मेले ठेलों में लकड़ी के घोड़ों पर बैठ कर चक्कर खाने वाले यदि समझ बैठे कि मंजिल तय कर ली तो यह उनकी भूल है। क्योंकि चक्कर खाकर घोड़े जहाँ के तहाँ बने रहते हैं। बैठने वालों को चक्कर भी आते हैं और गिर पड़ते हैं। किन्तु रहते वही है, पहुँचते कहीं नहीं। इसी प्रकार बचपन से बुढ़ापे तक की मंजिल लगती तो ऐसी है जैसे कितनी दूर का कितने समय का फासला तय कर लिया गया है। किन्तु पहुँचते कहीं नहीं। उसी उधेड़बुन में जन्मते, पलते बड़े होकर मर जाते हैं। भ्रम यह बना रहता है कि हम बहुत आगे बढ़ गये है। अधिकांश यही भ्रम पाले जीते देखे जाते हैं।