लोलुपता (kahani)

February 1989

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दैत्य कुल के दो भाई सुन्द उपसुन्द दोनों महाबली थे। उनने शिवजी को प्रसन्न करके अमर होने का वरदान पाने के लिए कठोर तप किया।

शिवजी प्रसन्न हुए। उनका मनोरथ सुना और कहा जन्म मरण तो प्रकृति का नियम है उसे मिटा देना तो मेरे बस की बात नहीं है पर इतना किया जा सकता है कि तुम दोनों ही एक दूसरे को मार सकोगे। किसी तीसरे कारण से तुम्हारी मृत्यु न हो सकेगी।

दोनों आपस में घनिष्ट मित्र थे। वे क्यों एक दूसरे का अनर्थ करेंगे? इस वरदान से भी उनका काम चल गया और प्रसन्न हो गये।

बहुत दिन वे लोग प्रसन्नता पूर्वक रहे। विस्तृत भूमि पर अधिकार जमा लिया। सुख साधनों की कमी न रही। उनके आतंक से सभी भय खाते थे और प्रतिरोध करने के लिए कोई भी उद्धत न होता था।

भगवान ने उनके आतंक को देखा और उनसे धरती को उबारने का प्रयत्न किया। एक माया रूपी अप्सरा रची। नाम था उसका तिलोतमा। वह अलग अलग अवसर ढूंढ़ती और एकान्त में प्रणय निवेदन करती। दोनों ही उसे चाहते। पर पत्नी बनाने की नौबत आती।

तिलोतमा दोनों के कान में कहती में तो तुम्हें ही चाहती हूँ पर तुम्हारा मित्र मार्ग में बाधक है। वही रोकता और डराता है। इस प्रसंग को लेकर दोनों में विद्वेष उत्पन्न हो गया। दोनों ही अप्सरा को चाहते थे और मार्ग में आये हुए काँटे को निकालना चाहते थे।

द्वेष एक दिन युद्ध के रूप में परिणत हो गया। दोनों का एक दूसरे पर भयंकर आक्रमण हुआ। दोनों इतने आहत हुए कि मृत्यु के मुख में चले गये।

तिलोतमा भी यह कह कर अदृश्य हो गई कि लोलुपता मनुष्य का जितना नाश करती है उतना और नहीं कर सकता।


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