हजरत उमर का एक बड़ा स्वागत समारोह होने जा रहा था। दूसरे कई लोग भी उनके साथ थे। रात भर चलना था। समारोह का दिन अगले सवेरे था।
तब पाया गया कि एक आदमी आगे चलने वाले ऊँट की नकेल पकड़कर चले और दूसरे लोग ऊँटों की पीठ पर बैठकर झपकी लेते चलें। नकेल कौन पकड़े, इसकी पारी तय कर दी गई। काफिला रात भर चलता रहा। पौ फटी और भोर हुआ तो मालूम हुआ कि वह बस्ती आ गई, जिसमें स्वागत समारोह होना तय था।
पारी के हिसाब से हजरत उमर आगे वाले ऊँट की नकेल पकड़कर चल रहे थे। पीछे वाले चिल्लाये- “चलना बन्द किया जाये, ताकि हम लोग जमीन पर उतर सकें।”
आगे के ऊँट की नकेल पकड़कर चलने वाले हजरत उमर ने कहा- “हर आदमी अपनी जगह पर बैठा रहे और अपना काम करे। स्वागत के लिए यह जरूरी नहीं है कि नकेल पकड़कर चलने वाले की अवज्ञा की जाये और जो पीठ पर बैठे हैं, उन्हें उतरने के लिए मजबूर किया जाये।” ऐसे ही सत्कर्म, श्रेष्ठ चिन्तन महामानवों को विश्ववंद्य स्तुत्य बनाते हैं। उनके प्रसंग पढ़कर जन साधारण को भी वैसा ही बनने, अहंकार मुक्त होने की प्रेरणा मिलती है।