सत्य, हमारे आचरण में उतरे

February 1989

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जिन्होंने सत्य को जीवन में उतारा है, आचरण में ढाला है उन्हीं के कार्य सफल हुए है। जिन्होंने जीवन भर अहिंसा व्रत का आचरण किया है। ऐसे लोग बैरभाव छोड़ देते है। जीवन में अस्तेय का व्रत जिन्होंने लिया है उन्हें धनाभाव कभी नहीं रहा जिस प्रकार ब्रह्मचारी का वीर्यवान बनना आवश्यक है उसी प्रकार सत्याचरण अपनाने वाले का ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी होना स्वाभाविक है।

कहा गया है कि सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है। शास्त्र वचन है कि सत्य ही जीतता है असत्य नहीं। प्रतिफल मिलने में देर हो सकती है पर ऐसा नहीं है कि उत्कृष्ट आचरण अपनाने वाले को हेय स्थिति में पड़ा रहना पड़े।

सत्य बोलना, सत्य आचरण करना ओर प्रत्येक कार्य को सत्य की कसौटी पर कसकर करना ये तीनों बातें भिन्न है। सत्य बोलना आसान है। ओर कितने ही लोग प्रतिदिन सत्य बोलते है किन्तु आचरण सत्य से भिन्न होने के कारण उनके जीवन में कोई न कोई फल मिलता है न कोई सत्य को कोई चमत्कार उनके जीवन में उन्हें दिखाई देता है, क्योंकि मन, वचन ओर कर्म में सदैव भिन्नता बनी रहने से योग नहीं बनता ओर कोई फल नहीं निकलता।

गाँधी जी ने जिस सत्य को अनुभूत किया ओर आचरण में उतारा, उसके बल बूते वे ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला सकें। अन्यथा गाँधी जी से पहले भी कितने ही लोग सत्य बोलते ओर महात्मा भी थे। सत्य दैवी सम्पदा ओर ईश्वर के समतुल्य है, जिन्हें यह विश्वास होता है, अटूट श्रद्धा होती है, ऐसा सत्य जीवन में फलदायी भी होता है।

व्यक्तित्व विकास के लिए मन, वाणी और कर्म की एकता साधनी चाहिए, किन्तु मन वाणी ओर कर्म में एषणा अहन्ता ओर लोभ आदि अनेकों ऐसे विग्रह उत्पन्न करते है जो व्यक्तित्व का विकास नहीं होने देते। सत्य को वाणी का तप कहा गया है। इसका तात्पर्य है उसमें मन की चोरी की कोई गुँजाइश नहीं होनी चाहिए। जिनके मन वाणी आरे कर्म की अभेदता सध चुकी होती है उन्हें सत्य का साक्षात्कार अवश्य होता है। सत्य का मूलाधार मनुष्य का निज का स्वभाव हैं चित्ता में मानव की अभिरुचि, शक्ति, आवेश आदि प्रवृत्तियों का समावेश होता है। स्वभाव अनुवाँशिक संस्कार, सामाजिक संयोग, शिक्षा, ओर संयम से बनता हे। इसी लिए गीता में कहा गया है क जैसा स्वभाव वैसा मनुष्य। स्वभाव जितना सरल, कुंठामुक्त, पूर्वाग्रहरहित, शान्त, तथा, सत्याचरण से युक्त होगा, मनुष्य उतना ही देवत्व से अभिपूरित होगा।

सत्य सामुदायिक नहीं व्यक्तिगत विषय है। सत्य सीखने का नहीं अनुशीलन ओर आचरण का विषय है। सत्यान्वेषी को सदैव मन की चालाकी ओर चतुराई पर ध्यान रखना चाहिए जब भी चूक होगी तब मन की ओर से सत्य आचरण में ऊपरी दिखावा अथवा किसी प्रकार की चालाकी हस्तक्षेप कर देगी। यदि चालाकी चली जा रही होगी तो निश्चय ही व्यक्तित्व विकास अथवा किसी प्रकार की प्रगति की आशा नहीं की जानी चाहिए। व्यक्ति को निरन्तर आत्म–पर्यवेक्षण करना ओर अपने पर संयम बरतना चाहिए। सत्य अनुशीलन का विषय है न कि बोलचाल, दिखावे ओर प्रदर्शन का।

सत्य को धर्म का प्रथम लक्षण माना गया है। पर उसका अर्थ मात्र सच बोलने तक ही सीमित नहीं किया जाना चाहिए। मोटेतौर पर सच बोलने के अर्थ में प्रयुक्त है। जो बात जैसी सुनी या समझी है, उसे उसी रूप में कह देना सच बोलता माना जाता है।सामान्य प्रसंगों में यह ठीक भी है। इस नीति को अपनाने वाले भरोसेमंद माने जाते है। उनका कथन सुनने के उपरान्त असमंजस अविश्वास नहीं रह जाता है। किन्तु यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि “सत्य बोलना” धर्म का एक छोटा सा अंग है। वास्तविक सत्य वाणी तक सीमित न रहकर जीवन क समस्त विधि व्यवस्थाओं में समाहित होता है। चिन्तन, चरित्र ओर व्यवहार उससे पुरी तरह प्रभावित हो रहा हो तो समझना चाहिए कि सत्य को पहचाना एवं अपनाया गया। वास्तविकता तो यह है कि हमारा समूचा आचरण समूचा जीवन सत्यमय होना चाहिए।


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