ध्यान योग के नूतन अभिनव आयाम

February 1986

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ध्यान का मस्तिष्क के हेमीस्फेयरिक सिमेट्री पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस पर अध्ययन कर रहे वैज्ञानिक मार्कवेस्टकॉट ने निष्कर्ष निकाला है कि ध्यान का अभ्यास करने से मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्ध दाहिने और बाँये गोलार्द्ध अपनी उन्नत अवस्था में आ जाते हैं और दोनों के क्रिया-कलापों के मध्य अधिक सामंजस्य स्थापित हो जाता है। यह क्रियाशीलता ध्यान के बाद भी बनी रहती है। परिणाम स्वरूप विचारों में उत्कृष्टता का समावेश होना है और व्यक्ति रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों में रुचि लेने लगता है। यह सब रचनात्मक विचारों की ही परिणति होती है।

मनुष्य के मस्तिष्क से निकलने वाली वैद्युतीय तरंगें (जो 8 से 14 चक्र प्रति सेकेंड होती है) ध्यान करने से स्थिर होने लगती हैं। मस्तिष्कीय तरंगों की लय का स्थिर होना अभ्यास कर्त्ता के जीवन में जागरूकता आने सचेतन होने का परिचायक है और यही अभ्यास साधक को पूर्णता की ओर ले जाता है।

वैज्ञानिक मार्कवेस्टकॉट ने अपने अनुसन्धान में पाया है कि ध्यान के समय मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों से ऊर्जा का उत्पादन लगभग बराबर मात्रा में होता है जो कि मस्तिष्क के सन्तुलन और समकालिकता का द्योतक है। सामान्य स्थितियों में या वार्त्तालाप के समय मस्तिष्क के दाँये-बाँये गोलार्द्ध में से एक भाग अधिक सक्रिय और प्रबल रहता है तथा दूसरे भाग पर अपना दबदबा बनाये रखता है। ध्यान के अभ्यास द्वारा इन दोनों गोलार्द्धों के क्रिया-कलापों में संतुलन और सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। क्योंकि उस समय मस्तिष्क की सक्रियता बढ़ जाती है और उसका रेटिकुलर सिस्टम अच्छी तरह से कार्य करने लगता है। रेटिकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम (आर.ए.एस.) ध्यान की एकाग्रता में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

ध्यान के समय मस्तिष्क के दाँये और बाँये- दोनों भागों के मस्तिष्कीय तरंगों की सक्रियता अत्यधिक बढ़ जाती है और ध्यान के बाद भी ये तरंगें कुछ समय तक अपनी उच्च स्थिति में होती हैं। जिससे दोनों गोलार्द्धों के मध्य सात्मीकरण अवस्था का पता चलता है। इस अवसर का लाभ साधक अपने मानसिक शक्ति के पूर्ण विकास में कर सकता है।

ध्यान पर वैज्ञानिक विवेचन और भी अनेकों विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। एक और वैज्ञानिक डोनैल्ड ई. मिस्कीमैन के अनुसार ध्यान का अभ्यास करते रहने पर मनुष्य की बौद्धिक क्षमता में वृद्धि होती है और विचार शैली भी उन्नत दिशा की ओर बढ़ती है। चेतन और अचेतन मन को सक्रिय बनाने एवं उसे विकसित करने का ध्यान एक महत्वपूर्ण उपाय है। स्मृति क्षमता की वृद्धि करने और उसे स्थायित्व प्रदान करने में ध्यान बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। शरीर की फिजियोलॉजी और मन की सामर्थ्य को बढ़ाने- उसे नई शक्ति प्रदान करने में भी ध्यान का अभ्यास बहुत उपयोगी होता है। उन्होंने साइकोमैट्री प्रयोगों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है।

‘खिलाड़ियों पर ध्यान का प्रभाव’ नामक अपने अनुसन्धान में एम. केशव रेड्डी ने बताया है कि छह सप्ताह के ध्यान के अभ्यास से खिलाड़ियों की हृदय गति की दर में महत्वपूर्ण कमी आँकी गई। हार्ट रेट की यह कमी कार्डियोवेस्कुलर सक्रियता और उसकी क्षमता में वृद्धि का परिचायक है। इसी तरह खिलाड़ियों की वाइटल केपेसिटी जीवनी शक्ति में भी वृद्धि को आँका गया है। जितनी कम हृदय दर होगी, उतना ही अधिक रक्त विश्राम की बढ़ी अवधि (क्यू.टी.इन्टरबल) में हृदय को मिलेगा तथा वायटल केपीसीटी के बढ़ने से परफ्यूजन- वेण्टीलेशन अनुपात बढ़ने से स्फूर्ति सहज ही आएगी।

ध्यान के समय हृदय की धड़कनें और उसकी उत्सर्जन एवं उत्पादन प्रक्रिया में अन्तर आ जाता है। वैज्ञानिकों ने उत्सर्जन प्रक्रिया में औसत 25 प्रतिशत की कमी आँकी है। ग्रोलमैन के अनुसार निद्रावस्था में कार्डियक आउटपुट में 20 प्रतिशत की कमी आ जाती है और ध्यान के समय यह प्रतिशत और अधिक कम हो जाता है। डॉ. बुलार्ड का निष्कर्ष है कि ध्यानावस्था में आक्सीजन की खपत में कमी के कारण हृदय के क्रिया-कलाप प्रभावित होते हैं और उसके उत्पादन-उत्सर्जन प्रक्रिया में परिवर्तन आता है। अपव्यय रुकने पर ऑक्सीजन अन्य अनिवार्य कार्यों में लगती है।

ध्यान साधना का अभ्यास करने पर त्वचा की प्रतिरोधी क्षमता भी असाधारण रूप से बढ़ती पाई गई है। राबर्टकीथ वैलेस ने अपने अनुसंधान में बताया है कि 10 मिनट की ध्यान साधना के साधकों की त्वचा की प्रतिरोधी क्षमता में 500 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी मापी गयी। निमीलित अवस्था में साधक की त्वचा की प्रतिरोधी क्षमता में महत्वपूर्ण वृद्धि हो जाती है। आँखें बन्द करने पर साधना के अन्त में साधकों ने अपने को बहुत ही शान्ति की अवस्था में पाया। स्ट्रेस कम होना, तनाव घटना बहुत बड़ी उपलब्धि है।

डॉ. बेन्सन के अनुसार ध्यान के नियमित अभ्यास से उच्च रक्तचाप के मरीजों में रक्तचाप सामान्य स्थिति में आता देखा गया है। परीक्षण के दौरान पाया गया कि यदि किसी ने ध्यान का नियमित अभ्यास बन्द कर दिया तो 4 सप्ताह के अन्दर-अन्दर मरीज का रक्तचाप फिर बढ़ी हुई आरम्भिक स्थिति में आ जाता है। उनका कहना है कि ध्यान के उपरान्त रक्तचाप में यह महत्वपूर्ण कमी सम्भवतः इण्टिग्रेटेड हाइपोथेलेमिक रिस्पान्स जिसे “रिलैक्सेशन रिस्पान्स” भी कहते हैं, की सक्रियता के कारण होता है।

उपरोक्त परीक्षण के आधार पर बेन्सन निम्न निष्कर्ष पर पहुँचे हैं-

“रिलैक्सेशन रिस्पान्स, सिम्पैथेटिक” तन्त्रिका तन्त्र की क्रियाशीलता में ह्रास से सम्बद्ध है और इसे “कैनन इमर्जेन्सी रिएक्शन” जो “फाइट और फ्लाइट रिस्पान्स” के नाम से प्रसिद्ध है, का दूसरा पक्ष कहा है।

इसके अतिरिक्त ध्यान का ई.ई.जी. द्वारा शरीर फिजियोलॉजी पर निम्न प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ। 1. ई.ई.जी. द्वारा ध्यानयोगी में अल्फा तरंगों की बहुलता देखी गयी। बीटा-तरंगें यदा-कदा देखी गयीं। 2. ध्यान के उपरान्त दिल की धड़कन में प्रति मिनट 5 धड़कन की महत्वपूर्ण कमी दृष्टिगोचर हुई। 3. इसी प्रकार सभी ध्यान योगियों में ध्यान का आरम्भ के उपरान्त 5 मिनट के अन्दर ही शरीर के ऑक्सीजन उपभोग में 20 प्रतिशत की कमी देखी गयी। 4. ध्यान के आरम्भ होते ही व्यक्ति के गैल्वेनिक स्कीन रेसिस्टेन्स में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी पायी गई, किन्तु बीच-बीच में इसमें कुछ कमी-वेशी भी होती रही। कुल मिलाकर सभी परिणाम तनाव शामक अधिक थे।

वस्तुतः अभी तक जितना प्रायोगिक कार्य अध्यात्म साधनाओं पर हुआ है वह उनकी सम्भावित परिणतियों को देखते हुए अत्यल्प है। मस्तिष्क एवं शरीर के अन्य संयंत्र अति विलक्षण हैं। मस्तिष्क के विद्युत फव्वारे के डी.सी. पोटेन्शियल नापने वाला कोई यन्त्र अभी तक कम्प्यूटर विज्ञान- साइबर्नेटिक्स में क्रान्ति करने वाला आधुनिक विज्ञान जगत नहीं बना पाया है। विधेयात्मक उच्चस्तरीय चिन्तन करते समय, तल्लीनता, एकाग्रता की स्थिति में, श्रद्धासिक्त भाव सम्वेदनाओं की चरमावस्था में मस्तिष्क की विद्युतीय स्थिति में क्या परिवर्तन होते हैं, चयापचय दर में क्या परिवर्तन होते हैं, स्नायु रसों का स्राव किस सीमा तक प्रभावित होता है, समग्र शरीर की वायोकेमीस्ट्री व बायोइलेक्ट्रीजीवी में क्या अन्तर आता है, यह जानने का प्रयास यदि किया जा सके तो ध्यान-योग सम्बन्धी अनेकानेक नये आयाम मनुष्य के हाथ लगेंगे। ध्यानयोग उच्चस्तरीय हो व अल्पावधि का ही हो तो वह हर प्रकार की सामर्थ्यवान तनाव शामक, मस्तिष्कीय सामर्थ्यों को बढ़ाने वाली औषधि का काम कर सकता है। आज के इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहे बल्कि तेजी से भाग रहे युग में ऐसी औषधि की आवश्यकता भी है। साथ ही उस अनुसन्धान की भी उपादेयता है जो उसे कसौटी पर खरा सिद्ध कर सके।


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