प्रसन्नता और निश्चिंतता (Kahani)

February 1989

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गुरु शिष्य साथ साथ लम्बी तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। नित्य कर्म का विषय यह बताया था कि एक शोध जाता दूसरा कुएँ पर बैठा रहता। दूसरा जब लौट कर आता तो उसे जल देता स्नान कराता। इस प्रकार बारी बारी दोनों निबट लेते।

जब कभी शिष्य की बारी शौच जाने की आती तो पोटली तो उन्हें सौंप जाता पर यह आगाह करना न भूलता कि चोर उठाईगीरों से सावधान रहना चाहिए। समय बड़ा खराब है।

जब यह आगाही नित्य नियम बन गई तो गुरु के मन में खटका हुआ कि जरूर दाल में कुछ काला है। उनने एकान्त पाकर उस पोटली को धीरे से खोला। उसमें सोने का बड़ा सा टुकड़ा रखा था। वह उसने बड़े प्रयत्नपूर्वक जमा किया था और सदा साथ रखता था। चोर आदि का भय उसी के कारण लगा रहता था।

गुरु ने सारी परिस्थिति का अनुमान लगाया और उस सोने को गहरे कुएं में पटक दिया। जोर की आवाज हुई। तो कोई खतरा समझ कर शोध कृत्य को अधूरा छोड़ कर उस की ओर भागा। गुरु से पूछा -क्या हुआ? आवाज बहुत जोर की हुई थी। गुरु ने कहा-बेटा! तेरे साथ चलने वाला चोर तुम्हें बहुत हैरान करता था। रात को भी चैन की नींद नहीं लेने देता था। आज मैंने उसे पकड़ लिया और इतना गहरा पहुँचा दिया कि अब वापस लौटने की उम्मीद नहीं है।

इसके बाद शिष्य निश्चित भी रहने लगा और रात को पूरी नींद सोने भी लगा। अनावश्यक धन जहाँ भी रहता है वहाँ विपदा का कारण बनता है। डर भी उसी कारण सताता रहता है। यदि उसे संचय न करके किन्हीं उपयोगी कामों में लगाया जाय तो उससे सदा प्रसन्नता और निश्चिंतता बनी रह सकती है। शिष्य का निश्चित बन सकना इस उपाय से संभव हुआ।


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