अपनों से अपनी बात - सत्रों में सम्मिलित होने का सुयोग चूकें नहीं!

February 1989

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भौतिक जीवन में अवगति के दो प्रमुख कारण है एक आलस्य दूसरा प्रसाद आलस्य की परिधि निष्क्रियता तक ही सीमित नहीं है वरन उसमें दुष्प्रवृत्तियों भी सम्मिलित होती है जो शरीराभ्यास में बुरी आदतों के रूप में जड़ जमा लेती है। शरीर की श्रमशक्ति द्वारा बन पड़ने वाले पराक्रम उसी कुटेव के कारण उभरने नहीं पाते और मनुष्य ज्यों - त्यों करके गया गुजरा जीवन बिताता है। आर्थिक अभावों में जिस दरिद्रता को कोसा जाता है, वह वस्तुतः क्रियाशीलता का व्यतिरेक ही है। निष्क्रियता और दुष्प्रवृत्तियाँ मिलकर ऐसा माहौल बनाती हैं जिनके कारण पिछड़े जकड़ लेता है और अभाव जन्य अनेकानेक संकट सामने ला खड़े करता है।

प्रमाद का अर्थ दीर्घसूत्रता तो है ही। आगा पीछा न सोच सकने की और बुरे लोगों से प्रभावित होकर चिन्तन को भ्रान्तियों और विकृतियों से लपेट लेने का तात्पर्य है मूढ़मति। यह प्रसाद की ही प्रतिक्रिया है। अवांछनियताएं कुरीतियाँ मूढ मान्यताएं उन्हीं के मानस पर अधिकार जमाये रहती है। जो चिन्तन में न्यून या क्षीण होती है।जो भटकाव से ग्रसित हो कर अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँच नहीं पाते कि अवांछनीय प्रचलन से हट कर अपने लिए किस मार्ग का चयन करें? संपर्क क्षेत्र के सम्मुख क्या उदाहरण प्रस्तुत करें? जिसके आधार पर स्वयं पार होने ओर दूसरों को पार करने का सुयोग बन सकें।

आवश्यक इस प्रकार की शिक्षा की है जो आलस्य और प्रमाद से छुटकारा दिला कर ऐसी प्रतिभा उभार सके जो बुद्धिमत्ता और क्रियाशीलता उभार सके।

आवश्यकता इस प्रकार की शिक्षा की है जो आलस्य और प्रसाद से छुटकारा दिला कर ऐसी प्रतिभा उभार सके जो बुद्धिमत्ता और क्रियाशीलता उभार सके। यह न बन पड़ने पर स्कूली पढ़ाई जो लम्बे समय तक पढ़ी जाती है। वह भी व्यक्तित्व परिष्कार के काम नहीं आती और आलस्य प्रसाद जन्य दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा दिलाने में समर्थ नहीं हो पाती।

जब सूर्य चन्द्र नहीं चमकते तो अल्प साधना और मूल्य वाला दीपक ही जलना चमकना आरम्भ कर देता है। शान्ति कुँज ने वही आदर्शवादी दुस्साहस किया है। उसकी प्रत्यक्ष प्रशिक्षण प्रक्रिया में ऐसे तत्वों का समावेश है जो आलस्य प्रमाद को उखाड़ने और उसके स्थान पर तत्परता-तन्मयता के ढाँचे में चिन्तन और स्वभाव को विनिर्मित कर सकें। बुद्धिमत्ता और कुशलता के अनुदानों से लाद सकें।

यहाँ एक महीने के और नो दिन के सत्रों की श्रृंखला इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए चलाई गई है। शांतिकुंज की वह प्रक्रिया सफल भी पूरी तरह हो रही है। उस प्रशिक्षण में व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण और समाज के तीनों तथ्य जुड़े हुए है। आशा की जानी चाहिए कि यह प्रशिक्षण वह कार्य पूरे कर सकेगा जिसे अपने समय की सबसे बड़ी माँग और आवश्यकता समझा जाता है। आज जिसके अभाव में प्रगति की अनेकानेक दिशाएं अवरुद्ध पड़ी है।

एक महीने के सत्र-युग शिल्पी सत्र

(1) विचार क्रान्ति के संदर्भ में आवश्यक संभाषण कला कौशल कथा प्रवचन विचार विनिमय शंका समाधान वार्ता में शिष्टाचार का निर्वाह शिक्षण।

(2) सुगम संगीत-लोकगायन ओर सरल अभ्यास में उतरने वाला वादन ढपली मजीरा घुंघरू करताल चिमटा बंगाली तानपूरा आदि वाद्य यंत्रों का अभ्यास। सहगान कीर्तन की कला। कहीं भी भीड़ जमा कर लेने और विचार वितरण का प्रयोजन पूरा करने का कौशल।

(3) दीपयज्ञ-समस्त शुभ कार्यों के शुभारम्भ एवं धार्मिक प्रयोजन के माध्यम से विचारशील जनता को बड़ी संख्या में एकत्रित कर लेना और भाव संवेदना को उभार कर युग के अनुरूप वातावरण बनाना।

(4) स्वास्थ्य संवर्धन-स्काउटिंग,आसन-प्राणायाम, फर्स्टएड होमनर्सिंग आहारविज्ञान शरीरविज्ञान जड़ी बूटी उत्पादन और उनका सरल उपचार।

(5) गृह उद्योग- (1) सूत और ऊन की कताई (2)बुनाई (3) सिलाई (4)घरेलू तेल कोल्हू (5) साबुन बनाना (6) घरेलू शाकवाटिका (7) बेकरी डबल रोटी बिस्कुट (8) पाप बनाना (9) मशीनों से स्टीकर्स बनाना (10) धूमरहित चूल्हा बनाना (11)सौर ऊर्जा से अनेक प्रयोजन के लिए ईंधन का काम लेना (12) मधुमक्खी पालन इत्यादि इसी प्रकार के बीस उद्योग हैं, जिनका साधारण अभ्यास इसी अवधि में हो जाता है प्रवीणता घर जा कर परिपक्व करनी होती हैं ये कुटीर उद्योग आलस्य एवं प्रमाद भगाने के अच्छे उपचार है। उनसे रचनात्मक शक्ति बढ़ती है और आर्थिक उपार्जन में भी सहायता मिलती है।

भाषण गायन के आधार पर सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का कार्य सरलता पूर्वक सम्भव हो सकता है। इस में निजी प्रतिभा का परिष्कार और लोक मंगल का पुण्य परमार्थ दोनों ही प्रयोजनों का समावेश है।

व्यक्ति निर्माण, परिवार में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन इस शिक्षण का एक अंग है। साथ ही समाज को युग के अनुरूप अभिनव संरचना के तत्व भी इसी विद्या में हृदयंगम कराए जाने का प्रावधान है। शिक्षार्थी के गुण कर्म स्वभाव को परिष्कृत करने का भी समुचित मार्ग दर्शन दिया जाता है। ये सत्र हर माह 1 से 29 तारीख तक अनवरत चलते रहते है।

नौ दिन वाले सत्र

जिनके पास समय की कमी है व्यस्तता अधिक रहती है। उनके लिए नौ दिन वाले सत्र भी काम चलाऊ आवश्यकता पूरी करते है। संगीत कुटीर उद्योग आदि का कम समय में समग्र अभ्यास तो नहीं बन पड़ता है, इसकी जानकारी 9 दिन में मिल जाती है। ये सत्र 9 से 9-11 एवं 21 से 29 तक की तारीखों में चलते है। ये सत्र जीवन जीने की कला का शिक्षण भी उस अवधि में देते है।

18 से 54 वर्ष की आयु वाले शिक्षित, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ अनुशासन प्रिय सभी लोग इन में सम्मिलित हो सकते है। छोटे बच्चों तथा नासमझों को साथ लाने पर रोक है वे शिक्षण के व्यस्त कार्यक्रम में ध्यान बंटाते और अड़चन उत्पन्न करते है।

उपरोक्त दोनों सत्रों का प्रत्यक्ष प्रयोजन व्यक्ति के गुण कर्म स्वभाव में अपने लिए तथा दूसरों के लिए प्रगतिशील संभावनाओं का अभिवर्धन करना है। पर इसके अतिरिक्त इस सत्र श्रृंखला के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण प्रयोजन भी समाहित है, जिसका लाभ अनायास ही मिलता है। वह है आत्मबल का अभिवर्धन। प्रतिभा परिष्कार युग धर्म की चुनौती स्वीकारने में आवश्यक भूमिका निभा सकने योग्य भाव संवेदनाओं का अभिवर्धन इसे युग साधना भी कहा जा सकता है। आश्रम का वातावरण तथा शिक्षण के साथ जुड़ा हुआ मार्ग दर्शन ऐसे है जो आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने के लिए शिक्षार्थियों को स्वतः प्रेरणा देते है।

आत्मोत्कर्ष की शिक्षा साहित्य शिक्षण की तरह हर किसी जगह संभव नहीं हो सकती उसके लिए उच्चस्तरीय वातावरण भी चाहिए शान्तिकुँज में उस स्तर का माहौल मौजूद है। गंगा का तट हिमालय की छाया सप्त ऋषियों की तपो भूमि साधना से ओत प्रोत वातावरण प्राणवान संरक्षण स्वाध्याय संस्कारों से जुड़ क्रिया कलाप। जिस प्रकार सेनेटोरियमों में रह कर वहाँ की जलवायु की विशिष्टता के कारण अपेक्षाकृत अधिक लाभ पाते देखे जाते है। वैसा ही लाभ यहाँ मिलता है आत्मबल जो अन्य सब बलों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इसी वातावरण का प्रतिफल हैं। ओजस तेजस और वर्चस इसकी विशेष उपलब्धियाँ है। भाव सम्वेदना का उपभोग किसी को भी देव मानव बनाने में समर्थ हो सकता है। यह परोक्ष उपलब्धियाँ उपरोक्त सत्रों के साथ साथ ही अपने ढंग से चलती रहती है।

दोनों सत्रों के शिक्षार्थी अध्यात्मिक उपासनाएं भी शिक्षण क्रम के साथ ही पूरी करते रहते हैं जप ध्यान प्राणायाम की प्रक्रिया साथ साथ चलती रहती है। प्रभावी वातावरण में सम्पन्न किये जाने के कारण वह फलित भी अधिक होती है। यह अतिरिक्त लाभ ऐसा है जो शिविर सत्रों के साथ दीख पड़ने वाले प्रयोजनों से सीधी प्रकार कम नहीं है।

यह युग संधि की बेला है। शान्तिकुँज में उसकी सूक्ष्म सत्ता को बलिष्ठ बनाने के लिए बारह वर्षीय महापुरश्चरण चल रहा है। इस में भाग लेना अपनी निजी प्रखरता को बढ़ाना तथा युगधर्म के निर्वाह हेतु भावभरी तैयारी करना हैं सूक्ष्म जगत में चल रहीं उथल पुथल को सही दिशा में अग्रसर करने के लिए इस सामूहिक साधना की अपनी विशिष्टता है। इस महत्व को समझने वाले इन दिनों शाँतिकुँज में रहकर साधना करने की उपयोगिता उससे कहीं अधिक समझते हैं जो शिविर सत्रों के माध्यम से योग्यता अभिवृद्धि के रूप में सभी छात्रों को मिलती हैं यही कारण है कि कितने ही साधकों ने निश्चय किया है कि वे बारह वर्ष के प्रस्तुत युग धर्म में हर वर्ष न्यूनतम एक लघु पुरश्चरण करने के लिए तो अगले वर्षों में नियमित रूप से आया करेंगे।

इस वर्ष प्रज्ञा मण्डलों और महिला मण्डलों का गठन सर्वत्र हुआ है। कहा गया है कि वे अनिवार्यता नौ दिन का या एक महीने का सत्र शान्ति कुँज आकर पूरा करें। यह कच्ची मिट्टी के बर्तनों को आवे में लगाकर पक्का करने के सदृश एक अनोखी आवश्यकता पूरी करता हैं आयुर्वेद में रस भस्में बनाने के लिए कई कई अग्नि पुट दिये जाते है। इन सत्रों में सम्मिलित होना कच्ची धातु को रसायन बनाने की समतुल्य समझा जा सकता है।

गरीब अमीर सभी समान रूप से लाभ उठा सकें इसे ध्यान में रखते हुए निवास भोजन प्रशिक्षण उपकरण आदि निःशुल्क उपलब्ध होते है। साथ ही यह आशा भी रखी जाती है कि जो समर्थ हैं इस प्रशिक्षण प्रक्रिया को भविष्य में भी चालू रखने के लिए सामर्थ्य भर अंशदान भोजन भण्डार में जमा करेंगे

स्थान सीमित और इच्छुक अधिक होने से स्वीकृति प्राप्त करके अपने पारी पर ही आने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। शिक्षार्थी आवेदन पत्र भेज कर समय से पूर्व स्वीकृति प्राप्त करें। आवेदन हाथ से ही लिख दें उन में इन बातों का उल्लेख होना चाहिए। (1) किस मास के किस सत्र में आना है? (2) पूरा नाम (3) पूरा पता (4) आयु (5) व्यवसाय (6) शिक्षा (7) जन्मतिथि, (8) शरीर और मन में स्वस्थ होने का आश्रम के अनुशासनों का पालन करने का आश्वासन। पत्र शान्तिकुँज हरिद्वार के पते पर दें। इस सुयोग को कोई भी नये-पुराने परिजन हाथ से न जाने दें।


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