भगवान का पद (Kahani)

February 1989

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अब से कोई ढाई हजार वर्ष हजार पूर्व नैतिक बौद्धिक और सामाजिक भ्रष्टाचार बुरी तरह फैला हुआ था। वातावरण में कलुष–कल्मषों की भरमार थी। धर्म के नाम पर तरह तरह के अनाचार और पाखण्ड फैले हुये थे।

बुद्ध जब समझदार हुए तो उन्हें तत्कालीन प्रचलनों के प्रति भारी रोष आया वे औरों की तरह मन हीं मन कुड़कुड़ाते किन्तु चुप बैठे रहने की नीति स्वीकार न कर सकें वरन् वातावरण को बदलने के लिये एक कर्मवीर की तरह कर्मक्षेत्र में उतर पड़े।

उसकी पत्नी भी थी और पुत्र भी। पर उसी छोटे समुदाय के लिये प्रहरी बन कर घर बैठे रहना उन्हें स्वीकार न हुआ। वे समाज के लिए घर को छोड़ देने की नीति अपनाने पर आरुढ हो गये धर्मचक्र प्रवर्तन नाम उनके आविर्भाव का पड़ा।

उन्होंने साधना से जीवन को संयमी बनाया। ज्ञान का भण्डार भरा। आदर्श जीवन जिया। परिव्राजकों का बड़ा संगठन खड़ा किया। उनके प्रशिक्षण और निर्वाह के लिये अनेक मठ बिहार बनाये। देश के कौने कौने से निकटवर्ती अन्य देशों से भी सर्वतोन्मुखी सुधार कार्यक्रम की योजना बनाई।

प्रतिगामी तो उनके सब विरोधी रहे जो विचाराशील थे उनने पूरा पूरा सहयोग दिया। उनकी योजना को सफल बनाने वाले आधार स्वयं जुटते गये। युद्ध के अनेकों कार्यक्रम और प्रयास ऐसे थे जिनने उनके आदर्श जीवन को खरे सोने की तरह चमका दिया। उन्हें भगवान का पद मिला।



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