भक्ति-भावना इस प्रकार चरितार्थ करें!

February 1989

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भक्ति का तात्पर्य है उच्चस्तरीय प्यार। लौकिक ऽऽऽऽ में आदान प्रदान मुख्य होता है। जिसमें कोई ऽऽऽऽ प्रयोजन पूरा होता हो या होने की संभावना हो। ऽऽऽ में सहज प्यार नहीं उपजता जिसमें कुछ पाना हो, ऽऽऽऽ दोस्ती बढ़ाई जाती है। इस बढ़ावे में भेंट उपहारों का अनुनय विनय का सिलसिला चलता है। प्रशंसा के पुल बाँधना भी एक विशेष प्रकार की रिश्वत है। जिस पर शिष्टाचार, निर्वाह, अतिवाद की सीमा तक पहुँच पाता है। अपने को इस रूप में व्यक्ति प्रस्तुत करता है, मानो सब ओर से मन हटा कर एक लक्ष्य पर ही केन्द्रित किया है। इस आधार पर चमचे, चापलूस और चारण अपना काम चलाते हैं और आशा करते हैं कि लाभ दृष्टि से लोकाचार का निर्वाह चलते ही रहना चाहिए।

सम्पन्न और समर्थ लोगों से ऐसा शिष्टाचार बरता ऽऽऽऽ जाता है। उनकी प्रशंसा में परिचित लोग प्रतिस्पर्धा भी करते हैं और अपनी भक्ति को अधिक ऊँची सिद्ध करने के लिए पंखा झलना, तलवे सहलाने जैसे कृत्य भी करते रहते हैं। उनकी सुरक्षा सफाई एवं मनचाही को पूरा करने के लिए अपनी ओर से प्रयत्न करते है।

परमेश्वर के प्रति ऐसी प्रवंचनाओं का आश्रय लेना व्यर्थ है क्योंकि घट घटवासी होने के कारण क्रिया के पीछे छिपे उद्देश्य को वह भली−भांति जानता है। उसे ऽऽऽऽ समझने में देर नहीं लगती कि यह मनुहार किस प्रयोजन की पूर्ति के लिए की जा रही हैं। इतना अंतर तो हर कोई जानता है कि स्वार्थ साधना के लिए मनोकामना पूर्ति का लक्ष्य रखकर की गयी मनुहार खिलवाड़ ही होती है। उस पर समझदार ध्यान नहीं देते और किसी की अकारण आकस्मिक पूजा पाठ पर उतरने के साहस से अनभिज्ञ नहीं रहते।

ईश्वर नियम स्वरूप है। व्यापक चेतना के रूप में भी। उसके नियम अनुबन्धों को पालन करने वाले ही प्रगति करते हैं कहने लायक सफलताएँ प्राप्त करते हैं। संसार की तरह आत्मिक क्षेत्र में भी पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा है। यह पुरुषार्थ सामने वाले की चापलूसी करने के लिए अपनी पात्रता विकसित करने की दिशा में थोड़ी जानी चाहिए। वर्षा का जल बरसता तो सर्वत्र है पर एकत्रित वहीं होता है जहाँ जितना गहरा गड्ढा है। टीले की चोटी पर जल भण्डार का जमा होना कठिन हैं। इसके लिए बादलों से अनुरोध करने की अपेक्षा टीले के शिखर को खोदकर इतना गड्ढा बनाने का परिश्रम करना चाहिए जिससे कि किसी कदर जल राशि समा सके। तात्पर्य यह है कि अपने व्यक्तित्व को इतना गहरा करना चाहिए जिससे अपने चिन्तन चरित्र व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा का समावेश हो सके।

कई तथा कथित भक्तजनों की पूजा परिचर्या की कसौटी यह बनती है कि प्रथम भगवान के दर्शन हों। दर्शन होने पर यह पता चलेगा कि उनके ऊपर हमारी बातों का पूजा प्रतिष्ठा का प्रभाव हुआ या नहीं? जब एक बार दर्शन हो गये तो समझना चाहिए कि घनिष्टता पक्की हो गई। अब बार बार भी वैसा होता रह सकता है। तब किसी मौके पर अपनी आकांक्षा का प्रकटीकरण जोर दे कर इतने आग्रह पूर्वक भी किया जा सकता है कि उस पूर्ति के लिए उन्हें बाध्य किया जा सके। वे चाहते हैं कि इष्टदेव की जैसी भी प्रतिमा उनके मनः क्षेत्र में चढ़ी है वही साकार बन कर सामने आ खड़ी हुआ करे।

समझा जाना चाहिए कि व्यापक शक्तियों का कोई आकार नहीं होता। पवन सर्वव्यापी है, इसलिए उसके प्रभाव का परिचय पेड़ों के पते हिलते हुए देखकर किया जा सकता है, पर ऐसा अवसर कभी कदाचित ही किया जा सकता है, पर ऐसा अवसर कभी कदाचित ही आता है कि भगवान स्वरूप धारण करके पेड़ के पास पहुँचे और उसकी डालियाँ हिलायें। निराकार को साकार रूप में चक्षुओं से देख सकना कठिन है। अन्तरात्मा में उसका दर्शन श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा की अभिवृद्धि के रूप में ही जाना जा सकता है। आकार बनाकर प्रकट होने पर वे एकाँगी रह जाते है। जब एक स्थान पर रहने वाला कलेवर बनायें तो यह कठिनाई खड़ी होती है कि सारे संसार की व्यवस्था कौन चलायेगा। एक देशीय सत्ता तो अपने निकटवर्ती क्षेत्र को ही प्रभावित कर सकती है। एक ही दृश्य या कृत्य में संलग्न हो सकती है उसका सर्वव्यापी या सुविस्तृत होना कठिन है।

कर्मफल का सिद्धान्त अकाट्य है। बुराई का दुष्परिणाम और अच्छाई का सत्परिणाम मिलना ही चाहिए। यदि यह उपक्रम ठीक चल रहा हो तो किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि परमेश्वर न्याय और व्यवस्था के रूप में हर जगह विद्यमान नहीं है। उसके अस्तित्व का बोध चर्म चक्षुओं से नहीं, वरन् उसकी क्रिया पद्धति को देख कर किया जा सकता है।

ईश्वर हमारे अनुरोध के अनुसार अपनी कर्मफल व्यवस्था बनाता है, यह सोचना व्यर्थ है। अनेक भक्तजन यदि ऐसी ही खींच तान करते रहें तो उनकी इच्छा का मर्जी का विधान बनाते रहना पड़ेगा। तब यह संभव न हो सकेगा कि अपने निर्धारित नीति नियमों का परिपालन उसके लिए संभव हो सकें। नियमों का व्यतिक्रम चल पड़े तो फिर समझना चाहिए कि स्रष्टा को अपने नियम और मर्यादाओं को परित्याग करने के लिए कहा जा रहा है। ऐसी आशा अपेक्षा तो किसी नौकर अथवा चापलूस से ही की जा सकती है। हमें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि जो हम कर सकते हैं, उसे न करके सीधे भगवान को ही बार-बार पुकारे और उसी आधार पर अपनी इच्छित कष्ट कठिनाइयों की पूर्ति कर लिया करें।

भक्ति का तात्पर्य है- “प्यार”! सच्चे प्यार में देने की ही उत्कंठा होती है। लेने की आकांक्षा के लिए उत्कंठा मन में उठती ही नहीं। यदि भक्ति सच्ची है तो साधक की एकमात्र इच्छा यही रहती है कि किसी प्रकार भगवान के काम आऊँ। किस प्रकार उसके उद्यान में शोभायमान फूल की तरह खिलूँ। संस्थापक का गौरव बढ़ाऊं। भक्त की स्वयं की कोई कामना नहीं रही है। न ही वह जिस-तिस पूर्ति के लिए पूजा प्रार्थना ही करते है। प्रभु के विश्व उद्यान को अधिक सुन्दर और समुन्नत बनाने की भावना यदि खिल उठे और लोक मंगल के निमित्त प्रस्तुत करते हुए वह अपने व्यक्तित्व को इस कदर निखारे कि वह अपने आपको नियंता की तरह आत्मशोधन और परमार्थ परिपालन में निरन्तर निरत करता रहे। यदि ऐसा बन पड़े तो समझना चाहिए कि भक्ति का स्तर सही है। अस्तु उसकी पूर्ति में भी किसी प्रकार का संदेह नहीं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार दिखाने या ईश्वर को बुला लेने का मनोरथ भक्ति नहीं है। उस में तो भक्ति और स्रष्टा का स्तर भी गिरता है। हमें भक्त और भक्ति की गौरव गरिमा समझनी चाहिए और समझने के उपरान्त उसे सही रूप में ही कार्यान्वित करना चाहिए।


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