आधुनिकता के अभिशाप-तनावजन्य विकार

February 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इन दिनों प्रायः हर स्तर का व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से घिरा रहता है जिससे उनका मनः संस्थान खिन्न उद्विग्न रहने लगे। तनाव का आक्रमण हर किसी पर छाया दीखता है। मन मस्तिष्क पर तनाव ग्रस्तता छाई रहे तो उसकी परिणति समूची काया के गतितंत्र को अस्त-व्यस्त कर देगी और विरासत में अनेकों रोग, पाप, अपराध जैसे प्रतिफलों को दे जायगी।

यों तो इन शताब्दियों में साधन सुविधाओं में भारी अभिवृद्धि हुई है। शिक्षा और सम्पन्नता में भी बढ़ोत्तरी हुई है। फिर क्या कारण है कि इतना सब कुछ होते भी हँसता-हँसता जीवन कम मनुष्य के हाथ से छूटता जा रहा है। शान्ति और सन्तोष, प्रसन्नता और निश्चिन्तता मात्र कहने-सुनने की बातें रह गई हैं। गंभीरता पूर्वक कारणों की तलाश करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि अब मनुष्य मानसिक दृष्टि से अधिक दुर्बल होता चला जा रहा है। आदर्शों का परित्याग करने, मानवी मर्यादाओं का उल्लंघन करने के उपरान्त उद्विग्नता, अनिश्चितता और एकाकीपन में बढ़ोत्तरी होना स्वाभाविक है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण, स्वभाव एवं जीवन-यापन का क्रम भी ऐसा बन गया है जो इस विपत्ति को बढ़ाने में बड़ा कारण बनाता है। उसकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया बढ़ती हुई उद्विग्नता-तनाव ग्रस्तता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से खोखला होने और बीमारियों के चंगुल में फँसने का इसे प्रमुख कारण माना जा सकता हैं।

मनःचिकित्सकों का मत है कि मानसिक असन्तुलन ही समस्त आदि व्याधियों का प्रमुख कारण है। इस क्षेत्र में की गई नवीनतम खोजों ने अस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि आवेश, चिन्ता, भय, ईर्ष्या, निराशा को मनः स्थिति ऐसी उत्तेजना उत्पन्न करती है जिसके कारण तनाव रहने लगे। क्रोधावेश और कामोत्तेजना जैसे विकार भी शरीर और मन पर दूषित एवं स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी डा0 किन्से ने इन दोनों आवेग आवेशों को एक ही श्रेणी में रखा हैं। अपने अनुसंधान निष्कर्ष में उन्होंने बताया है कि इससे शरीर और मन पर प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ता ही है चिन्तन क्षेत्र भी बुरी तरह लड़खड़ा जाता है। फलतः ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहण क्षमता को भारी आघात पहुँचता है और व्यक्ति असामान्य गतिविधियाँ अपनाने लगता है। इन आवेगों के प्रभाव से आँखों की पुतली फैल कर बड़ी हो जाती है। श्वास प्रश्वास और हृदय गति बढ़ जाती है। साथ ही रक्त का दबाव भी ऊँचा हो जाता है। आमाशय एवं आंतों की सक्रियता में कमी आ जाती है। रक्त में एड्रीनलीन हारमोन के बढ़ जाने तथा ऐच्छिक माँस पेशियों में तीव्रता आ जाने से व्यक्ति गुस्से में काँपने लगता है। कामोत्तेजना में भी यही सब कुछ होता है तनाव के निमित्त कारण यही मनो विकार है जिनसे शरीर और मन की प्राकृत अवस्था चरमरा जाती है और वह व्याधि ग्रस्त रहने लगता है। निद्रा से भी उसे विश्राम नहीं मिलता। अशान्त मन स्वप्न में भी बड़बड़ाता रहता है।

मूर्धन्य मनोविज्ञानी डा0 रोजर्स ने तनाव, दबाव और मनोविकारों के लिए दुराव, छिपाव और मनोग्रंथियों को जिम्मेदार ठहराया है। जब तक दोष-दुर्गुण, पाप अपराध जीवन में किसी विश्वसनीय व्यक्ति के समक्ष प्रकट नहीं किये जाते अथवा उनका प्रायश्चित नहीं हो जाता, तब तक चिंत में बेचैनी मन में अप्रसन्नता खिन्नता, व्यग्रता उदासी छायी रहती है। ऐसे ही लोगों को अनेकों शारीरिक मानसिक रोग सनक, वहम, उन्माद, अवसाद, आदि घेरे रहते हैं। यदि जीवन में ईमानदारी, नैतिकता जैसे सद्गुण सम्मिलित कर लिये जाते है तो उक्त विकारों से और तद्जन्य व्याधियों से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। मनुष्य का मन भी तभी हल्का और उमंग से भरा पूरा रह सकता है। ऐसे व्यक्तियों को हँसती हँसाती, खिलती खिलाती मस्ती भरी जिन्दगी जीते देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति अन्यों की अपेक्षा अधिक स्फूर्तिवान और क्रियाशील बने रहते हैं। इन्हें बुढ़ापा भी घेर ले तब भी उन में बालकों जैसा उत्साह उमंग और स्फूर्ति बनी रहती है।

मनोविकारों से ग्रसित मनुष्य अपने को गलाते घुलाते हैं तथा दूसरों के लिए भी सिर दर्द बने रहते हैं। चिन्ता, भय, निराशा, निरुत्साह जैसी दुष्प्रवृत्तियां हर समय बेचैन बनाए रहती हैं और यही आन्तरिक क्षमताएँ नष्ट भ्रष्ट कर मनुष्य को दयनीय बना देती हैं। कई बार ऐसे व्यक्तियों में क्रोध क्रूरता जैसे दोष अपना अड्डा बना लेते है तथा ईर्ष्या, कुढ़न जलन जैसी बुराइयाँ भी परिलक्षित होने लगती हैं।

ईर्ष्या और डाह, घृणा और द्वेष उत्तेजना और बढ़ावा देते हैं। इन्हीं के करण जीवन में मनोमालिन्य बढ़ते और विरोध पैदा होते हैं। मनुष्य टूटा सा, हारा सा, उदास खिन्न रहने लग जाता है। इनके के लिए सुख शान्ति सपने की सी मृगतृष्णा हो जाती है।

आवेश, आवेग, उत्तेजना और आक्रोश मनुष्य की चिन्तन प्रणाली को बुरी तरह गड़बड़ा देते है। प्रत्यक्ष न सही छिपा आक्रोश दुर्भावना, डाह, निन्दा, चुगली जैसी दुरभि सन्धियों के रूप में प्रकट होती है। ऐसे जाल जंजाल में उलझे व्यक्ति की मन स्थिति अधिकाधिक विपन्न होती चली जाती है और आन्तरिक अशान्ति की प्रतिक्रिया मनोविकारों के रूप में शारीरिक रोगों, कष्टों क्लेशों के रूप में फूट पड़ती है। मन की उद्विग्नता और अशान्ति मनुष्य की नैसर्गिक क्षमताओं को भी नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं इससे भावना और विचारणा का क्षेत्र भी ऊपर बंजर मरुस्थल जैसा बन जाता है। हृदय तो असह्य आघात झेलता ही है।

वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन के अनुसार समृद्ध प्रमुख देशों में आधी मृत्युएँ हृदय रोग से होने लगी है। इस अभिवृद्धि में साधनों की कमी या परिस्थितियों की प्रतिकूलता उतना बड़ा कारण नहीं है जितना कि मनुष्य का खिन्न-उद्विग्न रहना। तनाव खीज और उदासी आदमी को तोड़कर रख देती है और वह कभी भी हृदय रोग जैसे विपत्ति में फँस सकता है।

सैन फ्रांसिस्को के जाने माने हृदय रोग विशेषज्ञ डा0 फ्रीडमैन तथा रोज मैन ने सैकड़ों महत्वाकाँक्षी, स्पर्धी, असंयमी तथा इसके विपरीत नैतिक, संयमशील, व्रती, नियमित दिन चर्या और आहार व्यवहार वाले दोनों प्रकृति के लोगों का गहन अध्ययन किया है और पाया है कि महत्वाकाँक्षी असंयमी, अनैतिक और प्रतिस्पर्धी व्यक्ति अधिक तनाव ग्रस्त रहते हैं। फलतः हृदय रोग की पकड़ में भी वही सबसे अग्रणी पाये जाते है। अन्यान्य हृदय रोग विशेषज्ञों का भी यह मत है कि मनोभाव दबाने से तनाव पैदा होता है जिससे एड्रीलीन ग्रँथियों से हारमोन्स अधिक स्रावित होने लगता है, जिसके कारण रक्त धमनियां सिकुड़ जाती हैं और हृदय तक रक्त पहुँचने से पीड़ा होने लगती है। एक और तथ्य स्पष्ट होता है कि रोग स्त्रियो में कम पुरुषों को अधिक होता है।

सुप्रसिद्ध अमेरिकी हृदय रोग विशेषज्ञ प्रयोग, परीक्षण के उपरान्त हृदय रोग का स्थायी निदान और समाधान बताते हैं कि ऐसे हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों को सहृदयता बरतनी चाहिए और संयम निभाना चाहिए। उतावली और हड़बड़ाहट से असन्तुलन और व्यग्रता बढ़ेगी और अस्थिरता तथा मतिभ्रम से न कुछ करते बनेगा वरन् उल्टे तनाव, अपच अनिद्रा जैसे स्थायी रोग शरीर को दबोच लेंगे।

डा0 इरविन भी आन्तरिक शान्ति और आत्म विश्वास को तनाव दबाव और हृदय रोग की राम बाण औषधि मानते हैं इन गुणों को चिरस्थायी पूंजी बनाने के लिए जीवन में परोपकार और परमार्थ जैसे कृत्य करते रहने की वे सलाह देते हैं।

प्रख्यात मनोरोग चिकित्सक डा0 स्टेकल के अनुसार मनुष्य का स्वास्थ्य और संतुलन उसके आहार व्यवहार पर कम मानसिक स्तर पर अधिक निर्भर रहता है। रोगियों में से अधिकांश की व्यथा मन की गहराई में अपनी जड़ें जमाकर बैठ जाती है और दवा दारु की भर मार होने पर भी टलने का नाम नहीं लेती। इसके विपरीत मनोबल सम्पन्न विपरीत परिस्थितियों के दबाव को सहन करते हुए भी बलिष्ठ बने रहते हैं। रुग्णता रहने पर भी उस स्तर के लिए अपने उत्साह और साहस में तनिक भी कभी नहीं पड़ने देते। ऐसे लोग न केवल आशाजनक सफलताएँ प्राप्त करते है वरन् अपनी विशिष्टताओं के कारण अपने समुदाय का नेतृत्व भी करते हैं।

अतः व्यक्ति को चाहिए कि अपने आस-पास अनुकूलताएँ तलाश करे और प्रिय पात्र, प्रिय पदार्थ, प्रिय दृश्यों का अवलोकन कर चिन्तन और दृष्टि को विधेयात्मक बनाये रखें। सदैव मुस्कान बिखेरने और आत्मीयता बाँटने से बदले में प्यार, सम्मान मिलता है। छोटे छोटे बच्चों की उछल कूद भोलापन और तोतली वार्ता में सम्मिलित रहकर पार्क, उद्यानों, नदी-सरोवरों का भ्रमण करके भी मन को प्रसन्न रखा जा सकता है। अपनी आन्तरिक स्थिति और चारों ओर का वातावरण यदि अपने अनुकूल नहीं है तब तक सहज और सरल जिन्दगी नहीं जी जा सकती। आन्तरिक शान्ति से ही मन को प्रसन्न रखा जा सकता है और अनेकों मनो रोगों से बचा जा सकता है। सज्जनता शिष्टता एवं आदर्शवादिता का समुचित मात्रा में अवलम्बन ही वह प्रमुख आधार है जो मनुष्य की मानसिक उद्विग्नता तनाव ग्रस्तता एवं मनो शारीरिक रोगों का समाधान प्रस्तुत कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118