हमारी अद्भुत काय संरचना

February 1986

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कोई मूर्ति- मूर्तिकार नहीं बन सकती। कोई चित्र- चित्रकार नहीं बन सकता। कोई पुत्र- पिता का स्थानापन्न नहीं कहलाता। पर मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह यदि सीधे मार्ग पर चले तो ईश्वर भक्त ही नहीं वह साक्षात् ईश्वर भी बन सकता है। अपने दर्पण में समस्त सृष्टि का दर्शन कर सकता है और अपनी आत्मा में सबको प्रतिष्ठित करके उसके साथ क्रीड़ा-कल्लोल कर सकता है। मनुष्य की सम्भावनाएँ असीम हैं। जितना असीम परमात्मा है उतना ही महान उसका पुत्र- आत्मा भी है।

हमारे शरीर की व्यवस्था ऐसी ही है जिसके अमूल्य रत्न संग्रहित तो हैं पर एक अच्छे सहयोग के लिये, त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधायें बढ़ाने के लिये हैं। 1. हर हड्डी के पोले भाग में, 2. प्लीहा (स्प्लीन) 3. यकृत (लिवर) में रक्त की मात्रा संग्रहित रहती है। कभी चोट या घाव हो जाने पर यह संस्थान अविलम्ब रक्त पहुँचा कर उस स्थान को ठीक रखने और कमजोर न होने देने का प्रयत्न करते हैं। सामूहिकता की इसी भावना पर समाज की सुख-शान्ति अवलम्बित है।

रक्त ही नहीं शरीर में चर्बी का भी स्टोर रहता है। चमड़ी और माँस के बीच चर्बी सुरक्षित रहती है। कई दिन तक भोजन न मिले तो भी सब अंग काम करते रहते हैं। चमड़ी पीली पड़ जाती है तो भी किसी की मृत्यु नहीं होने दी जाती।

‘नेमोनेक्टामी’ के अनुसार यदि एक फेफड़ा काटकर निकाल देना पड़े तो दूसरा फेफड़ा साधारण स्थिति के सारे काम संभाल लेता है। यह सहयोग और सहानुभूति क्रियायें बताती हैं कि हम जिस समाज में रहते हैं उसमें आये दिन दुर्घटनायें घटती हैं उनसे कुछ लोग पीड़ित होते हैं। उनके प्रति भी हमारे कर्त्तव्य वैसे ही हैं जैसे स्वयं अपने प्रति। मनुष्य इतना कठोर हृदय हो सकता है कि अपने भाई, अपने पड़ौसी को कष्ट और पीड़ित अवस्था में देखकर भी चुप रह जाये पर हमारे शरीर के सदस्य ऐसे हृदयहीन नहीं। परस्पर सहयोग और दूसरे के दुःख में हाथ बटाना ही उनका जीवन है। उदाहरणार्थ यदि एक गुर्दा खराब हो जाये जैसा कि पथरी की बीमारी के समय होता है, तो अच्छा गुर्दा दूसरे पीड़ित गुर्दे का सारा कार्यभार स्वयं संभाल लेता है। जब तक वह ठीक न हो जाये स्वयं कष्ट सहेगा किन्तु शरीर की साधारण क्रिया में कोई अन्तर न आने देगा।

ऑपरेशनों के दरम्यान कितने ही लोगों का एक फेफड़ा, एक गुर्दा, जिगर का एक भाग, आँतों का बड़ा भाग आदि काट कर अलग कर दिये जाते हैं, पर जो शेष बचा रहता है उतने से ही शरीर अपना काम चलाता रहता है और जीवित रहता है।

प्रो. एलेक्जोदर स्मिर्नोव ने कहा है कि- यह कोई अलौकिक बात नहीं है, वरन् सामान्य विज्ञान सम्मत सिद्धान्तों का ही एक दिलचस्प प्रतिपादन है। एक अंग की चेतना दूसरे अंगों में भी काम कर सकती है।

त्वचा का महत्व यदि समझा जाये तो वह अति महत्वपूर्ण माध्यम सिद्ध होगी। अन्य समस्त इन्द्रियों का तो वह कार्य कर सकने में समर्थ है ही, साथ ही अन्तःचेतना को विकसित एवं परिवर्तित करने में उसका और भी ऊँचा उपयोग है। साधना विज्ञान में त्वचा साधना को ‘स्पर्शा स्पर्श’ कहते हैं, इसका क्षेत्र अति व्यापक, विस्तृत और प्रभावोत्पादक माना गया है।

सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः डेढ़ मिनट में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े के बीच की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं, जबकि मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर हृदय भी 5 मिनट जी लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही बुझ जाता है। हृदय फेल होने की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना ही होता है। औसत दर्जे के मनुष्य शरीर में पाँच से छह लीटर तक खून रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरन्तर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्तिकालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घण्टे में हृदय को 13 हजार लीटर खून का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका समेटा जाता है जिसे यदि एक साथ इकट्ठा कर लिया जाये तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा। इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी कि दस टन भार जमीन से 50 हजार फुट तक उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी। शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह के कारण उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है। त्वचा में प्रवाहित रक्त ही इस ऊष्मा को यथावत् बनाये रखता है।

गुर्दों को देखें। वे और भी विलक्षण हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें दस लाख से भी अधिक नलिकाएं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 250 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायगी। एक घण्टे में गुर्दे रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो, अम्ल,हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू कर दे तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इन अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।

प्रिज़्म या थ्रीडायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं। पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आँखें करती हैं।सुरक्षा सफाई का प्रबन्ध जैसा आँखों में है वैसा किसी कैमरे में नहीं। पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिन्ट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है, किन्तु आंखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।

यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आँख, कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आँख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा क्या कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कैमरों में नाभ्यान्तर- फोकल लेन्स को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं-कहीं ही बने हैं। पर वे हैं एक सीमित परिधि के। फोटो लेने के लिए अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी आँखों को बिना आगे-पीछे हटाये- मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडायमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं, पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आँखें या हमारा विजुअल कार्टेक्स करता है। फोटो खींचने का ‘प्रबन्ध’ जैसा आँखों में है। वैसा किसी कैमरे में नहीं होता। कैमरे पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिन्ट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है, किन्तु आँखें सीधा एक ही बार में सही फोटो उतार लेती हैं।

रोगों के कीटाणु हवा, पानी, आहार, छूत या चोट आदि के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। हमारा छोटा-सा शरीर वस्तुतः बहुत बड़ा है। एक पूरी पृथ्वी के बराबर जीवधारी उसमें रहते हैं। इसलिए उसके व्यवस्था कर्मचारियों की संख्या भी लगभग उसी अनुपात में रहती है। इन 2500 करोड़ लाल रक्त कणों को यदि एक सीधी पंक्ति में बिठा दिया जाये तो वह इतनी बड़ी होगी कि सारी पृथ्वी को चार बार लपेटे में लिया जा सके।

वस्तुतः मानव एक विलक्षण संरचना है। उसका ऐसा होना ही आस्तिकता के समर्थन हेतु एक महत्वपूर्ण तर्क है। उसे देखकर लगता है कि सृष्टा ने मनुष्य को उद्देश्य से किसी महान प्रयोजन हेतु बनाया है मजाक में नहीं। 


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