अपनों से अपनी बात

February 1986

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इस वर्ष का एक अति महत्वपूर्ण निर्धारण

युग परिवर्तन के प्रयासों को मानवकृत नहीं मानना चाहिए, अन्यथा उसमें ढेरों त्रुटियाँ रहतीं, ढेरों विरोध या असहयोग करते , ढेरों बीच-बीच में ऐसे व्यवधान खड़े हो जाते, जिनका समाधान ही नहीं हो पाता। सफलता मिलती भी, तो बहुत धीमी गति से क्योंकि लोकरुचि में मनोरंजन और उद्धत आचरणों के प्रति ही रुझान है। वे अनायास ही बढ़ते और फलते-फूलते हैं। उनके लिए समय और धन लगाने वाले भी असंख्यों हो जाते हैं, साथ ही सत्प्रयोजनों का उपहास करने वाले एवं अड़ंगे अटकाने वालों की भी कमी नहीं रहती। ऐसा इस योजना में सर्वथा न हुआ हो, सो बात तो नहीं है, पर सफलताओं को देखते हुए अड़चनों का अनुपात नगण्य रहा है। ऐसी कल्पना नहीं की गई थी। मनुष्यकृत आन्दोलन अनेकों उठे और पानी के बबूले की तरह फूट गये, जबकि उनके पीछे प्रतिभा और संपदा की कमी नहीं थी, पर युग परिवर्तन में यह विचित्रता रही कि दो घण्टे समय और बीस पैसा नित्य जैसे अनुपम आधार को अपनाकर वह उमग उठा, बढ़ा और देखते-देखते अपनी शाखा-प्रशाखाओं से समूचे देश को एवं विश्व को भी आच्छादित करने लगा। दो दशाब्दियों पहले उसका श्रीगणेश हुआ और इतनी-सी कम अवधि में उसने विशालकाय कल्पवृक्ष की तरह लाखों की संख्या में अपने पत्र-पल्लव विनिर्मित और सुविस्तृत कर लिये।

भूतकाल के कृत्यों के सम्बन्ध में मिशन के सघन परिचय में आने वालों को अब तक की गतिविधियों का परिचय है। जो जान-बूझकर अविज्ञात रखी गई हैं, उनका विवरण भी समय आने पर प्रकट और प्रतीत होता जायेगा। उदाहरण के लिए जहाँ समस्त विश्व में एक स्वर से विनाश की सम्भावनाओं को सुनिश्चित बताया जा रहा है, उसके कारण प्रमाण, तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं, वहाँ सिर्फ एक आवाज उठी है कि ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होने दिया जायेगा। समस्त विश्व की चिन्ता एक ओर, और दूसरी ओर एक आदमी का निश्चय और उद्घोष कि कोई डरे नहीं, सभी निश्चिन्त रहें। इस विश्व-वसुधा के ऊपर इतनी बड़ी ढाल तानी गई है कि उसे वेध सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। कठिनाइयाँ न आयें, सो बात नहीं, पर वे समयानुसार निरस्त होती चलेंगी। सृजन की आवश्यकताऐं बहुत बढ़ी हैं इतनी बड़ी कि उनका जुट सकना आज तो असम्भव जैसा दीखता है, पर यह पंक्तियाँ कह रही हैं कि हर साधन जुटता जायेगा। कौन जुटायेगा? कैसे जुटायेगा? इसका उल्लेख यहाँ आवश्यक नहीं, क्योंकि जब परोक्ष कर्त्तृत्व किसी महान सत्ता का है, तो व्यक्ति विशेष को श्रेय देना व्यर्थ है, उसका अहंकार बढ़ाने के समान है। इस प्रकार की बढ़ोत्तरी से संसार में कोई उठा नहीं, वरन् गिरा ही है। इसलिए कहा इतना भर जा रहा है कि विनाश की विभीषिकाएँ निरस्त होंगी और विकास उस तेजी से बढ़ेगा जिसकी घोषणा करना तो दूर, आज तो उसकी रूपरेखा तक समझना कठिन है, क्योंकि उस कथन को भी अत्युक्ति समझा जा सकता है।

कुछ दिन पूर्व मिशन की गतिविधियों के समाचार छापने का प्रबन्ध किया गया था, पर अब तो वह किसी प्रकार सम्भव नहीं रहा। एक भरापूरा दैनिक यदि 40 पृष्ठों का छपे, तब कहीं लोगों की कृतियों का उल्लेख सार-संक्षेप बनाकर छापा जा सकता है। जिन्हें अपना नाम छपाने की उतावली है, वे अपने अलग अखबार छाप भी रहे हैं, पर उनमें समस्त विश्व की विशालकाय गतिविधियों का उल्लेख एवं समावेश सम्भव नहीं। अच्छा हो, लोग मिशन को ही अपना अध्यात्म स्वरूप मान लें और समझ लें कि यह मत्स्यावतार इतना छोटा नहीं है, जिसे चुल्लू में भरा जा सके।

पिछले दिनों जो हो चुका है उसका उल्लेख करना आवश्यक है। उस संदर्भ में इतना ही समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक बसन्त पर्व एक नया तूफानी उभार साथ लाता है और वह आरम्भ में असाध्य या कष्टसाध्य दीखते हुए भी समय के साथ बढ़ता और फूलता जाता है। तालाब में घनघोर वर्षा का पानी जितना बढ़ता है उसी हिसाब से कमल का डण्ठल भी रातों-रात बढ़ जाता है और फूल पानी में डूबने नहीं पाता, वरन् ऊपर ही उठा आ दीखता है। इसी प्रकार भावी कार्यक्रमों की जो घनघोर वर्षा बरसती है बसन्त के उपरान्त प्रतीत होता है कि उसके साधन भी उसी अनुपात में बरसे और अभावों एवं संकटों का उतना सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि कल्पना की गई थी। कोई शक्ति कठिन को सरल बनाती गई और समुद्र पर पुल बँधता चला गया।

जिन दिनाँक यह पंक्तियाँ पाठकों को पढ़ने के लिए मिलेंगी, तब तक सन् 86 के बसन्त पर्व का माहौल होगा और वह जिज्ञासा पूरी हो जायेगी कि इस बसन्त पर देवी प्रेरणा ने अन्तरिक्ष से स्वाति कणों की कैसी व कितनी घटाटोप वर्षा की है।

अगले वर्ष से बसन्त पर्व के तुरन्त उपरान्त ही वे कार्यक्रम चल पड़ेंगे, जिन्हें वर्गीकरण की दृष्टि से दो विभागों में भी बाँटा जा सकता है। समय के सेकेण्ड- मिली सेकेण्ड जैसे अगणित भाग हो सकते हैं, पर उसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में भी बाँटा जा सकता है- एक दिन, दूसरी रात। इसी प्रकार प्रस्तुत बसन्त के उपरान्त दो कार्यक्रम चलेंगे, पर उनकी शाखा-प्रशाखाएँ इतनी होंगी जिनकी संख्या की गिनती एक शब्द ‘अगणित’ में ही करनी होगी।

एक कार्य है- देश के गाँव-गाँव में युग चेतना का सन्देश सुनाना, जन-जन के मन-मन में अलख जगाना। दूसरा कार्य है- देश के अपेक्षित अर्धमृत तीर्थों में प्राण फूँकना, उनका पुनरुद्धार करना। कहने और सुनने में यह दोनों योजनाएँ कुछ ही क्षणों में कहीं और सुनी जा सकती हैं, उनका विस्तार इतना बड़ा है, जिसे मानवी कर्तृत्व से बाहर की बात समझा जाये, तो भी अत्युक्ति न होगी।

भारत में बड़े सात लाख गाँव हैं। नगले, छोटे कस्बे, मजरे जोड़कर वे बीस लाख हो जाते हैं। इन सभी गाँवों में युग चेतना की जानकारी पहुँचानी और उसके सिद्धान्त समझाने हैं। प्रज्ञायुग का अवतरण समीप है। उसमें दूरदर्शी विवेकशीलता का स्वरूप उद्देश्य और व्यवहार जन-जन को समझाना है, साथ ही प्रस्तुत अवाँछनीयता, अनैतिकता, मूढ़-मान्यता तथा कुरीतियों के कारण होने वाले भयंकर अनर्थों से भी अवगत कराया जाना है। हमें अगले दिनों जिस समता, एकता, सहकारिता, सज्जनता की नीति को अपनाना है, उसके महत्व को भी हृदयंगम कराना है। प्रज्ञायुग के चार आधार होंगे- समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी। इन सब बातों के लिए मनों में गुंजाइश पैदा करनी है और प्रचलन के नाम पर जो अविवेक और अनर्थ हर दिशा में छाया हुआ है, उसका उन्मूलन भी करना है। यह कृत्य “हम बदलेंगे, युग बदलेगा” की नीति के अनुरूप चलेगा और “नर और नारी एक समान, जाति वंश सब एक समान” का आदर्श हृदयंगम करने पर ही सम्भव होगा। इन दिनों नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में अनेकों अनीतियाँ प्रचलित हैं। उनके विरुद्ध जनमत और आक्रोश भी जागृत करना है। विषमता का हर क्षेत्र में बाहुल्य है। उनके स्थान पर एकता और समता के सिद्धान्तों को मान्यता मिल सके, ऐसा वातावरण बनाना है।

इसके लिए जन-संपर्क साधने की आवश्यकता होगी। हर भाषा में सस्ता प्रचार साहित्य छपना है और दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन का प्रचलन इस स्तर पर करना है, जिसे शिक्षित पढ़ सकें और अशिक्षित पढ़ों द्वारा सुन सकें। यह प्रचार कार्य परस्पर वार्त्तालाप द्वारा छोटी गोष्ठियों द्वारा और बड़े सम्मेलनों द्वारा चल पड़ेगा, तो एक व्यक्ति भी ऐसा न रहने पायेगा, जिसे युग परिवर्तन का आभास न मिले और आदर्शों को अपनाने का वातावरण न बने।

इसके लिए जहाँ जैसा सुयोग बनेगा, विचार विनिमय प्रवचन एवं वक्ताओं द्वारा छोटे बड़े समूहों को इस प्रकार समझाने का प्रयत्न चलेगा तो लोगों को अन्तराल की गहराई तक प्रवेश करता चला जाये। अभीष्ट प्रयोजन के लिए लेखनी और वाणी द्वारा तो प्रचण्ड प्रचार कार्य चलाया ही जाएगा, साथ ही बरसाती हरीतिमा की तरह दिन दूने रात चौगुने वेग से बढ़ने वाली प्रज्ञा परिजनों की हरीतिमा को इतना शौर्य पराक्रम प्रस्तुत करने के लिए भी कटिबद्ध किया जायेगा कि वे अपने निज के क्रियाकलापों के द्वारा असंख्यों के सामने अनुकरणीय आदर्श भी प्रस्तुत कर सकें। मनुष्य का स्वभाव अनुकरणशील है। इन दिनों दुष्प्रवृत्तियां और दुर्भावनाएँ भी एक से दूसरे ने सीखी हैं। तब यह भी असम्भव नहीं कि अग्रगामी व्रतशील जब सत्प्रयोजनों के लिए अपना आदर्श प्रस्तुत करें तो उसका अनुकरण दूसरे लोग न करें। जब दुर्बुद्धि की छूत एक से दूसरे को लगी है तो कोई कारण नहीं कि शक्तिशाली सदाशयता का प्रभाव एक दूसरे पर न पड़े। जब कुछ ही दिनों में ईसाई धर्म और साम्यवादी सिद्धान्तों ने अधिकाँश जन समुदाय को अपने अंचल में समेट लिया तो यह नितान्त असम्भव नहीं कि उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और सौम्य व्यवहार का प्रभाव एक दूसरे पर न पड़े और आज की अवाँछनीय परिस्थितियाँ बदली हुई मनःस्थिति के आधार पर उलट न सकें।

यह है जन संपर्क प्रक्रिया जिसे प्राचीन काल के धर्मपरायण व्यक्ति “अलख जगाना” या आलोक वितरण कहते थे। कोई कारण नहीं कि एक समय जो सम्भव हो सका व उन्हीं प्रयत्नों के आधार पर दूसरी बार सम्भव न हो सके। चिरकाल तक सतयुगी वातावरण इसी धरती पर रहा है तो कोई कारण नहीं कि उसकी वापसी न हो सके। सूर्य अस्त होने के बाद जब दूसरे दिन फिर अरुणोदय के रूप में प्रकट हो सकता है तो सतयुग के अभिनव प्रज्ञा युग के रूप में पुनरावर्तन हो सकने में शंका क्यों अभिव्यक्त की जाये?

ब्रह्मपरायण वर्ग सदा से धर्म धारणा और भाव सम्वेदना का संरक्षक रहा है तो कोई कारण नहीं कि नवयुग के सृजन शिल्पी उस परम्परा को पुनर्जीवित करके और स्वार्थ को ठुकराकर विश्व मानव की हित साधना के लिए लोभ, मोह और अहंकार का परित्याग करके राष्ट्र को जीवित और जागृत रख सकने वाले पुरोहितों के रूप में नये सिरे से प्रकट न हो सकें। दूब मरती नहीं। गर्मी में सूख जाती है किन्तु पहली वर्षा होते ही वह इतनी तेजी से उठती है कि धरातल पर मखमली फर्श बिछा देती है। क्षुद्र संकीर्णता से ऊँचे उठने वाली आत्माओं का बीज नाश नहीं हुआ है। युग चेतना की पावस आते ही वे लोक प्रचलन का कायाकल्प कर सकेंगी। योजना ऐसी ही बनी है कि 80 करोड़ भारतवासी देवमानवों का लोकमानस बदल सकें और उनके पराक्रम से संसार भर का वातावरण बदल सकें। प्राचीन काल में भारत के देव-मानवों ने संसार भर को अजस्र अनुदान दिये हैं। अब वह परम्परा पुनर्जीवित न हो सके ऐसा कोई कारण नहीं। पिछले दिनों छोटे से प्रयत्नों से 74 देशों में युग परिवर्तन की हवा फैल सकी तो अगले दिनों उस दिशा में सशक्त प्रयत्न किये जाने पर समस्त संसार को उस लपेट में न लिया जा सके, इसका कोई कारण नहीं।

पिछले दिनों जन जागरण के लिए, लोकमानस परिष्कार के लिए जो सामान्य प्रयत्न हुए हैं, उनने आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम उत्पन्न किये हैं तो कोई कारण नहीं कि अगले दिनों ऐसा न हो सके जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।

गत वर्षों की योजना यह रही है कि 30 जीप गाड़ियों के माध्यम से 2400 प्रज्ञापीठ और 24 हजार प्रज्ञा संस्थानों में प्रज्ञा आयोजन होते रहे हैं। जीपों में संगीत मंडलियां जाती रही हैं और प्रज्ञा पुराण की कथाओं के संदर्भ देते हुए प्रवचन होते रहे हैं।

अब अगले दिनों योजना यह है कि गाड़ियों की संख्या 100 कर दी जायेगी। जहाँ पहले आयोजन हो चुके हैं वे बार-बार अपने यहाँ की जनता तक ही सीमित न रहें वरन् यह उत्तरदायित्व उठावें कि समीपवर्ती कम से कम दो गांवों में अपने जैसे प्रज्ञा आयोजनों की व्यवस्था करें। यह कार्य उनसे कह देने मात्र से न हो सकेगा। वरन् स्वयं पूरे समय उन सम्मेलनों में साथ रहकर आदि से अन्त तक की व्यवस्था बनानी होगी। आयोजनों में अनेक प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ती है। दो रात्रियों में जन सभायें होती हैं। एक दिन स्थानीय लोगों के साथ संपर्क में लगता है। एक दिन आने जाने में लग जात है। आगे से यह व्यवस्था भी चलेगी कि रास्ते में पड़ने वाले सभी गाँवों में जीप मण्डली के लोग आदर्श वाक्य भी दीवारों पर लिखते चलेंगे जिससे उधर से निकलने वालों को युग चेतना की विचारधारा से अवगत होने का अवसर मिले और यह प्रतीत हो कि इस क्षेत्र में युग परिवर्तन की हवा गुजरी है। यह प्रक्रिया लगभग गत वर्षों के कार्यक्रमों से मिलती-जुलती है। अन्तर इतना ही है कि हर वर्ष एक ही गाँव या क्षेत्र में कार्यक्रम होने की अपेक्षा उस प्रकाश को अब नये गाँवों में पहुँचाना होगा।

गत वर्षों में मात्र संगीत गायन, लाउडस्पीकर, टेप रिकार्डर आदि का ही प्रबन्ध था। कहीं-कहीं वीडियो कैसेट्स भी भेजे गये थे। अगले वर्षों में यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि माताजी और गुरुजी के प्रकाश चित्र एवं प्रवचन भी जीपों के साथ रहें। कहीं-कहीं बिजली नहीं होती ऐसी दशा में गाड़ी के साथ अपना जनरेटर भी भेजा जायेगा। ताकि बिजली के अभाव में कार्यक्रम ही रद्द न करना पड़े।

पिछले कार्यक्रमों में यह विशेषता रही है कि प्रज्ञा पीठों और प्रज्ञा संस्थानों ने हरिद्वार के भारी खर्च को देखते हुये जीप खर्च के अतिरिक्त भी कुछ आर्थिक सहायता दी है। अबकी बार चूँकि अधिकाँश नयी जगहें होंगी, उन्हें मिशन का विशेष परिचय भी नहीं होगा। इसलिए असली खर्चे से भी कहीं कम 200 रु. ही लिया जायेगा। कहीं से अधिक मिले तो बात दूसरी है।

जीपें अभी 30 हैं। नई योजना के हिसाब से यह 100 करनी पड़ेंगी। इसके लिए अर्थ प्रबन्ध की जरूरत पड़ेगी पर आशा की गई है कि जिस भगवान ने राई को पर्वत बना दिया है वे किसी न किसी प्रकार इस व्यवस्था को भी पूरी करेंगे। इस लेख से तो उन सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए कि जिनके यहाँ गत वर्षों में कोई आयोजन हो चुका है। वे अपना दायित्व समझें कि दो नये स्थानों पर उन्हें आयोजन कराने हैं और अनजानों को जानकारी देने के लिए दोनों आयोजनों में आदि से अन्त तक साथ रहते हुए यह मानना है कि यह आयोजन किन्हीं अन्यों द्वारा आमन्त्रित किया हुआ नहीं है वरन् उन्हीं के द्वारा सम्पन्न किया जा रहा है। इसलिए उसकी सफलता- असफलता भी उन्हीं की मानी जायेगी।

अगले वर्ष के लिए दूसरा कार्यक्रम है तीर्थों का जीर्णोद्धार। भारत में तीर्थ, यात्रा का सबसे अधिक पुण्यफल माना गया है। धर्म प्रचारक अपने-अपने क्षेत्रों में धर्म प्रचार की पदयात्रा करते थे। उस क्षेत्र में बने हुये देवालयों- धर्मशालाओं में प्रचार करते थे और स्थानीय जनता में धर्म प्रवचन भी करते थे। इसलिए अधिकाँश गाँवों में देवालय बने हुये थे चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों। वे भी क्षेत्रीय तीर्थ माने जा सकते हैं। आज तो जहाँ भव्य मन्दिर हैं, रेल या बस की सुविधा है, वहीं तीर्थ रह गये हैं। लोग प्रतिमा झाँकते, जलाशयों में डुबकी लगाते और चिन्ह पूजा करके घुड़दौड़ की तरह यहाँ-वहाँ भागते रहते हैं। पर प्राचीन काल में ऐसा न था। हर गाँव का मन्दिर तक तीर्थ था। तीर्थाटन करने वाले छोटे प्रवासों की परिक्रमा करके वहाँ ठहरते, आयोजन करते और आगे बढ़ते थे। अब वह न तीर्थयात्रा रही और न मन्दिरों का गौरवशाली स्वरूप। उद्देश्यों को भूलने और चिन्ह पूजा निबाहने से मन्दिर के ध्वंसावशेष तो ढेरों बन गए हैं, पर लगता है मानो इनमें से प्राण निकल गये हों। उद्देश्य पूर्ति के लिए कोई अर्थ व्यवस्था होती नहीं। जो चढ़ावा आता है वह पुजारी की जेब में चला जाता है। जिनके साथ कुछ स्थायी आजीविका लगी हुई है उनका तो दिया बत्ती जल जाता है अन्यथा वर्षों बुहारी नहीं लगती। चमगादड़, अबाबील घोंसले बना लेती हैं। प्रतिमाओं पर कबूतर बीट करते रहते हैं। दीवारों में दरार पड़ती जाती है। फर्श उखड़ते जाते हैं और धीरे-धीरे वे टूटते-फूटते समाप्त हो जाते हैं।

गणना के आधार पर जाना गया है कि ऐसे दुर्दशाग्रस्त मन्दिरों की संख्या 1 लाख के लगभग है। आने-जाने वालों की संख्या भी नहीं के बराबर होती है। उन्हें कोई सम्भालते ही नहीं तो ऐसी स्थिति होना स्वाभाविक है। यह हिन्दू धर्म पर एक कलंक है। मन्दिर अपने नाम के लिए पर देवता को प्रसन्न करके उसकी जेब काट लेने के लिए नये तो बनते जाते हैं पर यह नहीं देखते कि पुराने का जीर्णोद्धार तक न होने से समूचे समाज की विशेषतया देव भक्ति का कितना भारी उपहास या अपमान हो रहा है।

संसार में गिरजे, मस्जिद गुरुद्वारे अनेकों हैं। पर जिनने उन्हें बनाया है वे तथा उन धर्मों के अनुयायी उनकी समुचित देखभाल करते हैं। कभी उसे समाप्त करना है या बेचना हो तो ऐसी व्यवस्था करते हैं जिससे उस धर्म स्थान की उपेक्षा अवज्ञा न होने पावे। पर अपने देश में काने, कुबड़े, लंगड़े-लूले को मन्दिर बनाने का तो शौक चर्राता है पर उनकी भावी देखभाल का दायित्व संभालने का किसी को ज्ञान नहीं है।

नई योजना के अनुसार ऐसे देवालयों के जीर्णोद्धार की व्यवस्था करना है जो गाँव के समीप हैं और जिनका कुछ सदुपयोग हो सकता है। समर्थ गुरु रामदास ने जितने ही 700 के करीब महावीर मन्दिर बनाये थे, उन सबके साथ व्यायामशाला और पाठशाला, सत्संग क्रम का प्रबन्ध किया था। वे सभी सोद्देश्य थे। उनका निर्माण ऐसे स्थानों पर हुआ था जहाँ लोग आसानी से पहुँच सकें, कथा सुन सकें, बच्चों को पढ़ा सकें और व्यायामशाला चला सकें। फलतः वे कम लागत के होने के कारण दीर्घजीवी तो न हो सके पर जब तक वे रहे तब तक उनकी उपयोगिता बराबर बनी रही।

महामना मालवीय जी का विनिर्मित एक श्लोक है-

‘ग्रामे ग्रामे सभा कार्या, ग्रामे ग्रामे कथा शुभा। पाठशाला, मल्लशाला, प्रति पर्व महोत्सवा॥”

इस श्लोक में उन्होंने रामदास की व्यायामशाला, पाठशाला, कथा प्रवचन की बात का यथावत् रखते हुए सभा-संगठन एवं पर्वोत्सवों को और जोड़ दिया है अपनी योजना कुछ इसी प्रकार की है। हम चाहते हैं कि मालिकी एक की नहीं हो वरन् मन्दिरों के ट्रस्ट बनें। साथ ही हिन्दू धर्म में इतने संस्कार और पर्व होते हैं उनके लिए भी वहाँ जाया जाय ताकि सबका अपनापन उनके साथ जुड़ा रहे और साथ ही श्रमदान और धनवान से उनकी मरम्मत- शोभा सज्जा भी होती रहे। किन्तु अपना समाज भी विलक्षण है। शैक चर्रायेगा तो सभी अपना-अपना मन्दिर खड़ा कर देंगे और जब उपेक्षा होगी तो उनकी ओर कोई मुँह भी नहीं करेगा।

इस स्थिति को बदलने का मिशन का मन है। जो मन्दिर उपयोगी हैं, गाँव के समीप हैं जिनमें देवता की काल कोठरी के अतिरिक्त कोई सार्वजनिक कार्यक्रम चलाने की भी गुंजाइश है, उनकी मरम्मत कराने के लिए समस्त ग्रामवासियों को संगठित किया जाये। घरों में मुट्ठी फण्ड के घड़े रखवाये जायें अथवा जो सम्पन्न हैं। उन्हें समझाया जाय कि नया मन्दिर बनाने की अपेक्षा शास्त्रकारों ने पुरानों का जीर्णोद्धार करने का पुण्य सौ गुना अधिक बताया है। अपने इतने मन्दिर हैं कि यदि इन्हें उपयोगी बनाने का क्रम चल पड़े तो अनेकों धर्म स्थान उसे उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं जिनके लिए कि पूर्वजों ने उनका निर्माण किया था। इस प्रकार देवता हिन्दू धर्म और उसके अनुयायियों को कलंक से बचने का अवसर मिलेगा। साथ ही उन्हें निरर्थक पड़े न रहने देकर ऐसा उपयोग भी होने लगेगा, जिससे नव जीवन के चिन्ह प्रकट हों और उपहास के स्थान पर उपयोग का क्रम चल पड़े।

दूसरा कार्यक्रम इसी उद्देश्य के लिए है। सात लाख गाँव और उनके 20 लाख नगले-मजरी में से अधिकाँश को तीर्थ के रूप में परिणत किया जाये। जिस देश का कभी प्रत्येक देवालय तीर्थ था। उनकी परिक्रमाओं के अपने-अपने क्षेत्र थे। उन परिक्रमाओं के आधार पर एक स्थान के लोग दूसरे स्थानों में संपर्क साधते थे। धर्म चर्चा करते थे और जहाँ जो त्रुटि दिखाई पड़ती थी वहाँ उसे दूर करने की व्यवस्था बनाते थे। अब फिर वही क्रम चलना चाहिए। भव्य नगरों में बड़ी-बड़ी इमारतों वाले तीर्थों को ही नहीं छोटे-छोटे क्षेत्रों के देवालयों को भी तीर्थ माना जाये और उनके मार्ग में पड़ने वाले ग्रामों को धर्म प्रचार का एक प्रभाव क्षेत्र माना जाये। उनमें से जो केन्द्रीय स्थान हो जहाँ जलाशय की अच्छी व्यवस्था हो वहाँ धार्मिक मेले भरने, सभा समारोह होने के भी ऐसे दिन निर्धारित किये जायं जो एक दूसरे से टकरायें नहीं। अलग-अलग महीनों या तिथियों में अलग-अलग मेले हों और उनका उद्देश्य मात्र मनोरंजन न होकर धर्म सम्मेलन हो तो उस क्षेत्र से अन्ध परम्पराओं और रूढ़ियों का उन्मूलन हो सकता है। सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए नया उत्साह जग सकता है। सामूहिक विवाह शादियों के संस्कारों के आयोजन भी हो सकते हैं। पर्वों को मनाने की प्रथा जो सिमटकर घर में देवता के नाम पर पकवान बनाने खाने तक सीमित रह गयी है। उसके पीछे छिपे हुए उद्देश्यों को जानने एवं क्रियान्वित करने का अवसर मिल सकता है।

कभी इस देश में दस हजार तीर्थ और एक हजार सरिताएं थीं, जिनके अपने-अपने माहात्म्य थे। जिन सरिताओं को पवित्र माना जाता था, उन्हें लोग शुद्ध करते थे, गहरा करते थे और उनसे प्रभावित क्षेत्र में कृषि, शाक उत्पादन आदि की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाते थे, बाँध बाँधते और नहरें निकालते थे, पर अब तो वे नदियाँ- नाला मात्र रह गई हैं। न उनके प्रति देव भावना की श्रद्धा रही, और न उनके किनारे मेलों का, धर्म सम्मेलनों का जो प्रचलन था, वह अब शेष रहा।

देव संस्कृति के पुनर्जागरण की योजना को कार्यान्वित करने के लिए समीपवर्ती क्षेत्रों के प्रतिभाशाली लोगों को आमन्त्रित करके ऐसी योजनाएँ बन सकती हैं। क्षेत्रीय जलाशयों को गहरा एवं शुद्ध बनाने की बात सोची जा सकती है। इसके लिए अपने प्रज्ञा आयोजनों का अवसर समीपवर्ती लोगों को बुलाकर उपयोगी विचार विनिमय करने की दृष्टि से बड़ा कारगर सिद्ध हो सकता है।

“तीर्थयात्रा” शब्द के साथ अभी भी बड़ी श्रद्धा जुड़ी हुई है, पर वे देश भर में फैले हुए न रहकर बड़े-बड़े शहरों तक सीमित रह गये हैं। वहाँ कोई सत्प्रवृत्तियां नहीं चलतीं, न लोकोपयोगी कार्य होते हैं। यहाँ तक कि कहीं एक स्थान पर जन-जीवन तथा सामाजिक विकृतियों के सम्बन्ध में विचार नहीं होते। देव पूजा के नाम पर कुछ लोग धन्धा भर चला लेते हैं, पर तीर्थों में कोई साधना-सत्र, धार्मिक समारोह, सामयिक समस्याओं के समाधानों के सम्बन्ध में कोई निर्धारण नहीं होते। बसों और रेलगाड़ियों को पर्यटकों की सवारियाँ भरने जैसी आर्थिक सुविधा भले ही मिल जाती हो। इसके स्थान पर भार वाहन का स्थान साइकिल से लेकर समीपवर्ती क्षेत्रों की प्रायः एक-एक सप्ताह की धर्म यात्राऐं बनायी जायें। तो उनकी लपेट में देश का हर कोना आ सकता है और अपने देहात में बसे अशिक्षित तथा पिछड़े हुए देश में एक सामाजिक क्राँति हो सकती है।

इसका सूत्र-संचालन अन्य किसी को असम्भव या कठिन प्रतीत हो सकता है, पर प्रज्ञा-परिवार के लिए यह सब तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए, क्योंकि परिजनों में धार्मिक विचारधारा एवं समाज-सुधार की भावना पहले से ही मनों में कूट-कूटकर भरी गयी है।

तीर्थयात्रा की शास्त्रकारों और आप्तजनों ने जो महिमा गायी है,वह मिथ्या नहीं है। अन्तर केवल इतना भर है कि जिस आधार पर उसकी उपयोगिता और गरिमा थी, वह एक प्रकार से समाप्त हो गई। लोकोपयोगी जिन क्रिया-कृत्यों के साथ उनके अविच्छिन्न सम्बन्ध थे, वे समाप्त हो गये और उनके स्थान पर भीड़ की धकापेल ने जेबकतरों की कारगुजारी को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने का अवसर दिया। अब वे पर्यटन केन्द्र मात्र रह गये हैं और उस प्रयोजन को सफाचट कर रहे हैं, जिसमें साधना, श्रद्धा, आत्मशोधन, लोक हित आदि का समावेश था।

जिस मार्ग पर तीर्थों की दिशाधारा चल रही है, यदि वही चलती रही, तो लोग पिकनिक के लिए उपयुक्त स्थानों में जाना पसन्द करेंगे। जहाँ तीर्थों की गरिमा और पिकनिक की सुविधा दोनों ही न हों, वहाँ जाकर लोग करेंगे क्या? यही कारण है कि तीर्थों में जिन धार्मिक मेलों में भारी भीड़ होती थी, अब वहाँ आधी चौथाई मात्र में अन्ध-विश्वासी भर पहुँचते हैं।

यह स्थिति दयनीय है। हमें इसे उबारना चाहिए और साँस्कृतिक पुनर्जीवन की इस बेला में वह सुधार करना चाहिए, जो आवश्यक है। इस दिशा में प्रज्ञा अभियान ने कदम उठाये। जीप टोलियां इस दृष्टि से सही कदम कहा जा सकता है। प्राचीन काल में भी तीर्थयात्री टोली बनाकर जाते थे और अपने साथ का बिस्तर, भोजन बनाने का सामान आदि साथ ले जाने के लिए बैलगाड़ी रखते थे, ताकि सामान के अतिरिक्त किसी अस्वस्थ साथ को भी बिठाया जा सके। आज की परिस्थितियों में पुरानी जीप गाड़ी बैलगाड़ी से सस्ती पड़ती है। दो बैल दिनभर में जितना चारा खाते हैं, प्रायः उतना ही जीप में तेल जलता है। फिर इन दिनों जो सामान ले जाया जा रहा है उसमें संगीत साधन, लाउडस्पीकर, बिस्तर, जनरेटर, स्टेज आदि वस्तुएँ उससे कहीं अधिक भारी हो जाती हैं, जितने कि बैलगाड़ी सफर करती है। फिर उसमें कार्यकर्त्ताओं के बैठ जाने की सुविधा भी होती है और ज्यादा दूरी तक भी द्रुतगति से जाया जा सकता है। ऐसे-ऐसे अनेक कारणों का पर्यवेक्षण करने के उपरान्त पुरानी मोटरें ही मरम्मत कराने के उपरान्त काम में लाये जाने की बात अधिक सुविधाजनक पायी गई है। अस्तु समग्र योजना को पूरी करने के लिए जीपों एवं कारों की संख्या बढ़ा देने का ही निश्चय किया गया है।

इनमें जाने वाले यात्री मात्र धर्म प्रचारक होंगे। उन्हें दुहरा पुण्य मिलेगा। एक तो वक्ता, गायन बनने का अवसर मिलेगा एवं मोटरों के सम्बन्ध में इतना ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे कि थोड़े और अभ्यास कर लेने के उपरान्त वे ड्राइवर बन सकें। दूसरे वे सच्ची तीर्थयात्रा का पुण्यफल अर्जित करेंगे, जो अनेकों अनुष्ठानों से बढ़कर है।

इन तीर्थयात्रियों को तीन महीने के लिए बाहर भेजा जायेगा। एक महीना ट्रेनिंग दी जायेगी। इस प्रकार घर से बाहर चार महीने ही रहना पड़ेगा। इस अवधि में वे प्रायः 100 सभाओं में उद्बोधन कर सकेंगे। रास्ते में पड़ने वाली प्रायः 100 सरिताओं का स्नान एवं मार्जन कर सकेंगे। टूटे-फूटे मन्दिरों की सफाई करने के अतिरिक्त उनके जीर्णोद्धार की योजना का श्रमदान भी कर सकेंगे।

जिन स्थानों पर प्रज्ञा आयोजन होंगे, वहाँ ‘प्रज्ञा प्रशिक्षण’ पाठशाला की स्थापना का उद्घाटन भी करना होगा। एक सम्मेलन पीछे एक समय का यज्ञ भी होगा। इस प्रकार उन्हें 100 यज्ञों के संचालन का अवसर भी मिलेगा।

जीपें जिस रास्ते से जायेंगी वहाँ दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने का भी अवसर मिलेगा। नये क्षेत्रों की स्थिति और संस्कृति को देखने-समझने का अवसर मिलने से इसे ‘देश-दर्शन’ के रूप में भी समझा जा सकेगा। जिसे हम मातृभूमि, “स्वर्गादपि गरीयसी” कहते हैं, उसका वास्तविक स्वरूप देखने का अवसर मिले तो इसे क्या कम महत्व का काम समझा जा सकता है। कवीन्द्र-रवीन्द्र ने बैलगाड़ी में देश की यात्रा की थी। गान्धी जी ने आन्दोलन शुरू करने से पूर्व मातृभूमि का प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक समझा था। यह प्रयास प्रतिमा दर्शन की अपेक्षा कहीं अधिक सार्थक है।

इसके लिए प्रतिभावान प्रज्ञा परिजनों को ही चुना जायेगा। बूढ़े, बीमार , अशक्त, अशिक्षित उपरोक्त कामों में से एक भी नहीं कर सकेंगे। इसलिए उन अर्धमृतकों को गाड़ी में लाद ले जाने जैसा कोई इरादा नहीं है। उपरोक्त कार्यों के स्वरूप और श्रम का लेखा-जोखा लिया जाये तो वह इतना भारी हो जाता है कि एक हट्टा-कट्टा मजूर ही उन सब कामों को करने में समर्थ हो सकता है। फिर संगीत प्रवचन और मशीनों की टूट-फूट को सम्भालते चलने लायक गिरह की अक्ल भी चाहिए।

इसलिए इन पंक्तियों द्वारा इस भ्रम को निकाल दिया गया है कि सैर-सपाटा करने हेतु बुड्ढे-दुर्बल भी इस यात्रा में जायेंगे। तीर्थयात्रियों को प्रायः 12 घण्टे कड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। इस अवधि में भोजन व्यय को जेब से नहीं खर्च करना पड़ेगा, पर प्रतिभा में दस गुनी वृद्धि हो जाने के अतिरिक्त परोक्ष लाभ वास्तविक तीर्थ यात्रा का ही मिल सकेगा। इसे एक योगाभ्यास, तप-साधन एवं पुण्य-परमार्थ स्तर का ही समझा जा सकता है। जिन्हें अपने समय के बदले इतना ही पर्याप्त लगता हो, उन्हीं के लिए यह आमन्त्रण लिखा जा रहा है। गाड़ी में जगह भी उतनी ही है कि उसमें 4-5 कार्यकर्ता मुश्किल से बैठ सकेंगे। शेष में तो आवश्यक सामान ही भरा होगा। इसलिए किसी को भी यह नहीं सोचना चाहिए कि तीर्थयात्रा का नाम सुनकर अपनी दादी-नानी को भी साथ चलने के लिए कह दें। उन्हें तत्काल बैरंग वापस लौटना पड़ेगा। यह तीर्थ यात्रा बलिष्ठ, शिक्षित, कर्मठ और संगीत आदि में थोड़ी गति रखने वालों के काम की है।

रास्ते भर तो दीवार लिखने टूटे-फूटे मन्दिरों को साफ करने का काम तो है ही, रात को भी संगीत प्रवचन आदि के काम में जुटे रहने के कारण रात को भी देर से ही सोने को मिलेगा। जहाँ-तहाँ, जैसा-तैसा भोजन मिलने पर भी जो सन्तोष कर सके और पचा सके, ऐसे ही लोगों को इस उपक्रम में लिया गया है।

जन-जन को जो सन्देश सुनाना है, उसमें नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति का कार्य शेष पड़ा है। स्वराज्य मिल जाने से अभी केवल राजनैतिक स्वतन्त्रता उपलब्ध हुई है। हमारे दैनिक जीवन में जो नैतिकता की दृष्टि होनी चाहिए, मान्यताओं को विवेचन की कसौटी पर जिस तरह कसा जाना चाहिए समाज में जैसा न्यायपूर्ण प्रचलन होना चाहिए वह अभी नहीं बन पाया है। जब तक यह सब सम्भव न हो तब तक समझना चाहिए कि अपूर्णता का एक बड़ा भाग बाकी है। संघर्ष की लड़ाई पिछली पीढ़ी ने लड़ी है। सृजन के लिए प्राणपण से संघर्ष हमें करना है। सरकारी उत्तरदायित्व यों गरीबी भगाने का है, पर वह कार्य भी जन सहयोग के बिना सम्भव नहीं। कठोर श्रम, और अपव्यय की रोकथाम के बिना न आर्थिक समस्याएँ हल हो सकती है और न गरीबी भगाओ का उद्देश्य पूरा हो सकेगा। एक क्रान्ति और भी बाकी है वह है स्वच्छता क्रान्ति। शरीर, वस्त्र, घर, गाँव और मन की सफाई का आन्दोलन भी ऐसा है जिसके बिना हम न अपने को सभ्य कह सकते हैं, न सुसंस्कृत।

गाँव-गाँव प्रज्ञा अभियान के जो छोटे-बड़े आन्दोलन चल रहे होंगे वे और भी द्रुतगति से चलेंगे। उनके साथ उपरोक्त पाँचों क्रान्तियों की पृष्ठभूमि बनानी है। विशेषतया कुछ स्थापनाएँ ऐसी हैं, जिन्हें भले ही छोटे रूप में किया जाये पर आरम्भ इन्हीं दिनों करना है।

सरकारी शिक्षा तन्त्र अधूरा है। उनके द्वारा बच्चों की शिक्षा का क्रम पूरा नहीं हो पा रहा है फिर 70 प्रतिशत अशिक्षितों को साक्षर किस प्रकार बना पायेंगे। बच्चे तो बड़े होने पर अपने दायित्व संभालेंगे किन्तु आज की समस्याएँ तो प्रौढ़ों को ही सुलझानी हैं। स्पष्ट है कि गरी


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