महाराणा प्रताप देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे। यों युद्ध तो आये दिन चलते रहते थे, पर वे अतिक्रमण या आत्म रक्षा के लिए होते थे। व्यापक सुरक्षा के लिये प्रताप ही जूझ रहें थे।
इतने बड़े मुगल साम्राज्य के विरुद्ध छोटी सेना के सहारे लड़ते लड़ते उन्हें असाधारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। हिम्मत तो न हारते पर युद्ध सामग्री तो चाहिए ही। सैनिकों का पेट भरना और तन ढकना आवश्यक था। यह सब जब समाप्त होने लगे तो युद्ध को जारी रखना एक विकट प्रश्न हो गया। कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था कि आगे क्या किया जा सकता है? राणा की चिन्ता का समाचार भामाशाह तक पहुँचा, वे नगर सेठ थे। पर परिवार भी बड़ा था। वे सब भी उन्हीं के व्यवसाय पर अपनी आजीविका चलाते थे।
भामाशाह ने सोचा परिवार के सभी छोटे सदस्यों को निजी पुरुषार्थ से सामान्य निर्वाह पर संतोष करने के लिये कहा जाये और जो कुछ जमा पूँजी है उस सब को राजा के चरणों में रख दिया जाय। उनने बही किया। करोड़ों की संपत्ति राणा को मिल गई। उनने नये उत्साह से नये साधनों के सहारे सेना का नया गठन किया और इस प्रकार युद्ध संचालन किया कि विपक्षियों के पैर उखड़ गये।
भामाशाह को अन्तर तो इतना ही पड़ा कि कुटुंबियों को जो ठाट बाट से रहने की सुविधा मिलती थी वह चली गई और परिश्रम के साथ मितव्ययता-पूर्वक गुजारा करना पड़ा।
पर लाभ यह हुआ कि उनके आदर्श का अनेकों ने अनुकरण किया, यश अक्षय हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के संचालन में सहयोगी हो कर सच्ची देश-भक्ति का परिचय देते बन पड़ा।