ऐतरेय ब्राह्मण में गायत्री शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है “गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री” अर्थात् -जो गय (प्राणों की) रक्षा करती है वह -गायत्री है। प्राहते हैं-चैतन्यता एवं सजीवता को। हमारे भीतर जो गति, क्रिया, विचार शक्ति विवेक एवं जीवन धारण करने वाला तत्व है, वह प्राण कहलाता है। इस प्राण के कारण हम जीवित हैं। जब प्राण निकल गया तो जीवन का अन्त ही समझिये, प्राण रहित देह से कुछ प्रयोजन नहीं सधता। उसे तो नष्ट कर देना ही हितकर समझा जाता है। इसलिए उसे गाड़ या जला देते हैं। प्राण होने के कारण जीव को प्राणी कहते हैं, विना प्राण का पदार्थ तो जड़ होता हैं। जब किसी प्राणी का प्राण निर्बल पड़ जाता है तो उसका वाह्य शरीर ठीक दिखाई देते हुए भी वह भीतर ही भीतर खोखला हो जाता है। कई व्यक्ति शरीर से मोटे दीखते हुए भी भीतर से बड़े निर्बल होते हैं। कोई कष्टसाध्य परिश्रम उनसे नहीं होता, वे थोड़ा-सा श्रम करने में बेतरह थक जाते हैं। सिर घूमने लगता है, हाथ-पाँव शिथिल हो जाते हैं, दम फूलने लगता है। उनका चेहरा, निस्तेज, प्रभाव रहित, आंखें गीली मटीली होती हैं और वाणी में जरा भी प्रभाव नहीं होता। कोई छोटी मोटी बीमारी हो जाने पर उसे ठीक होने में मुद्दत लग जाती है। इस प्रकार की भीतरी निर्बलतायें शरीर में दीख पड़ती हैं। उन में बलवीर्य की बहुत न्यूनता हो जाती हैं।
प्राणशक्ति के अभाव में मन का बुरा हाल हो जाता है भय या अनिष्ट की आशंकाएँ अकारण मन में उठती रहती हैं, ऐसा लगता रहता है कि कही-अमुक प्रकार की आपत्ति न आ जाय। कहीं अमुक संकट उपस्थित न हो जाय। कोई विपत्ति सचमुच ही ऊपर आ जाय तब तो इनका बुरा हाल हो जाता है। हर घड़ी दिल धड़कता हैं। रात को नींद नहीं आती ऐसा अनुभव होता है मानो कोई उसे बुरी तरह कुचल रहा है। भीरुता एवं निराशा उसे घेरे रहती है जिस काम को करने की सोचता है उसी में असफलता सूझती है। दुनिया के सब लोग स्वार्थी धूर्त,बेवकूफ एवं शत्रु दिखाई पड़ते हैं। किसी की सचाई सदाशयता एवं सद्भावना पर विश्वास नहीं होता। यह सब प्राण की कमी के लक्षण हैं। दुःस्वप्न घबरा जाना, चिन्तातुर रहना, धैर्य खो देना, निराशा-जनक भविष्य की कल्पनायें करते रहना, नास्तिक-सा बन जाना आदि बातें प्राणशक्ति की न्यूनता से होती है। निष्प्राण तो उसे कहते हैं जो पूरी तरह प्राण रहित हो जाता है, जड़ बन जाता है पर न्यूनप्राण उसे कहते हैं जो भीतरी और बाहरी दृष्टि से निर्बल हो गया है और उन निर्बलताओं का दुःख प्रतिक्षण भुगतता रहता है।
प्राणवान की स्थिति इससे भिन्न होती हैं। उसकी नस-नस में उत्साह होता हैं, मन में हर घड़ी नई तरंगें उठती हैं, हृदय में दृढ़ता साहस, धैर्य, आशा एवं स्फूर्ति की भावनाएँ गूँजती रहती हैं। वह प्रत्यक्षतः चाहे दुबला पतला दिखाई देता हो, कम पढ़ा लिखा हो, पिछड़ी हुई परिस्थितियों में रहता हो तो भी वह अपने प्राण बल के आधार पर ऐसे-ऐसे अवसर प्राप्त करता हैं, ऐसे-ऐसे कार्य कर दिखाता है जिसे देखकर अधिक साधन सामर्थ्य रखने वाले व्यक्तियों को भी आश्चर्य से दाँतों के तले उँगली दबानी पड़ती है। मनुष्य में जो शक्ति है वह हाड़, माँस, रक्त, रस की नहीं, प्राण की शक्ति है। मरने के बाद हाड़ माँस सब मौजूद रहते हैं, पर केवल प्राण निकल जाते हैं। इस प्राण के हटते ही शरीर के सारे कल पुर्जे निरर्थक सिद्ध होते हैं। जीवन का सार प्राण है, क्योंकि सभी प्रकार की भौतिक शक्तियाँ प्राण के अंतर्गत रहती हैं। जिसका प्राण जितना ही सबल है अधिक हैं, सुरक्षित है, वह उतना ही पुरुषार्थी एवं शक्तिशाली है और अपने प्रयत्न से वह सब बात प्राप्त करेगा, जिसके द्वारा आन्तरिक और वाह्य सुख शान्ति को प्राप्त किया जा सकता है।
इन सब तथ्यों पर विचार करने से प्रकट हो जाता है कि जीवन का सार प्राण है। यह प्राण स्वभावतः परमात्मा ने हमें प्रचुर मात्रा में दिया है। प्राण का अक्षय भंडार हमारे चारों ओर लहलहा रहा है। उस में से मनमानी मात्रा में हम अपने लिए ग्रहण कर सकते हैं। इतना होने पर भी जो लोग निर्बल प्राण देखे जोते हैं, वे अपनी इस दैवीशक्ति को सुरक्षित नहीं रखते हैं। उनकी प्राण शक्ति का बहुत सारा अंश निरर्थक खर्च हो जाता है। इस व्यय को रोकने से मनुष्य प्राणवान बन सकता हैं। व्यय किस तरह रुके, इसका समाधान ऐतरेय ब्राह्मण ने कर दिया है। श्रुति का कथन है कि गायत्री प्राणों की रक्षा करती है। ऐसे अन्य प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे प्रकट होता है कि गायत्री नाम इस लिए पड़ा है कि वह प्राणों की रक्षा करती है।
“प्राणागयाइति प्रोक्तात्रायते तानथपि वा।” -भारद्वाज
अर्थात्- गय प्राणों को कहते हैं और जो प्राणों की रक्षा करती है वह गायत्री है।
“तद्यत्प्राण त्रायते तस्ताद् गायत्री।” -वृहदारण्यक 5/24/4
अर्थात्- जिससे प्राणों की रक्षा होती है वह गायत्री है।
गयान् त्रायते गायत्री -शंकरभाष्य
अर्थात्-प्राणों की रक्षा करे वही गायत्री है।
गायस्त्रायते देवि! त्द्गायत्रीति गद्यसे।
गयःप्राण इति प्रोक्तस्तस्य त्राणादपीति वा। - वाशिष्ठ
अर्थात्- हे देवि। तुम उपासक की रक्षा करती हो इसलिए तुम्हारा नाम गायत्री पड़ा हैं। गय प्राणों को कहते हैं प्राणों की रक्षा करने से गायत्री नाम होता है।
गायत्री प्रोच्यते तस्माद् गायर्न्ता त्रायते यतः। -याज्ञवल्क्य
अर्थात्- उसे गायत्री इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह प्राणो की रक्षा करती है।
आद्य शंकराचार्य अपने भाष्य में लिखते हैं- “गीयते तत्वमनया गायत्रीति” अर्थात् -जिससे परम तत्व को जाना जाये, वह गायत्री है। जिस विवेक बुद्धि से, ऋतंभरा प्रज्ञा से तत्व को, वास्तविकता को जाना जा सकता है, वह गायत्री है।
तत्व और अतत्व का, सत्य और असत्य का, श्रेय और अश्रेय का जो बुद्धि निर्णय कर देती है, हमें क्या करना क्या न करना, इसका निर्णय दिव्य प्रकाश के आधार पर करने वाली ऋतम्भरा बुद्धि एक ऐसी अद्भुत शक्ति है जिसकी तुलना में विश्व की और कोई शक्ति मनुष्य के लिए हितकारी नहीं। तमसाच्छादित बुद्धि में चाहे कितना ही चातुर्य क्यों न हो। चाहे वह कितनी ही तीक्ष्ण, कितनी ही उपजाऊ कमाऊ क्यों न हो, उससे मनुष्य का सच्चा हित नहीं हो सकता और न उससे आत्मिक सुख शान्ति के दर्शन हो सकते हैं। भोग विलास के थोड़े से उपादान वह जरूर जमा कर सकती है, पर उन उपादानों के कारण चिन्ता, भय, आशंका,तृष्णा, मोह, मद आदि की मात्रा इतनी बढ़ जाती हैं कि उनका भार आत्मा के लिए असाधारण रूप से कष्टदायक सिद्ध होता है। जो संपत्ति नीति-अनीति का ध्यान न रख कर इसलिए कमाई जाये कि, इससे सुख की वृद्धि होगी, वह उलटा परिणाम उपस्थित करती हैं। थोड़ी-सी बाहरी तड़क-भड़क दिखाकर भीतर का सारा आनन्द नष्ट कर देती है। उस आँतरिक अशान्ति के कारण छोटे मोटे अनेकों शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक रोग उपज पड़ते हैं, और वे हर घड़ी उस आदमी को बेचैन बनाये रहते हैं, जो अपने को बुद्धिमान समझने का दम भरता है। तमसाच्छन्न बुद्धि जितनी अधिक तीक्ष्ण होगी उतना अधिक विपत्ति का कारण बनेगी, ऐसी बुद्धि तो जितनी मन्द हो उतना ही उत्तम है।
गायत्री उस बुद्धि का नाम है जो सतोगुणी दैवी-तत्वों से आच्छादित होती है, जिसकी प्रेरणा से मनुष्य का मस्तिष्क और शरीर ऐसे मार्ग पर होता हैं, जिस पर चलते हुए पग-पग पर कल्याण के दर्शन होते हैं, जिससे हर कदम पर आनन्द का संचार होता है। सात्विक विचार और कार्यों को अपनाने से मनुष्य की प्रत्येक शक्ति की रक्षा और वृद्धि होती है। उनकी प्रत्येक क्रिया उसे अधिक पुष्ट सशक्त एवं सुदृढ़ बनाती है और वह दिन दिन अधिक शक्ति सम्पन्न बनता है।
तमसाच्छादित बुद्धि द्वारा उत्पन्न हुए विचार और कार्य हमारी प्राण शक्ति को दिनों दिन घटाते हैं। भोग प्रधान कार्यों से शरीर दिनों दिन क्षीण होता है, स्वार्थ-प्रधान विचारों से मन दिनों-दिन अथाह पाप पंक में फँसता है, इस प्रकार जीवन की पैंदी में असंख्य छिद्र हो जाते हैं जिन में हो कर सारी उपार्जित शक्ति नीचे नष्ट हो जाती है। चलनी में चाहे कितना भी दूध दुहा जाय, सब नीचे गिर जायगा और चलनी खाली की खाली रह जायेगी, यही बात तमसाच्छन्न बुद्धि के लोगों के बारे में है कितना ही कीमती भोजन हो सब विषय -भोगों की चटोरपन की उष्णता में जल जायेगा। वे चाहे जितनी बुद्धि दौड़ाकर नई कमाई करें पर तृष्णा, स्वार्थपरता, भय, अहंकार-लोभ आदि कारणों से चित सदा दुखी ही रहेगा और उससे मानसिक शक्तियाँ नष्ट होती रहेंगी। इन दोनों कारणों से प्राण निर्बल होता रहेगा और वह न्यूनप्राण व्यक्ति संसार में नाना प्रकार के उद्वेगों में किसी प्रकार हीन जीवन ही व्यतीत करता रहेगा।
सतोगुणी, ऋतम्भरा विवेक बुद्धि हमारे शारीरिक आहार-विहारों को सात्विक रखती है। संयम, ब्रह्मचर्य,अस्वाद, श्रमशीलता, सादगीमय प्राकृतिक दिनचर्या होने से बल-वीर्य बढ़ता और शरीर सक्रिय रहता है और दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है। मन में अपरिग्रह परमार्थ, सेवा, त्याग, सहिष्णुता, तितीक्षा, दया, श्रद्धा, ईश्वरपरायणता आदि की भावना काम करती है। यह भावना जहाँ रहती हैं, वहाँ के परमाणु सदैव प्रफुल्ल और चैतन्य रहते हैं तथा उनका विकास होता है। इस प्रकार गायत्री सद्बुद्धि दे कर हमारी प्राण रक्षा का हेतु बनती हुई अपने नाम को सार्थक करती है।
अज्ञानान्धकार में भटकते हुए माया बन्धनों से बँध कर तड़पड़ाते हुए निम्न स्तरीय तत्वों के दल-दल में फँसे हुए प्राणी इस दुर्लभ जीवन को दुःख–दारिद्रय की यातनाओं में घुला-घुलाकर नष्ट करते हैं। उनके लिए गायत्री एक प्रकाश है। एक आशा पूर्ण सन्देश है। एक दिव्य प्रकाश है, जिससे कि उनके अंतर्गत समस्त भौतिक, आध्यात्मिक, साँसारिक और मानसिक आनन्दों का स्त्रोत खुला हुआ है। वह हमारे मुँदे हुए विवेक के तृतीय नेत्र को खोलती है,उसे ज्योति देकर इस योग्य बनाती है कि संसार को हम विवेक दृष्टि से देख सकें और जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यही गायत्री का तत्व दर्शन है।