कभी समझा जाता था कि हृदय मनुष्य का जीवन केन्द्र है। उसकी धड़कन ही जीवन तंत्र का सूत्र संचालन करती है। रक्त का भण्डार उसी पर आश्रित है आर साहस का शक्ति का प्रतीक भी वही है। पर अब शरीर विज्ञान के शोध कर्ताओं ने वह मान्यता बदल दी है। अब मस्तिष्क के मध्य केन्द्र को शक्ति का पुँज माना जाने लगा है। उस में भरा हुआ भूरा-लिवलिवा पदार्थ ग्रे मैटर चिन्तन के काम आता है। कल्पना, बुद्धि विचारणा आदि उसी के माध्यम से क्रियारत रहते है। सूझ-बूझ समझदारी और योजनाओं का निर्माण इसी क्षेत्र में होता है। यह अगला भाग है। पिछले भाग में अचेतन की स्वचालित गतिविधियों का स्वसंचालित तारतम्य बनता है। स्वास–प्रश्वास, आकुँचन-प्रकुँचन, निमेष-उन्मेष, निद्रा जागरण आदि का ढर्रा उसी की प्रेरणाओं से गतिशील रहता है। भीतरी अवयव उसी की प्रेरणा से काम करते हैं और विभिन्न प्रकार के पाचन स्राव इसी केन्द्र के नियंत्रण में अपनी गति विधियाँ चलाते हैं।
इसलिए प्राण शक्ति का प्रमुख केन्द्र अब मस्तिष्क को माना जाने लगा है। उसके सही रहने पर मनुष्य साधारण साधनों से भी स्वस्थ एवं परिपुष्ट बना रहता है। इसके विपरीत उसका संतुलन बिगड़ जाने पर अनेकों अवयव लड़खड़ा जाते हैं और अनेकों रोग उठ खड़े होते हैं। अब संसार भर के शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे है कि शरीर को निरोग रखने या रोग मुक्त करने के लिए मानसिक तंत्र को संभाला सुधारा जाना चाहिए। उसके बिना दवा दारु और शल्य क्रिया अपना वह उद्देश्य पूरा नहीं कर सकती जो उसे करनी चाहिए। इस लिए अब प्रधानता हृदय से हट कर मस्तिष्क पर आधारित हो गयी है। धड़कन बन्द से अब मृत्यु नहीं मानी जाती वरन् यह देखा जाता है कि मस्तिष्क की विद्युत तरंगों का उठना बन्द हुआ या नहीं।
व्यक्ति ब्रह्मांड का एक घटक है। उसी प्रकार धरती इस निखिल विश्व की छोटी इकाई। पृथ्वी के पास जो वैभव है वह उसका नहीं है वरन् अन्तर्ग्रही है। उसे उर्वरता तक सूर्य से मिलती है। इसके अतिरिक्त धरातल पर काम करने वाली अनेकानेक क्षमतायें अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों से उपलब्ध होती हैं। वे उतरी ध्रुव को चुम्बकत्व द्वारा खींची जाती है और जितनी मात्रा आवश्यक है उतनी काम में लेने के पश्चात् दक्षिणी ध्रुव मार्ग से निकाल बाहर की जाती है। इसी आधार पर पृथ्वी की विशिष्टता और वरिष्ठता बनी हुई है।
मस्तिष्क का मध्य केन्द्र रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम है। उस में से हर क्षण विद्युतीय चिनगारियाँ उछलती रहती हैं। यही है वह विद्युत उत्पादक केन्द्र जो समस्त शरीर को जीवनीशक्ति की प्राण विद्युत की पूर्ति करता है। जीवन और मृत्यु का दारोमदार इसी के द्वारा उत्पन्न किये स्फुल्लिंगों पर निर्भर है।
यह उद्गम उद्भव मात्र शरीर में काम आने वाली क्षमताओं का ही उत्पादन नहीं करता वरन् आध्यात्मिक स्तर के दिव्य अनुदान भी इसी केन्द्र द्वारा ब्रह्म चेतना के विपुल भंडार से खींचे जाते है और व्यक्ति दिव्य शक्तियों के साथ ताल–मेल बिठाने के लिए इसी केन्द्र के सहारे अग्रगामी होती है।
इस केन्द्र के रहस्योद्घाटन पौराणिक उपाख्यानों में अनेक प्रकार से हुये हैं। इसे कैलाश मानसरोवर बता कर उस पर उमा महेश की स्थापना की गई हैं। यही क्षीरसागर हैं। इसी में सहस्त्र मुखी शेष शैया पर लक्ष्मी नारायण शयन करते हैं। वस्तुतः यह दिव्यशक्तियों का निरूपण है। यहां स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर ज्ञान गंगा का अवतरण होता है। यहाँ विष्णु नाभि से निकला वह कमल पुष्प है, जिस पर ब्रह्म विराजते हैं, सृष्टि रचते हैं और उसमें वेद ज्ञान का सम्पुट लगाते हैं।
वृक्ष का कलेवर ऊपर होता है और उसकी जड़ नीचे होती है। वृक्ष की शोभा सम्पदा ऊपर दीखती है पर उसकी जड़ जमीन में दबी रहती है। समझना चाहिए कि समूची काया एक पेड़ है और उसकी जड़ तालु में है। तालु की बनावट भी नीची ऊँची ऊबड़ खाबड़ है। उसके पीछे जो माँस पिण्ड लटकता है- जिसे युव्युला भी कहते हैं, यह समूचा भाग ब्रह्मरंध्र में अवस्थित चुम्बकत्व का अधोभाग है। उस में भी दिव्य रस भरा रहता है। कोई चाहे तो उसका खेचरी मुद्रा द्वारा रस पान कर सकता है। इस में अन्य साधनाओं की भाँति स्थिर शरीर और शाँत चित्त रखने की प्रथम शर्त तो पालन करी ही पड़ती है। इसके अतिरिक्त जिह्वा को उलट कर जितना अधिक पीछे ले जाना संभव हो उसके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। जब जीभ कुछ पीछे जाने लगे और उसकी नोंक का निचला भाग जब तालु के भीतरी भाग को छूने लगे तब समझना चाहिए कि अब स्थिति ठीक बन गई।
तलु का अगला भाग तो भोजन में बोलने में काम आता रहता है उसी प्रकार जीभ की ऊपरी सतह, पिछला भाग तथा नोंक भी स्वाद बताने तथा मुँह को गीला रखने के लिए रस बहाने में लगी रहती है। अध्यात्म प्रयोजनों में जीभ का निचला भाग और तालु का पिछला भाग ही काम आता है प्रयत्न यह करना चाहिए कि जिह्वा त्रिकुटी करने लगे जैसे कि बच्चा माँ का दूध चूसता है।
यहाँ भृकुटी और त्रिकुटी का अन्तर हमें समझना चाहिए। दोनों भौहों के बीच का स्थान भृकुटी कहलाता है। तृतीय नेत्र का स्थान यही है। त्रिकुटी उसे कहते हैं, जिसमें एक रेखा दोनों कानों के बीच खींची जाय और दूसरी भृकुटी के पिछले भाग तक। तब वे दोनों जहाँ कहीं भी मिलेगी, वह स्थान त्रिकुटी कहलायेगा। साधारणतया उसे कानों के मध्यवर्ती भाग में अवस्थित समझना चाहिए। लगभग यहीं गले का माँस पिण्ड थन की तरह लटकता रहता है।
इसी त्रिकुटी स्थान में खेचरी मुद्रा का अभ्यास किया जाता है। यही ब्रह्मरंध्र का अधोभाग है। उसी को अमृत भाव-स्थली कहते हैं।
जिह्वा के निचले भाग को इसी तालु के पृष्ठ भाग से स्पर्श करना चाहिए और बहुत ही धीमी गति से इसे परस्पर रगड़ना चाहिए। यह रगड़ ऐसी हो जिससे दोनों में से किसी भी भाग पर दबाव न पड़ने पावे। रगड़ में कोई क्षति न हो वरन् ऐसा लगे मानो गुदगुदाया-सहलाया जा रहा है। छोटे बच्चे माँ का दूध पीते समय इसी स्तर की क्रिया करते है। इनके होंठ भी कोमल होते हैं और माता का चुँचुक भाग भी। तनिक सी सहलाने की क्रिया चलते ही दूध स्रवित होने लगता है। खेचरी मुद्रा में भी स्थिति होती है।
देव लोक में अमृत घट है। यह पौराणिक उपाख्यान है। समुद्र मंथन के उपरान्त थोड़ा-थोड़ा भाग देवताओं को पिलाने के उपरान्त उस घट को धन्तन्तरी की सुपुर्दगी में देव लोक में सुरक्षित रखा गया है। यह मस्तिष्क रूपी स्वर्ग का रूपक है। ध्यान धारणा यहीं की की जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का निवास इसी में है। क्षीरसागर, मानसरोवर अमृत घट की स्थापना यहीं है। ईश्वर दर्शन और आत्मदर्शन यहीं होता है। समाधि यहीं लगती है और तुरीयावस्था का आनंद इसी स्थान पर मिलता है।
जिह्वा द्वारा तालु को सहलाने-गुदगुदाने की क्रिया द्वारा मस्तिष्क में सुरक्षित अमृत का एक भाग ऊपर से नीचे उतरता है और वह शरीर के अन्यान्य भागों में चला जाता है। ऐसी अध्यात्मवादियों की मान्यता है।
खेचरी मुद्रा के अभ्यास से आशा,उत्साह, स्फूर्ति एवं उमंग का शरीर क्षेत्र में अनुभव होता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपना काम तो पूर्ववत करती है पर उनका दृष्टिकोण बदल जाता है क्रिया कलाप में उत्कृष्टता का समावेश होने लगता है और क्रियाशक्ति में उत्साह जनक अभिवर्धन हुआ दीख पड़ता है। शास्त्रों में खेचरी मुद्रा के और भी अनेक प्रभावों का वर्णन है। मस्तिष्क होती हैं और चेतना शरीर अपेक्षाकृत अधिक वेग से ऊपर उभरने लगता है।