दुष्ट की मित्रता (Kahani)

February 1989

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दुष्ट की मित्रता प्रातः के सूर्य की तरह लम्बी होती है। फिर क्रमशः घटती जाती है। सज्जन को मित्रता ढलते सूर्य की तरह पहले छोटी होती है फिर लम्बी होती जाती है।

एक साधु ने गाँव के समीप रास्ते के किनारे झोपड़ी बना रखी थी जो उधर से निकलते उन्हें जल पिलाता। छाया में बिठाता और कुशल समाचार पूछता।

बातों बातों में ही चर्चा भी चलती कि आगे वाले गाँव के लोग कैसी प्रकृति के है। राहगीरों के इस प्रश्न के उतर में वह उलटा यह प्रश्न पूछता “ कि तुम्हारे गाँव के लोग कैसे है “? वे कहते कि “ तुम्हारे गाँव के लोग कैसे है”?

जो राहगीर कहते कि हमारे यहाँ भले लोग हैं उनको वह उत्तर देता “ सामने गाँव वाले गाँव के लोग बहुत भले है”। जो कहते ‘ उनके यहाँ बुरे लोग रहते है”। उनको वह कहता “ इस गाँव के लोग भी कम बुरे नहीं है”।

दो प्रकार की बातें करते सुनने वालों ने पूछा” आप दो तरह की बातें क्यों करते है।”? साधु ने कहा-” जो लोग अपने यहाँ बुराइयां पैदा करते है वे यहाँ भी वैसा ही करेंगे और जैसे खुद हैं वैसी ही प्रतिक्रिया यहाँ भी देखेंगे”।


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