कौआ (Kahani)

February 1989

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कौआ जहाँ भी जाता तिरस्कार पाता। उसे कोई अपनी मुँडेर तक पर नहीं बैठने देता।

खिन्न होकर उसने उदास मन से कहीं अन्यत्र जाने की बात सोधी और प्रवास की तैयारी करने लगा।

पड़ोस में की टहनी पर घोंसला बना कर रहने वाली कोयल को इसका पता चला तो उसने कौए को रोका और कहा-बन्धु! जब तक आप वाणी की कर्कशता न छोड़ेंगे तब तक कहीं भी जाकर न सम्मान पा सकेंगे न संतोष।


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