गीताकार का सार संक्षेप “अनासक्ति योग” के रूप में किया जाता है। आसक्ति छोड़कर कर्म करना- फल की आशा को त्यागकर कर्म करना- यह प्रतिदिन देखने सुनने में तो अच्छा लगता है पर जीवन की संरचना और व्यवहार की वस्तुस्थिति को देखते हुए जब गम्भीरता पूर्वक उपरोक्त कथन पर विचार किया जाता है तो प्रतीत होता है कि उपरोक्त प्रतिपादन को कार्यान्वित कर सकना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?
भगवान ने मनुष्य को बुद्धि दी है और उस बुद्धि का यही उपयोग है कि उचित अनुचित का विचार करे लाभ-हानि सोचे और इसके उपरान्त किसी निर्णय पर पहुंचे। कोई कदम उठाने से पहले हजार बार विचार कर लिया जाये कि इस प्रयास का क्या परिणाम हो सकता है? यदि श्रेयस्कर लगे तो ही किसी कार्य को हाथ में लिया जाये और जब लिया जाये तो उसमें पूरा मन, समय, श्रम, एकाग्रतापूर्वक इस तरह किया जाये कि उत्कृष्ट स्तर का बन पड़े। कार्य की श्रेष्ठता और समग्रता ही किसी की प्रतिष्ठा का करण बनती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विज्ञजन “कर्म ही ईश्वर पूजा है” की बात कहते हैं।
इस तथ्य के साथ अनासक्ति कर्मयोग की संगति नहीं बैठती। फल की इच्छा छोड़कर कर्म करना चाहिए। इन शब्दों का गठन तो सुन्दर और प्रतिपादन भी सरस हो सकता है किन्तु जब उस कथन को व्यावहारिकता की कसौटी पर कसा जाये तो अनेकों प्रश्न सामने आ खड़े होते हैं। फल की आशा या इच्छा छोड़ दी जाए तो यह कैसे प्रतीत हुआ कि जो किया जा रहा है वह उचित है या अनुचित? लाभकारी सिद्ध होगा या हानिकारक?
यह मानव स्वभाव के विपरित भी है। मनुष्य पहले सोचता है? बाद में करता है। सोचने की प्रक्रिया यह है कि जिसमें लाभ समझा जाये उसे किया जाये? जिसमें श्रम व्यर्थ जाता हो या हानि की आशंका हो तो उसमें हाथ न डाला जाये। मन लगाकर काम करने की स्थिति तभी बनती है जब उसके उत्साहवर्धक परिणाम होने की अपेक्षा हो। अन्यथा निष्प्रयोजन कोई क्यों श्रम करेगा? क्यों समय लगावेगा और किस निमित्त साधनों को उस हेतु संचित नियोजित करेगा।
प्रयोजन भले ही अशुद्ध मूर्खतापूर्ण हो, पर वह होना तो चाहिए ही। बिना उद्देश्य की क्रिया तो कोई विक्षिप्त मनुष्य ही कर सकता है। ऐसी दशा में अनासक्ति का तुक कैसे बैठा? किन्तु गीताकार के द्वारा दिये गये उस शब्द की व्याख्या और परम्परा कुछ विचित्र रूप में चल पड़ी। परमहंस अवधूत इसी प्रकार के रहन-सहन अपनाने लगे। अन्यमनस्क योग का एक अलग ही स्वरूप चल पड़ा। उसे गुरु गोरखनाथ से जोड़ा गया। उदासीन सम्प्रदाय तो प्रख्यात है ही।
उदासीनता का अर्थ निरपेक्ष या निष्पक्ष कहा जाता है। पर यह कहने में ही सरल है, व्यवहार में इसे कोई ब्रह्मज्ञानी ही ला सकता है साधारण जन नहीं। पाप और पुण्य के- उचित और अनुचित के बीच कोई ऐसी स्थिति नहीं पैदा की जा सकती, जिससे दोनों से अलग रहा जा सके। सुख-दुख- लाभ-हानि- मानापमान रहित स्थिति वाले व्यक्तित्व को “स्थित प्रज्ञ” बताया गया है। पर क्या ऐसी स्थिति व्यवहार में बन पड़ेगी या नहीं, यह विचारणीय है। दिन और रात के बीच का एक सन्ध्याकाल होता तो है पर उसे मिश्रण कहा जा सकता है अलग नहीं। स्त्री और पुरुष के दो विभागों में सृष्टि बँटी हुई है। नपुँसक होते तो हैं पर वे अपवाद हैं।
मनोविज्ञान की दृष्टि से उदासीनता निष्क्रियता के लगभग समीप जा पहुंचती है। जो उदासीन होगा, वह एक प्रकार से अनिर्णीत मनःस्थिति का होगा। उदास नीरस लोग ही ऐसे हो सकते हैं। उन्हें निष्पक्ष भी नहीं कह सकते। न्यायाधीशों को निष्पक्ष कहा जाता है। पर वे भी न्याय के पक्षपाती होते हैं। यदि वे यह कहने लगें कि हमें न्याय अन्याय से क्या लेना देना, तो फिर किसी को दण्ड देते हुए भी- दोषी ठहराते हुए भी उनसे न बन पड़ेगा। ऐसा तो ईश्वर भी नहीं है। वह भी पापियों को नरक का दंड और पुण्यात्माओं को स्वर्ग का उपहार देता रहता है। जो अध्यापक बच्चे के फेल होने की चिन्ता और पास होने की उत्कण्ठा न रखे वह पढ़ने में वैसी रुचि न ले सकेगा जैसी कि उसे लेनी चाहिए। ऐसी दशा में उस पर अकर्मण्य या अनाड़ी होने का दोष लगेगा।
फल प्राप्ति की इच्छा से ही मनुष्य में उत्साह बढ़ता है और वह पूरा पराक्रम करता है। यदि कुछ पल्ले पड़ने वाला न हो तो मनुष्य बेगार भुगतने या लकीर पीटने की तरह कुछ भला बुरा करता तो रह सकता है पर उस कर्तृत्व की कुछ विशिष्टता होगी भी या नहीं? यह विचारणीय है।
यह दर्शन का भ्रम पक्ष है। इससे प्रतीत होता है कि या तो कहने वाले ने यह विचार नहीं किया कि इस प्रतिपादन से भ्रम तो उत्पन्न नहीं होगा? या फिर समझने वाले से यह चूक हुई है कि कहने वाला यदि विचारशील है तो उलझाने वाली बातें क्यों कहेगा? ऐसी दशा में दोनों ही पक्षों को भ्रम निवारण करने और किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा फिर ऐसा होना चाहिए कि कोई निष्पक्ष वर्ग अपनी विवेक बुद्धि से दोनों ही पक्षों की कठिनाई समझे और जहाँ कुछ भ्रान्ति हो उसका निराकरण करे।
अनासक्ति के बारे में इतना ही कहा जा सकता है। सामान्य सम्भावना के विपरित कभी अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा परिणाम यथा समय न मिलता हो। उसमें डडडडडडड बिम्ब होता या विपरित फल उत्पन्न होता भी हो तो भी अधीर नहीं होना चाहिए। उसे अपवाद या दुर्विपाक समझकर उपेक्षा में नहीं डालना चाहिए। और इतने पर भी सन्मार्ग से विचलित न होना चाहिए। खिलाड़ियों जैसी मनःस्थिति रखनी चाहिए कि हार-जीत होते रहने पर भी वे अपने अभ्यास को नहीं छोड़ते। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि हार-जीत से ऊपर उठकर रहा जाये? ऐसे खिलाड़ी का तो उत्साह ही मारा जायेगा।
ऐसी ही भ्रांति “अहिंसा” के संबंध में भी है। वह अव्यावहारिक है। जीवित रहने वाले के शरीर में पुराने जीवकोश मरते व नए पैदा होते रहते हैं। पानी को छान लेने पर भी, हवा को नाक पर पट्टी बाँध लेने पर भी शरीर में प्रवेश करने से रोका नहीं जा सकता। अब तो वनस्पतियों में भी जीवन सिद्ध हो गया है और उन्हें भावनाशील भी माना जाने लगा है। ऐसी दशा में अहिंसा का अतिवादी अर्थ करने वालों को वनस्पतियों का सेवन भी छोड़ना होगा। लकड़ियों को जलाना और जमीन पर चलना भी हिंसा हो सकती है। झाड़ू से जमीन झाड़ते चलने पर भी सूक्ष्म जीवियों की हिंसा होती है। धूप में कपड़ा सुखाना और बीमार होने पर दवा लेना भी हिंसा में गिना जा सकता है। ऐसी दशा में जीवित रहने वाले को सही अर्थों में अहिंसक नहीं कहा जा सकता।
अहिंसा की व्याख्या करते समय यही कहना चाहिए कि अनावश्यक रूप से प्राणियों को कष्ट न दिया जाये। दुर्व्यवहार से किसी का दिल न दुखाया जाये। यह औचित्य की सीमा है। जेल और फाँसी को भी इस आधार पर हेय ठहराया गया तो फिर समाज में व्यवस्था का चल सकना की कठिन हो जायेगा। तब आक्रमणकारियों, अपराधियों को भी रोका न जा सकेगा। और देश की सीमाओं की रक्षा भी न हो सकेगी।
अतिवादी प्रतिपादनों से यथा सम्भव बचना ही चाहिए। भगवान बुद्ध के कथनानुसार हम मध्यम मार्ग अपनायें। अतिवादी न बनें। अनीति करें नहीं, पर साथ ही सहें भी नहीं, इसी प्रकार का हमारा सुलझा हुआ दृष्टिकोण होना चाहिए।