार। इसे मानसिकता का दिशा परिवर्तन ही कह सकते हैं। रेलगाड़ी पटरी की दिशा बदल जाने पर कहीं से कहीं जा पहुँचती हैं।

महामानवों के सहगामी, महान लक्ष्य के लिए द्रुतगति से हुए अग्रगामी जन्म से ही वैसे न थे। उनने अपने चिन्तन, वातावरण एवं सहयोगियों के प्रभाव से प्रेरित होकर ऐसे परिवर्तन प्रस्तुत किये कि उन्हें कुछ से कुछ बन जाते देखा गया। सूर, तुलसी, अजामिल, अम्बपाली, अंगुलिमाल आदि जन्म से ही वैसे न थे, जैसे कि वे बाद में बन गये। गाँधी और बुद्ध तक आरंभ में अन्य बालकों या किशोरों की तरह ही पले और बढ़े। किन्तु उनकी समर्थता ने जब दिशा बदली तो उस स्थान तक जा पहुँचे जिसकी किसी ने कभी आशा न की थी और न अपेक्षा रखी थी। कुन्ती, मदालसा, सीता शकुन्तला ने अपने महान कर्तृत्व को जिस रूप में प्रस्तुत किया था वैसा कुछ आरंभ से ही दृष्टिगोचर नहीं होता था। विश्वामित्र, भर्तृहरि आदि राजपाट छोड़कर ऋषि स्तर अपनाने के लिए मुड़ गये थे। ऐसे परिवर्तन आश्चर्यजनक तो लगते हैं, पर न कठिन हैं और न असंभव। इसे संकल्प बन का लक्ष्य-परिवर्तन और दिशा-निर्धारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

यह विशेष समय ऐसा है जिसमें जब रात्रि का अंधकार, प्रातःकाल का अरुणोदय जैसे सर्वथा विपरीत परिवर्तन आते रहे हैं तो मूढ़मति जड़ नर-पशुओं को छोड़कर सभी के मन में ऐसी उमंगें उठनी चाहिए कि युग परिवर्तन की महाक्रान्ति में अपनी भी कुछ सराहनीय भूमिका वह निबाहे। यह बन पड़ना सर्वथा संभव है। करना केवल इतना है कि जीवन का लक्ष्य और महत्व समझा जा जाय और अपने चिन्तन तथा समय को उस दिशा में नियोजित किया जाय जिसके लिए कि महाकाल के संकेत निरन्तर उभर रहे हैं।

*समाप्त*


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