विशेष लेख माला-३ - तपने और तपाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

April 1990

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शान्तिकुञ्ज के सूत्र संचालक के जीवन में घटित घटनाओं में से कुछ की जानकारी और प्रयत्नों की प्रतिक्रिया का तारतम्य समझ लेने के उपरान्त अनेकानेक आगन्तुकों ने अपनी जानकारी के आधार पर कई बातें पूछीं कि “अगले दिनों आप एकान्त वास की साधना करेंगे और कठोर तपश्चर्या में रित् रहने का संकल्प साधेंगे। ऐसा क्यों? जब धर्म धारण और सेवा साधना से ही ईश्वर भक्ति का प्रयोजन बहुत अंशों में पूरा हो जाता है तो एकान्त तपश्चर्या की अति-आपका जनसंपर्क, कार्यक्रमों का नियोजन, मार्गदर्शन एवं सेवा-सहयोग की अन्यान्य क्रिया-प्रक्रियाएँ जो इन दिनों चलती हैं, वे भी न बन पड़ेंगी? आपको कष्टसाध्य उपक्रम अपनाकर अनेक असुविधाओं से भरी जीवनचर्या बितानी पड़ेगी और संपर्क में आने वाले जो निरन्तर लाभ उठाते रहते हैं, उनसे उन्हें वंचित रहना पड़ेगा?”

प्रश्न समझदारी का था। वैसी ही जिज्ञासा अन्य अनेकों के मन में उठ रही थी। वियोग जन्य व्यथा उन्हें भी कष्ट दे रही थी। सो उपस्थितजनों में से प्रत्येक व्यक्ति इसका कारण और समाधान जानने के लिए उत्सुक था।

प्रश्न अधिक गंभीर और उलझन भरा था। सो उस संबंध में चर्चा के अवसर पर मात्र उन्हें ही सम्मिलित रखा गया जिन्हें अध्यात्म विधा को पृष्ठभूमि के साथ पहले से भी गहराई स्तर तक समझने का अवसर मिलता रहा है।

कहा गया है कि अब तक जो सेवा और साधना चलती रही है उसका प्रभाव स्थल जगत तक पदार्थ जगत तक मार्ग दर्शन और सीमित अनुदान दे सकने जितनी क्षमता अर्जित कर सकता है। पर अगले समय असाधारण रूप से विकट हैं उसके लिए इतनी सीमित क्षमता पर्याप्त न होगी। विशिष्ट स्तर की प्रचंडता उत्पन्न करने के लिए उच्चस्तरीय तपश्चर्या से कम में काम नहीं चलता। भगीरथ, दधीचि, ध्रुव, सप्तऋषि स्तर की उस तपश्चर्या की आवश्यकता पड़ती है जो प्रत्यक्ष शरीर में अधिक बढ़ी-चढ़ी क्षमता उत्पन्न करने तक सीमित न रहे, वरन् सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर की गहराई में प्रवेश करके उच्चस्तरीय प्राणचेतना का ऐसा भंडार संचय कर सके जो विषय परिस्थितियों से लोहा ले सके और-असाधारण दिव्य उत्पादन में अपनी सामर्थ्य का परिचय दे सके। सूक्ष्म जगत में संव्याप्त विकृतियों को भी बुहार सके।

इन दिनों विकृतियों और विपन्नताओं के घटाटोप छाये हुए हैं। आकाश प्रदूषण से भर गया है। जलवायु में विषाक्तता की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि इससे प्रकृति ने विद्रोह खड़ा कर दिया है। विविध प्रकार के प्रदूषण अपने अपने क्षेत्र में ऐसे संकट खड़े कर रहे हैं जो विदित व्यावहारिक उपाय उपचारों से नियंत्रण में नहीं आ रहे हैं। दुर्भिक्ष, युद्धोन्माद, राजनीतिक विग्रह, अपराधों की बाढ़, विचार विकृति का तूफानी प्रवाह मिल जुलकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहे हैं, जिससे अपनी धरती पर जीवधारियों का निर्वाह कठिन हो जाय, शारीरिक-मानसिक रोगों की अभिवृद्धि नियन्त्रण से बाहर हो जाय एवं शालीनता का व्यवहार और प्रचलन ढूँढ़ पाना दुर्लभ हो जाय।

प्रस्तुत अवांछनीयता को हटाने घटाने के लिए असाधारण प्रवाह विनिर्मित करना आवश्यक होगा। देवत्व को पराजित होने से बचाने के लिए उसी दिव्यशक्ति का अवतरण होना चाहिए, जो महाकाली की तरह दैत्यसत्ता से लोहा ले सके, उसे परास्त कर सके। मनुष्य को ऐसा-वरदान मिले इसके लिए प्रचण्ड तप के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। तप शक्ति से ही देवसत्ता का अवतरण संभव होता रह सकता हैं। ऋषि तपस्वियों द्वारा अनेक बार का परिचित उपचार इन दिनों भी अपनाये जाने की आवश्यकता पड़ गई हैं। सो उसे पूरा करने के लिए ऐसे दुस्साहसपूर्ण कदम उठाये जा रहे हैं।

नवयुग का अवतरण अपने समय की “सतयुग की वापसी” है। इसलिए जितना मानवी पुरुषार्थ आवश्यक है उससे अधिक दैवी सहयोग चाहिए।

सत्प्रयोजनों में आसुरी शक्तियाँ सदा आक्रमण करती और विघ्न उपस्थित करती हैं। विश्वामित्र के यज्ञ को असफल करने में निरत सुबाहु, मारीच, ताड़का आदि के उपद्रवों का सामना करने के लिये राम लक्ष्मण की सहायता आमंत्रित की गयी थी। कालनेमि, अहिरावण, और सुरसा हनुमान को असफल करने जा रहे थे। इन सबका सामना दिव्यशक्ति के माध्यम से ही संभव हो सका। अगले दिनों भी ऐसी ही प्रचण्ड सामर्थ्य उपार्जित की जानी है।

भस्मासुर, वृत्तासुर, महिषासुर, अघासुर आदि ने दैवी प्रयोजनों में कितने विघ्न उत्पन्न किये थे, यह सर्व विदित हैं। इस बार सतयुग की वापसी वाली प्रस्तुत दैवी योजना पर भी ऐसे ही आसुरी संकट आते और अपनी भरपूर सामर्थ्य लगाते रहेंगे। उनका सामना भी समान स्तर की दैवी शक्ति से ही किया जा सकता हैं।

परिजनों में से अनेकों अवगत हैं कि शान्तिकुञ्ज की युग निर्माण योजना को कितने दुरात्माओं ने समय-समय पर अपनी छोटी सामर्थ्य के अनुरूप चिकोटी काटने और डंक मारने में कमी नहीं रहने दी। वे आक्रमण तो आसानी से रद्द और निरस्त कर दिये गये, पर भारत के भीतर, पड़ोस में तथा विश्व के हर कोने में जो आतंकवादी-आक्रामकता छाई हुई हैं वह न जाने कब, क्या अड़ंगा खड़ा कर दें, इसे कोई नहीं जानता। ऐसी दशा में विश्व शान्ति की सुरक्षा करने के लिए ऐसी सतर्कता और शक्ति चाहिए जैसी कि वन्य पशुओं की भरमार वाले एक छोटे से खेल की सुरक्षा के लिए रखवाले के सारे परिवार को जुटा रहना पड़ता हैं। भले ही हम आक्रमणकारी न हों, पर आक्रान्ताओं से आत्मरक्षा करने के लिए कुछ तो करना ही होगा। यह एक बड़ी व्यापक और भयंकर समस्या हैं जिससे निपटने के लिए उस स्तर की तैयारी हर हालत में अपेक्षित हैं, जैसी कि शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार एकांतिक प्रचण्ड तपश्चर्या द्वारा समर्थ आत्मशक्ति का संग्रह कर रहे हैं।

संकटों की कोई कमी नहीं। उनसे कोई क्षेत्र बचा नहीं है। तोप बन्दूक के धमाके हुए बिना भी ऐसी परिस्थिति बनी रह सकती है जो आतंक आशंका, विपत्ति और अराजकता जैसी अवांछनीयता बनाये रहे। युद्ध आग्नेय ही नहीं होते। शीत युद्धों की अनेकों किस्में भी ऐसी हैं जो विप्लवी परिस्थितियाँ बनाये रह सकती हैं और अपनी परिधि में उन्मादी अशान्ति खड़ी किये रह सकती हैं। हर विपत्ति को पुलिस, शासन, कचहरी और जेल जैसे प्रताड़ना माध्यमों से ही काबू में नहीं किया जा सकता। शान्ति की परिस्थितियाँ बनाये रहने के लिए भी बड़ी क्षमता हाथ में रहनी चाहिए। प्रस्तुत तपश्चर्या को ऐसी ही शक्ति साधना समझा जा सकता है। अवांछनीयताओं, अनाचारों, आपदाओं, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों, अनीतियों और विडम्बनाओं से जूझने के लिये भी कारगर हथियार चाहिए। सीधे साधे तरीके से तो नशेबाजी, दहेज वाली बरबादी भरी शादियों तक से छुटकारा नहीं पाया जा सका तो और भी अनौचित्य की जो विषम विडम्बनाएँ घटाटोप की तरह गहरा रही हैं, उनको लेख-लेक्चर जैसे दुर्बल साधनों से कैसे निरस्त किया जा सकेगा?

बुद्ध और गाँधी ने मात्र उपदेश ही नहीं दिये थे, ऐसे संघर्ष भी खड़े किये थे जो व्यापक अनाचार को निरस्त कर सके। दयानंद, विवेकानंद, गुरु गोविन्द सिंह जैसों को भी इसी वर्ग में गिन सकते हैं। उनकी सफलता के अनय कारण भी जुड़ें हुए रहे होंगे, पर आत्मशक्ति की बहुलता का विद्यमान आधार भी उस संदर्भ में नकारा नहीं जा सकता। आज की अवांछनीयताओं को भी अपने निराकरण के लिए ऐसी ही आत्मशक्ति अपेक्षित है। समुद्र सोखने वाले अगस्त्य मुनि को, और विचारतंत्र को उलटने वाले परशुराम के कुल्हाड़े को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

अगले दिनों अनेक खाई खंदकों को पाटना आवश्यक होगा। साथ ही टीलों को भी झुकने के लिए विवश करना होगा, समतल भूमि तभी बन सकेगी और उसी पर कोई भव्य निर्माण संभव हो सकेगा। खेत उगाने और उद्यान लगाने के लिए भी तो समतल भूमि चाहिए। ऐसे प्रसंगों में प्रायः बुलडोजर प्रयुक्त करने पड़ते हैं। रेगिस्तानों को हरे भरे बनाने के लिए समतल करके नहरों का-जल स्रोतों का प्रबंध करना पड़ता हैं। ऐसी ही एक व्यवस्था आत्मशक्ति की उपलब्धि भी है। गंगा लाने का श्रेय भगीरथ को है और मन्दाकिनी को अवतरित करने में महातपस्विनी अनुसुइया का पुरुषार्थ काम आया था पाताल गंगा अर्जुन के धनुषबाण से प्रादुर्भूत हुई थी और उसी से भीष्म की प्यास बुझी थी।

तपते सूर्य की किरणों से समुद्रों से भाप के अम्बार उठते हैं। बादलों का जन्म उसी से होता हैं। वर्षा ऋतु ही हरीतिमा और खाद्य-सम्पदा का उत्पादन करती हैं। यह तप की ही गरिमा है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण हेतु प्रचुर साधन सामग्री की आवश्यकता पड़ेगी। उसका उत्पादन मात्र यंत्र उपकरणों से ही नहीं होगा। अपेक्षित तप शक्ति ही है, जो हिमालय पिघला सके तो हाहाकारी प्यास को अपने बलबूते शान्त कर सके। ऐसे ही अनेक कारण है जो उस तपश्चर्या के साथ जुड़े हुए हैं, जो शान्तिकुञ्ज के सूत्र-संचालक द्वारा इसी बसंत पर्व से कठोर अनुबंधों के साथ आरंभ की गयी है।


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