भविष्य का अनुमान सम्भव भी, अनिवार्य भी

February 1989

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काल के तीन खण्ड है-भूत, वर्तमान ओर भविष्य तीनों का अपना-अपना महत्व हैं तीनों को मिला कर एक समग्र व्यक्तित्व की संरचना होती है।

“ बचपन प्रायः अभिभावकों की सहायता से विनिर्मित होता है। उन दिनों बालक चेष्टाएँ तो स्वयं करता है, पर उनके मार्गदर्शन में योगदान परिजनों का ही प्रमुख रहता है। बालक पुरी तरह आत्मनिर्माण के अनुभव ओर सामर्थ्य के अभाव में स्वयं उठ नहीं पाता। इसलिए अभिभावकों ओर अध्यापकों की सहायता आवश्यक होती है। किशोरावस्था के साथ-साथ समझदारी बढ़ने से मनुष्य निजी अनुभव, रुझान ओर प्रयोग के बलबूते अपने कर्तव्य का परिचय देने लगता है। इसी को इतना ही दीख पड़ता है। मनुष्य का वर्तमान ही सर्व साधारण के परिचय में आता है। भूत विस्मृत होता रहता हे। उसको बहुत कुरेदने पर ही कुछ पता चलता है। भूतकाल की स्मृतियाँ घटनाओं ओर अनुभूतियों के आधार पर वर्तमान को विनिर्मित करने में सहायता करती है। इतनी भर ही उसकी उपयोगिता है। स्वभाव -निर्माण में ज्ञान भण्डार भरने में भी भूतकाल की उपयोगिता रहती है। “

वर्तमान अनुभूतियों ओर क्रियाओं का परिचय देता है। शरीरगत पीड़ा, सुविधा, रसास्वादन जैसा कुछ वर्तमान में ही चलता है। कौन क्या कर रहा है। इसकी जानकारी में वर्तमान का ही योगदान होता है। इन सबसे इतना भर बन पड़ता है कि किसकी योग्यता क्या है ओर क्या कर रहा है।

किन्तु इतना सब पर्याप्त नहीं। जीवन की विगत एवं प्रस्तुत जानकारी ही भूत ओर वर्तमान मिलकर दे पाते हे। भविष्य में जो बन पड़ना है।, सम्भव होना है, उसका ऊहापोह मस्तिष्क की भविष्य कल्पनाओं के साथ ही जुड़ता हे। कौन क्या योजना बना रहा, उसे क्या रूप देने जा रहा है-इस आधार पर ही भविष्य का स्वरूप विनिर्मित होता है। मनः स्थिति ही परिस्थिति की जन्मदाता ह। मनः स्थिति का थोड़ा अंश ही भूत के स्मरण ओर वर्तमान के निर्धारण में लगता हे। शेष अधिकाँश चिंतन तो भविष्य की कल्पनाओं में ही निरत रहता हे। कामनाएँ आरे कुछ नहीं, भविष्य की लालसा ही है। उन्हीं के अनुरूप यह निश्चित किया जाता है कि गले दिनों के लिए जो निर्धारण किया गया है उसका ताना बाना कैसे बुना जाय? सरंजाम कैसे जुटाया जाय? इसलिए तीनों काल खण्डों में भविष्य की अवधारणा ही अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसी के आधार पर अगले कार्यक्रमों का निर्धारण किया जाता है ओर तदनुरूप प्रतिफल उभर कर समाने आता है। “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” इसी उक्ति के पीछे इस उक्ति के पीछे एक ही तथ्य जुड़ा हुआ है। कि कौन क्या सोच रहा है आरे उस सोच को क्रियान्वित करने के लिए क्या तैयारियाँ कर रहा है? इसलिए जहाँ तक चिन्तन का सम्बंध है, वहाँ तक यही कहना पड़ेगा कि भावी निर्धारणों का स्वरूप ही चिन्तन क्षेत्र की सबसे बहुमूल्य सम्पदा है। यों प्रत्यक्षतः उसका कोई स्वरूप या महत्व दीख नहीं पड़ता। इतने पर भी शक्ति उसी में सबसे अधिक होती है, जो जैसा सोचता है, वह वैसा बन जाता है। इसी को कहते है - भविष्य-निर्धारण।

एक दिशाधारा यह है कि भविष्य को जैसा भी विनिर्मित बनना देखना चाहते है, उसके अनुरूप सोचने, योजना बनाने, क्रिया पद्धति बनाने का निर्धारण करे, तदनुरूप प्रयासों को गतिशील करे, वैसे ही साधन जुटाये ओर जिनके सहयोग की उस प्रयास में आवश्यकता पड़ेगी उनके साथ सम्बंध जोड़ने के लिए अग्रसर हों

दूसरी दिशाधारा इससे अधिक सरल और सुनिश्चित हैं कि भविष्य में जो होने की सम्भावना है, उसका सही अनुमान लगा लिया जाये ओर उस भवितव्यता के अनुरूप अपने प्रयासों को चिन्तन तथा व्यवहार में सम्मिलित किया जाय। इसी पद्धति को आम लोग अपनाते ओर विश्वासपूर्वक कदम उठाते है। भविष्य-ज्ञान का मोटा अनुभव सरलतापूर्वक दूरदर्शी समझदारी के सहारे अर्जित किया जा सकता है। यों सर्वथा सही, अनुकूल, एवं सुनिश्चित भविष्य की सही आरे पुरी जानकारियाँ प्राप्त कर लेना तो किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। अविज्ञात को कैसे बनाया जाय? जो घटित ही नहीं हुआ है, उसका घटित जैसा स्वरूप निखर कर किस प्रकार सामने आये? इसलिए भविष्य कथन पुरी तरह तो किसी के लिए भी संभव नहीं होता। फिर भी इतनी जानकारी तो चिन्तन में दूरदर्शिता सम्मिलित हो। जाने पर मिल ही जाती है, जिसके सहारे भवितव्यता के अनुरूप अपनी विचारणा ओर क्रिया को मोड़-मरोड़ कर अभीष्ट परिणामों के सन्निकट पहुँचा सके।

ऋतु परिवर्तन के साथ बदलती परिस्थितियों का अनुमान रहता है। लोग तदनुरूप ही अपनी पूर्व तैयारी करते है। वर्षा ऋतु आने से पूर्व छप्पर को दुरुस्त करने, छाता खरीदने, खेत जोतने, मेंड़ बनाने, बीज इकट्ठा करने जैसी तैयारियों में लग लग जाते है। वह भविष्य-ज्ञान के सहारे ही सम्भव होता है।

आँचीटैक्ट, इंजीनियर अपने-अपने विषय क विशालकाय ढाँचे कागजों पर ही अंकित कर लेते है। उनकी कल्पना शक्ति इतनी पैनी होती है कि जो करना है, उसे व्यावहारिकता से तालमेल बिठाते हुए प्रायः इस स्तर का बना लेते है, जिसमें भूल होने की गुंजाइश कम से कम रहे। यह भविष्य ज्ञान का ही एक प्रकार है।

क्रिया की प्रतियां ओर भविष्य की सम्भावना दोनों के बीच असाधारण संबंध है। खेत में गेहूं बोने से गेहूं ओर चना बोने चना पैदा होता है।वनस्पतियों बोने ओर उगाने के सम्बंध में किसान ओर माली अच्छा खासा ज्ञान रखते हे।

उनकी अनुभवपूर्ण क्रियाओं ओर योजनाओं को कदाचित ही चुनौती दा जा सकती है। मनुष्य के स्वभाव को देखते हुए उसके उत्थान-पतन का अनुमान लगा लिया जाता है। आदतों को देखते हुए उत्थान-पतन का जो अनुमान लगाया जाता है वह लगभग ठीक ही बैठता है। प्रवाह में किसी कारण असाधारण उलट पुलट बन पड़े तो ही पूर्व कल्पना में व्यतिरेक उत्पन्न होता है।

वैज्ञानिकों का मानस अपने आविष्कारों के संदर्भ में वागिकियों को ध्यान में रखते हुए सम्भावनाओं की कल्पनाएँ किया करता रहता है। उनकी संरचनाओं का एक बड़ा भाग मस्तिष्क क्षेत्र में ही सम्पन्न हो जाता है। प्रयोगशाला में परीक्षण करके ही वे इतना भर निष्कर्ष निकालते है कि जो सोचा गया था वह व्यवहार में कहाँ तक खरा ठहरा? साहित्यकार, कवि, कलाकार, चित्रकार अपनी संरचनाओं का अधिकाँश भाग कल्पना क्षेत्र में ही पुरा कर लेते है लेखनी, तूलिका, छैनी, हथौड़ी तो इसके उपरान्त चलती है। उपकरण तो योजना को मूर्त रूप देने में प्रत्यक्ष भूमिका भर निभाते है। इन सब बातों पर यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो सिद्ध होता है कि भविष्य का ढाँचा मनः क्षेत्र में खड़ा किया जाना सम्भव है।

भविष्य का अनुमान लगाने की हर किसी को उत्कंठा-उत्सुकता रहती है ताकि वह उपलब्धियों की सम्भावना को सार्थक करने में अधिक उत्साहपूर्वक अधिक कार्य कर सके। अशुभ भविष्य को टाल सकने के लिए जो बन पड़े उसके लिए रोकथाम के उपाय कर सके। अनेक प्रकार की उत्कंठाओं में वह भी एक सहज उत्सुकता है कि किस का भविष्य क्या होगा? अपना ही नहीं अपने मित्र शत्रुओं का भी भविष्य लोग जानना चाहते है। उत्सुकता की प्रबलता ने ही ज्योतिष विद्या को जन्म दिया। राशि, लग्न, ग्रहदशा,जन्म कुण्डली, कलित, मुहूर्त आदि का विशालकाय ताना-बाना इसी एक आकाँक्षा पर आधारित है कि

का भविष्य होना है? शुभ के शीघ्र फलित होने ओर अशुभ को टालने के लिए क्या किया जा सकता है। इसके उपाय उपचारों में पूजापरक अनेकानेक कर्मकाण्डों को जन्म दिया। देवी देवताओं का अनुग्रह माँगने ओर उनके रास का समाधान करने क लिए अनेकानेक उपाय सोचे अपनायेगा जो अभी भी अपने अपने क्षेत्रों में अपने अपने ढंग से क्रियान्वित होते देखे जाते हे। वरदान पाने आशीर्वाद माँगने की प्रक्रिया भी इसी के साथ जुड़ी हुई है कि भवितव्यता के साथ जुड़ी हुई प्रतिकूलता का निर्धारण ओर अनुकूलता का अधिक मात्रा में कम समय में प्रतिफलित होना किस प्रकार बन पड़े। प्रकारांतर से यह समूची प्रक्रिया भविष्य संदर्भ के साथ ही जुड़ी हुई समझी जानी चाहिए।

वैज्ञानिक क्षेत्र में इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए भू-गर्भ का वायुमण्डल का प्रकृति प्रवाह का स्वरूप ओर परिणाम जानने के लिए खगोल पर्यवेक्षण के अनेकानेक उपकरण ओर आधार विनिर्मित हुए है, हो रहे है। एक से एक नई डिजाइन के कम्प्यूटर इसी प्रयोजन के लिए बन रहै है कि भावी परिणामों का अनुमान वर्तमान परिस्थितियां के साथ आकलन करते हुए लगाया जा सकना सम्भव हो सके।

इसी प्रकार मरणोपरान्त स्वर्ग ओर मुक्ति मिलने की व्यक्ति की आकांक्षा भविष्य से ही सम्बंधित है। दीर्घ जीवन, कायाकल्प, पुनरुत्थान, भाग्योदय आदि की सुखद सम्भावनाओं की खिचड़ी भविष्य के गर्भ में ही पकती है। यहाँ तक कि अनिष्टों की आशंका भविष्य के साथ ही जुड़ी होती हे। दुर्दिनों के आ धमकने, आक्रमण होने विपत्ति टूटने, घाटा पड़ने जैसी डरावनी चिंताएं भी अगले दिनों की गड़बड़ी से ही सम्बंध रखती है। नरक-भविष्य की डरावनी विभीषिका ही हैं प्रलय जैसी जैसी संभावनाएं इसी प्रकार का उपक्रम हे। मस्तिष्क इसी प्रकार के शुभ अथवा अशुभ के ताने बाने बुनता रहता है। इस सब सम्मिलित एक नाम दिया जाय तो उसे भविष्य चिंतन कह सकते है।

यह सर्वथा निरर्थक भी नहीं। इन्हें चिन्तन के ज्वार-भाटे कह कर भी निश्चित नहीं हुआ जा सकता। क्योंकि इस प्रवाह के साथ असाधारण शक्ति जुड़ी हुई पायी जाती है। मनुष्य जैसा सोचना है उसी क अनुरूप बनने टलने लगाता है। कीट-पतंगों का उदाहरण प्रख्यात है। भृंग की आकृति ओर प्रकृति में तन्मय होकर कीट तद्रूप बन जाता है। टिड्डे गर्मी के दिनों के बस ओर पोलापन छाया देख कर अपना रंग भी पीना बना लेते है। वर्षा आने पर हरीतिमा बिखरी देखने पर टिड्डे अपना रंग बदलते ओर हरे हो जाते है। भयभीत रहने वाले लोग अपना स्वास्थ्य गवाँ बैठते है। इसके विपरीत जिन्हें अगले दिनों बड़ी सफलताएँ मिलने का विश्वास जमा होता है वे अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ सुन्दर आरे समर्थ बनते चले जाते है। यह भावी चिन्तन की भावी परिणति के प्रत्यक्ष प्रमाण है।

“मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” इस उक्ति के साथ इतना ओर जोड़ना चाहिए कि इस हेतु उसे उल्लास भरा चिन्तन ओर प्रचण्ड पुरुषार्थ-परक प्रयास भी सँजोये रहना चाहिए।


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