मीरा के पति का स्वर्गवास हो चुका था। वै वैधव्य को घर बैठे रोते कलपते नहीं बिताना चाहती थी। उनका विचार था कि ज्ञान, कर्म ओर भक्ति का जन-जन में प्रसार किया जाय। विशेषतया महिला समाज में।
ससुराल वाले सभी विरोधी थे। पितृ गृह से भी कोई समर्थन न था। सामंतवादी प्रतिबंधों के अनुसार उन्हें पर्दे की ओट ले कर धर में ही दिन काटने चाहिए। इन प्रतिबंधों को मीरा की आत्मा स्वीकार करने को तैयार न थी। वे धर्म प्रचार के लिए जीवन लगाना चाहती थी। प्रतिबंध बुरी तरह आ रहे थे, फिर भी उनकी आत्मा ने उस दबाव को स्वीकार न किया। प्रचार प्रव्रज्या के लिये वे घर छोड़ कर निकल पड़ने के लिए व्याकुल हो रही थी।
मीरा के समकालीन सन्त मानस रचयित तुलसीदास जी के पास मार्गदर्शन के लिए एक पत्र भेजा।
“जाके प्रिय न राम बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम स्नेही॥ तज्यों पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी॥ बलि गरु तत्यो, कंत ब्रज बनिता, भये सब मंगलकारी॥”
पद बड़ा था। पर उपरोक्त पंक्तियों से ही उन्हें समाधान मिल गया। वे निकल पड़ी और जन साधारण को अपने द्वारा उत्पन्न किये गये भाव सरोवर में स्नान करते हुए दिशा बोध का लाभ दिलाती रही। मीरा को इस प्रसंग में ससुराल वालों के त्रास, रूढ़िवादियों के व्यंग-उपहास सहने पड़े पर वे किसी की परवाह न करके आजीवन अपने उमंग भरे कदम उठाती ही रही। उन्होंने अनेक गीत रचे ओर उन्हें अभिनय के साथ जन साधारण को सुनाते हुए जीवन बिताया।