विज्ञान सम्मत विचार सम्प्रेषण विधा

February 1986

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व्यक्ति के सामान्य जीवन में ज्ञानेन्द्रियों के एक मामूली भाग के सदुपयोग से ही जीवन के सारे क्रिया कलाप चल रहे हैं। जबकि उनकी क्षमतायें अनन्त हैं। “रीडर डाइजेस्ट” में आपके मस्तिष्क की सीमा क्या है?” (ह्वाट इज दी लिमिट ऑफ यौर माइन्ड) शीर्षक से आर्डिस भिटमैन ने एक लेख छापा था। उसमें उन्होंने लिखा है कि सारे संसार में जितनी भी विद्युत और विद्युत उपकरणों की सामर्थ्य है, उसे पूरी तरह इकट्ठा करके तराजू के एक पलड़े में रख दिया जाये और दूसरी तरफ मस्तिष्क का 3 पिन्ट ग्रे मैटर (मस्तिष्क का भीतरी भाग) रखकर तौला जाये तो ग्रे मैटर की शक्ति कहीं अधिक होगी।

जिस व्यक्ति में जितनी अधिक मात्रा में संकल्प शक्ति तेजस्वी, उत्साही, आत्म-विश्वासी और आशावादी मनोवृत्तियाँ होंगी उतना ही वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों को विकसित करने में सक्षम होगा। इस विषय में अब तक जो भी प्रमाण और उदाहरण प्राप्त हुए हैं उनसे यही निष्कर्ष निकला है कि कोई भी सामान्य स्तर का व्यक्ति अपने संकल्प बल, उपयुक्त प्रेरणा, प्रोत्साहन, अनुभव और प्रशिक्षण से महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ करतलगत कर सकता है।

सूडान प्रदेश में मवाना जाति को अत्यधिक शान्तिप्रिय कहा जाता है, जो कि जंगलों- वन-बीहड़ों और सुरम्य पर्वतीय- खोह- कोटरों में निवास करती है। इस जाति के लोगों ने अपनी कर्मेन्द्रियों को इतना अधिक विकसित कर लिया है कि उनकी दूर श्रवण की क्षमता वैज्ञानिकों तक के लिए चुनौती का विषय बन चुकी है। वे मीलों दूर से उठने वाली ‘धीमी-मन्द’ आवाज को भी भली प्रकार सुन समझ लेते हैं।

वर्तमान युग में दूर की आवाज सुनना कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं रह गई है। आज विज्ञान के युग में राडार एक ऐसा विलक्षण यन्त्र है जो सैकड़ों मील दूर से आ रही आवाज ही नहीं, वस्तु की तस्वीर का भी पता बता देता है। किन्तु आज से शताब्दियों पहले जबकि आधुनिक विज्ञान का जन्म भी नहीं हुआ था, हमारे भारतीय अध्यात्म विद्या के गुरु जब अपने शिष्यों को कोई निर्देश विशेष देना चाहते थे, तब उसके लिए आज की तरह टेलीफोन, आदि नहीं प्रयुक्त करते थे, प्रयुक्त टेलीपैथी के माध्यम से अपने विचार सम्प्रेषित करते थे। यद्यपि टेलीपैथी (दूरबोध, विचार सम्प्रेषण) की रिपोर्टें अभी भी समय-समय पर मिलती रहती हैं, किन्तु निश्चित वैज्ञानिक सम्मत प्रमाण न मिलने के पूर्वाग्रह पर अड़े होने के कारण यह बात वैज्ञानिकों के गले नहीं उतरती।

“टेलीपैथी’ विषय हमेशा से वैज्ञानिकों के लिए अत्यधिक रहस्यपूर्ण विषय रहा है। मध्यकालीन इतिहास का अवलोकन करने से पता चलता है कि पहले-पहल टेलीपैथी के अस्तित्व को जानने के लिए छटवीं शताब्दी में लीडिया के राजा क्रौयसिस ने एक प्रणाली अपनायी थी। उसने अपने राजदूतों को राज्य के प्रसिद्ध भविष्य वक्ताओं के पास यह जानने के लिए भेजा कि “अमुक दिन अमुक समय पर राजा क्या कर रहा होगा?” इस संदर्भ में जब राज कर्मचारी अपने समय के प्रसिद्ध दिव्यदर्शी डैल्फी के पास पहुँचे और राजा का सन्देश सुनाया। भविष्य वक्ता डैल्फी ने थोड़ी देर के लिए गम्भीर होते हुए बताया कि इस समय राजा स्वयं एकाकी बिना किसी की मदद लिये तांबे की कड़ाही में भोजन पका रहा है।

इसी प्रकार की एक दूसरी प्रणाली रोम सम्राट ट्रैजन ने अपनायी थी। उन्होंने कुछ औषधियों की टेबलेटों को कई तहों के भीतर कपड़े में लपेटकर उस समय के प्रसिद्ध दिव्यदर्शी बैलवेक के पास पूछने के लिए राजदूतों के हाथ सूचना भिजवायी कि इस पैक के अन्दर रखी गई टेबलेटों पर क्या अंकित है। भविष्य वक्ता ने उस सील बन्द पैकेट को अपने हाथ में लेकर गम्भीर मुद्रा में एक कागज पर लिखा कि इस पैकेट के अन्दर “पपीरस” नामक औषधि है। जब लिखित कागज राजा के सामने प्रस्तुत किया गया तो दिव्यदर्शी विद्वान का कथन सत्य सिद्ध हुआ।

“टेलीपैथी” के गहन अध्ययन के लिए सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के प्रमुख दण्डाधिकारी मैलकॉम गुथरे और ‘लिवरपूल लिटरेरी एण्ड फिलोसोफीकल सोसाइटी’ के ऑनरेरी सेक्रेटरी श्री जेम्स विरचॉल ने एक सुनियोजित रूप से “सोसाइटी फोर साइकिकल रिसर्च” नामक संस्था की स्थापना की। जिसके अंतर्गत अनेकों विद्वान वैज्ञानिक शोध-सर्वेक्षण को आमन्त्रित किए गए। विधिवत् रूप से वैज्ञानिकों की टीम, बैठकों-सत्रों में टेलीपैथी में विश्वास रखने वालों, लोगों से साक्षात्कार करती व उनके अनुभवों का अध्ययन करती। इसमें तत्कालीन समय के प्रख्यात टेलीपैथी के विशेषज्ञ औलीवर लॉज की टेलीपैथी क्षमता का अध्ययन करने के लिए आमन्त्रित किया गया था। सर्वप्रथम वैज्ञानिकों ने लकड़ी के ब्लैक बोर्ड पर कुछ अत्यधिक पेचीदी डिजाइनें बनायीं और श्याम पट को उलटकर रख दिया। तत्पश्चात् पुनः वैसी ही डिजाइनें बनाने के लिए निर्देश दिया। उपस्थित वैज्ञानिकों व अन्य शोध सर्वेक्षण कार्यों का समुदाय यह देखकर अत्यधिक हतप्रभ हो रह गया कि उसने हूबहू ठीक वैसी ही सभी जटिल डिजाइनें कुछ ही क्षणों में बनाकर प्रस्तुत कर दीं।

आगे चलकर प्रो. जे. बी. राइन और उनके सहयोगी शोध कर्मियों ने लन्दन की प्रसिद्ध ‘ड्यूक यूनीवर्सिटी’ में अनेकों प्रयोग-परीक्षण के अनन्तर यह निष्कर्ष निकाला कि अब तक हम लोगों ने जो भी टेलीपैथी विषय पर विचार संप्रेषण प्रक्रिया की जाँच की है वह सभी अतीन्द्रिय क्षमताओं के अंतर्गत है। यहाँ तक वैज्ञानिक उपकरणों की पहुँच अभी सम्भव नहीं हो पायी है।

रूस के प्रसिद्ध भौतिकविद् एडवार्ड नौमॉव ने अपने हजारों अध्ययनों के पश्चात् यह प्रतिवेदन प्रस्तुत किया कि टैलीपैथिक प्रक्रिया दो घनिष्ठ आत्माओं के बीच स्नेह और सुरक्षा से सम्बन्धित अधिक पायी जाती है। अपने इस कथन का विवेचन करने से पहले उन्होंने इसका परीक्षण मास्को के एक शिशु ग्रह में किया था। नीमॉव ने नवजात शिशु और माँ को काफी दूर-दूर अलग-अलग ऐसे कमरों में रखा, जहाँ कि एक दूसरे की आवाज तक सुनाई न दे। जब बालक ने रोना चिल्लाना शुरू किया, तो दूसरे कमरे में बिस्तर पर शान्तिपूर्वक लेटी हुई माँ यकायक व्यग्र और घबराहट सी महसूस करने लगी। इसी प्रकार जब शारीरिक दर्द से व्यथित होकर माँ कराहने लगी, तो उधर दूसरे कमरे में स्थित सोया हुआ बच्चा ठीक उसी समय यकायक रोने-चिल्लाने लगा। अपने इस प्रयोग परीक्षण से नौमॉव ने बताया कि- माँ और बच्चे में टैलीपैथिक प्रक्रिया अत्यधिक होती है।

“सुपर नेचर” नामक पुस्तक के लेखक लायैल वैस्टन ने एक अति महत्वपूर्ण तथ्य का विवेचन अपनी इस पुस्तक में किया है कि कोशिकीय स्तर पर पौधों में टैलीपैथिक प्रक्रिया अत्यधिक क्रियाशील रहती है। इस पर अब तक अनेकों प्रयोग हो चुके हैं व लाइडिटेक्टर का प्रयोग भी पौधों पर किया जा चुका है।

दूरस्थ टैलीपैथिक विचार सम्प्रेषण विषय पर न्यूयार्क कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के प्रधान डॉ. डॉगलस डीन ने गहन प्रयोग परीक्षण किये एवं अपने शोध परीक्षणों का निष्कर्ष देते हुए बताया कि यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों मील दूरस्थ किसी घनिष्ठ मित्र, सम्बन्धी के बारे में तन्मयता पूर्वक, एकाग्र चित्त होकर विचार (ध्यान) करता है, तो उस सैकड़ों मील दूर स्थित व्यक्ति का ब्लड-प्रेशर चिन्तन, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन, श्वास गति आदि में यकायक परिवर्तन पाया जाता है। ये सभी निष्कर्ष बताते हैं कि देर सबेर विज्ञान जगत को टेलीपैथी को एक विधा के रूप में स्वीकार करना ही होगा। “मेण्टल वार”, ”मेण्टल पावर” नामक ग्रन्थों के रचयिता वैज्ञानिक एल्विन टॉफलर का कहना है कि रूस ने अतीन्द्रिय क्षमता के द्वारा वैचारिक युद्ध में महारत हासिल कर ली है। वहाँ अतीन्द्रिय सामर्थ्य के इस पक्ष को विकसित कर शत्रु पक्ष के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के चिन्तन को प्रभावित करने के सफल प्रयोग किए गये हैं। अच्छा हो इस दैवी विभूति का सुनियोजन श्रेष्ठ कार्यों हेतु, सद्भावना विस्तार हेतु, वैचारिक प्रदूषण निवारण एवं समष्टिगत कल्याण हेतु प्रयुक्त हो न कि व्यक्तिगत स्वार्थ या किसी के अहित के लिए।


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