ज्ञान से मनुष्य की उत्कृष्टता निखरती है और विज्ञान क्षमता एवं प्रतिभा का परिचय देता है। यह युग विज्ञान का है। बुद्धिवाद का भी। बुद्धिवाद इस श्रेणी का, जिसमें स्वार्थ के लिए परमार्थ की पूरी तरह उपेक्षा की जाये। आधुनिक दर्शन का विकास एवं विस्तार को हुआ है, पर उसका लक्ष्य और स्तर बुरी तरह गिर गया है।
यही बात विज्ञान के सम्बन्ध में भी है। इन दिनों वैज्ञानिकों की बिरादरी एक ही खोज में लगी है कि अधिक से अधिक लोगों का विनाश सरलतापूर्वक करने के साधन किस प्रकार जुटाये जायं। इन दिनों विभिन्न देशों के मूर्धन्य वैज्ञानिक हजारों की संख्या में इसी प्रयोजन के लिए दिन रात अथक श्रम कर रहे हैं। बदले में उन्हें ऊंची तनख्वाहें तथा सुविधाएँ मिल रही हैं। इससे अधिक उन्हें चाहिए ही क्या?
दो महायुद्ध बीत चुके। तीसरे की जोर-शोर से तैयारी है। आधुनिक विज्ञान इसी प्रयास में लगा है कि जिस प्रकार दो युद्धों में करोड़ों व्यक्ति मारे गये और विपुल संख्या में उनके परिवार बिलखते रह गये। इस बार उससे भी अधिक भयंकर विनाश लीला रचकर दिखाई जाये। सो हर देश सोचने लगा है कि उसके पास ऐसे वैज्ञानिक उपकरण हों कि वह समस्त संसार को पैरों तले रौंदकर स्वयं ही अधिपति बन सके। ऐसे ही आयुध उपकरण निरंतर बन भी रहे हैं।
एक समय था जब वैज्ञानिकों का ध्यान जन सुविधा की ओर था। वे अपना कर्त्तव्य धर्म यह समझते थे कि संसार में सुविधा और उन्नति के साधन विकसित किये जायें। उस मनःस्थिति में कुछ ही समय के भीतर उतनी मशीनें आविष्कृत हुईं जिनकी प्रशंसा तब भी हुई थी, अब भी हो रही है और भविष्य में भी आधुनिक सुविधाओं के विकास के बावजूद होती रहेगी।
घरेलू उपयोग की वस्तुओं में सेफ्टी रेजर, थर्मस, धुलाई की मशीन, रेफ्रिजरेटर तथा स्टेन लैस स्टील के बर्तन इसी बीच बनने लगे थे। वातानुकूलित कमरे, इलेक्ट्रिक सैल, नकली रेशम, बिजली के बल्ब, प्लास्टिक का सामान, बेल्डिंग, पनडुब्बी के जैसे आविष्कार भी इन्हीं दस वर्षों में हुए।
सन् 1910 से 1930 के बीच उपरोक्त आविष्कारों में इतना अधिक सुधार और विकास हुआ कि वे कुछ व्यक्तियों तक सीमित न रहकर सर्वसाधारण के काम आने लगे। ग्रामोफोन और उनके रिकार्ड बनने लगे। सिनेमा घर हर बड़े नगर कस्बे में स्थापित होने लगे। पैट्रोल का स्थान डीजल लेने लगा।
अब ऐसे आविष्कारों की आवश्यकता नहीं रही, सो बात नहीं है। बढ़ती हुई जनसंख्या ने मनुष्य की अगणित आवश्यकताएँ बढ़ा दी हैं। गरीबी और बेकारी निरन्तर बढ़ रही है। इसे दूर करने के लिए छोटे-छोटे ऐसे यन्त्र बनाने की अत्यधिक आवश्यकता है जो छोटे गाँवों में भी लगाये जा सकें और बढ़ी हुआ आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। किन्तु यह बन पड़ना तभी सम्भव है जब हमारे मूर्धन्य राजनैतिक व वैज्ञानिक जन साधारण की आवश्यकताओं पर ध्यान दे सकें। प्रतिभा का, मति का, सही उपयोग हो सके, आज तो सबके सिर पर क्षमताओं को कुण्ठित करने वाला महाविनाश का दैत्य ही अपना आधिपत्य जमाये हुए है। नीतिमत्ता को बुद्धिमत्ता पर अपना अंकुश अगले दिनों जमाना ही होगा। उसी में मानव के धरती पर अवतरण की सार्थकता है।