वैराग्य और जीवन लक्ष्य

February 1986

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मन कल्पना तो कितनी ही कर सकता है। इच्छाओं की परिधि भी असीम रहती है। पर अभिरुचि या प्रीति एक सीमित केन्द्र पर ही रहती है उसे बिखेरा नहीं जा सकता। बहुमुखी भी नहीं किया जा सकता।

पत्नी का समर्पण पति के निमित्त होता है। वह उसके प्रति वफादारी का पूरा निर्वाह करती है। यों उसे शिष्टाचार और अनुशासन वश सान जिठानी आदि को भी मानना पड़ता है। इसी प्रकार पति समर्पित अपनी पत्नी के लिए ही रहता है। अन्याय रिश्ते अन्याय महिलाओं के साथ भी निभाता है। चकोर की चन्द्रमा के प्रति, चकवा की मेघ माला के प्रति अनन्य प्रीति होती है। शरीर निर्वाह के लिए वे घोंसला बनाने, दाना चुगने आदि का काम भी करते हैं।

इसी प्रकार मन की तन्मयता एकनिष्ठ होती है। दूसरे केन्द्र के प्रति सामान्य कर्तव्य निर्वाह भर की बात पूरी करनी पड़ती है। आकर्षण के केन्द्र दो ही हैं। एक शरीर, दूसरा आत्मा। दोनों में एक को प्रथम, दूसरे को गौण मानकर चलना होता है। आमतौर से मनुष्य अपने को शरीर भर मानता है। इसलिए शरीर की जिनमें आसक्ति होती है वे सब भी प्रिय लगने लगते हैं। पेट की भूख सर्वप्रथम है। उसके लिए आजीविका उपार्जन की आवश्यकता पड़ती है। निर्वाह के प्रति जो व्यवसाय अपनाये जाते हैं। उनके प्रति दायित्व अनुभव किया जाना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त पालन की जिम्मेदारी का कुछ भाग अपने ऊपर होता है। यह सब कुछ आसानी से हो जाता है। न यह बोझिल है न कष्टकर।

दूसरा पक्ष आत्मा का है जो परमात्मा के प्रति जुड़ती है। सामान्य जीव जन्तुओं की तुलना में मनुष्य शरीर और मन का विशेष महत्ता है। अन्य किसी प्राणी को ऐसे अनुदान नहीं मिले। यह उद्देश्य विशेष के लिए दिये गये हैं। अनायास ही नहीं। अनायास ही अकारण ही ऐसा विशिष्ट जीवन मनुष्य को दिया गया होता तो उसे एक वर्ग के प्रति पक्षपात और अन्य सभी के प्रति अन्याय कहा जाता। समदर्शी को तो अपनी सभी संतानों के प्रति एक जैसी व्यवस्थाएँ करनी चाहिए। अपने वैभव का वितरण समान रूप से करना चाहिए। किन्तु मनुष्य जीवन अन्य सभी जीवधारियों की तुलना में विशिष्ट है। इसका कोई कारण- कोई उद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा ईश्वर के न्यायकारी होने पर उँगली उठती है।

जिस प्रकार शरीर आत्मा के प्रति उत्तरदायी है। उनकी आवश्यकताओं इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिन रात लगा रहता है। उसी प्रकार होना यह चाहिए कि आत्मा परमात्मा का जेष्ठ पुनः होने के कारण उसकी इच्छाओं को समझे, संकेतों का परिपालन करे, अनुशासन को निबाहे।

यह सब क्या है। इसे एक शब्द में लोक मंगल के लिए अटूट श्रम किया जाना कह सकते हैं। विश्व वाटिका भगवान की है। यह निर्माण उसी का है पर उसे सींचने सँजोने के लिए माली तो अलग से चाहिए। बाग का मालिक ही वह सब काम नहीं कर सकता। उसके सामने दूसरे बड़े काम होते हैं। इसलिए माली की नियुक्ति करके उसे खाद पानी सिंचाई आदि की सुविधा देकर यह जिम्मेदारी सौंप देता है कि उसे सुन्दर समुन्नत व फूला फला रखे। मनुष्य को माली की तरह लोक-मंगल का काम सौंपा गया है। इसे करते हुए वह निजी निर्वाह की- परिवार पालना की व्यवस्था भी अति सरलतापूर्वक जुटा सकता है। अद्भुत संरचना वाले शरीर को अपने प्रत्यक्ष दायित्वों को निभाना कुछ भी कठिन नहीं है। इसके अतिरिक्त भी वह उन कार्यों को करता रह सकता है जिसके लिए वह अनुपम अवसर उसे मिला है।

देखा गया है कि मनुष्य सारा जीवन शरीर निर्वाह के लिए नहीं इन्द्रिय लिप्सा, लाभ, लालसा एवं अहन्ता की पूर्ति हेतु ठाट-बाट बनाने में समाप्त कर देता है। मूल उद्देश्य का उसे ध्यान ही नहीं रहता। चिन्ह पूजा के लिए यत्किंचित् पूजा पाठ बन पड़ा तो कर देता है। वस्तुतः ईश्वर सर्व समर्थ है। उसे किसी की ओर से मनुहार तथा उपहार की न कोई इच्छा है न आवश्यकता। वह तो उस कार्य की पूर्ति देखना चाहता है जिसके लिए उसे संसार में भेजा गया है।

लोक मंगल के परमार्थ को अपनाने पर अपना स्वार्थ सहज ही सध जाता है। मनुष्य खाली पेट उठता भले ही हो पर सोता तब है, जब उसे भर लेता है। लोकहित के लिए उसके पास ढेरों समय श्रम और मनोयोग ही बच जाता है। इतना वह करता रहे तो सहज ही साथ में सद्भावना और उन सद्गुणों का विकास होता रहता है। जो स्वर्ग मुक्ति एवं आत्मकल्याण के लिए आवश्यक हैं। सेवा साधना के साथ सद्भावना और समयदान- अंशदान का परमार्थ तो सहज ही जुड़ जाता है। इसमें तीन गुना लाभ होता है। आत्म परिष्कार का संतोष-सेवा से कृतज्ञ हुए लोगों का भाव भरा सम्मान एवं ईश्वर के सौंपे दायित्व को पूरा करने से उपलब्ध होने वाला देवी अनुग्रह इस प्रकार लक्ष्य को प्रमुखता देने वाला लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से नफे में रहता है।

इतना जानते हुए भी मनुष्य जीवन को अकारण क्यों बिताता है? अनर्थों का बोझ सिर पर क्यों लादता है? इसका एक ही कारण है- मन के रागों में आसक्ति। राग तीन ही हैं जिनका उल्लेख वासना, तृष्णा, अहन्ता के रूप में किया गया है। इन्हीं को लोभ मोह और दर्प भी कहते हैं। इनका आकर्षण जिनके ऊपर नशेबाजी के व्यसन जैसा चढ़ दौड़ता है उन्हें उस उन्माद में न आत्मा का ध्यान रहता है न परमात्मा का- न लक्ष्य का न कर्तव्य का।

इन रागों को ही भव-बन्धन कहा गया है। लोक प्रचलन का अनुगमन करने पर तो वे बड़े जटिल प्रतीत होते हैं, पर यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेक से काम लिया जाये तो सद्ज्ञान का सूर्य उदय होने पर यह कुहासा छंटने में देर नहीं लगती।

आत्मिक प्रगति के मार्ग में वैराग्य की चर्चा बहुत होती रहती है। विवेकहीन लोग उसका अर्थ शरीर निर्वाह और परिवार पालन के उत्तरदायित्वों का परित्याग करना मान बैठते हैं। भिक्षा पर निर्वाह करते हैं। आलस्य में समय गँवाते और आश्रितों के प्रति विश्वासघात करते हैं। इस स्थिति को वैराग्य जैसे सम्मानास्पद नाम से किस प्रकार सम्बोधित किया जाये? खाली समय और खाली दिमाग तो शैतान की दुकान होता है। उस स्थिति में मुफ्त का सामान और पैसा बटोरने की सूझ, सूझती है और ऐसे प्रपंच रचे जाने लगते हैं जिनमें लोगों के समय, धन और विवेक की बर्बादी होने लगे। वैराग्य तो लिप्साओं से होना चाहिए न कि कर्त्तव्य से? बैरागी को लोक सेवी होना चाहिए। न कि भारभूत जीवनचर्या अपनाकर प्रपंच गढ़ना और जनसाधारण को भ्रमित करना। 


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