कर्ण की बलिष्ठता महाभारत की समस्त सेनापतियों से अधिक थी। उसने दुर्योधन से कहा उसे शल्य सारथी मिले तो निश्चय पूर्वक जीतकर दिखाये। दुर्योधन ने वैसी ही व्यवस्था कर दी।
पासा उलटते देखकर कृष्ण ने शल्य को अपने पक्ष में मिला लिया और ऐसा अनुबन्ध किया कि शल्य, समय-समय पर कर्ण का मनोबल तोड़ता रहेगा और पराजय एवं संकट की सम्भावना व्यक्त करता रहेगा। उसने वैसा ही किया। जब भी अवसर आया, कुछ बात कहकर मनोबल गिराया। इस पर अवरोध ने कर्ण की आधी शक्ति समाप्त कर दी और उन्हें पराजित होना पड़ा।
एक तत्त्वज्ञानी परब्रह्म की गतिविधियों को जानने के लिए निरन्तर खोज-बीन में लगे रहते।
एक दिन वे समुद्र तट पर गये और उदास बैठे बच्चे की परेशानी पूछी। बच्चा बोला इस कटोरी में समूचा समुद्र भरना चाहता हूँ पर कोई उपाय नहीं सूझा। ब्रह्मज्ञानी ने बच्चे को समझाया कि ऐसा नहीं हो सकता। बालक तो लौट गया पर ब्रह्मज्ञानी को परोक्ष रूप से यह शिक्षा दे गया कि अनन्त का तुच्छ बुद्धि से निर्णय करने की अपेक्षा अपने कर्त्तव्य भर को सोचे और उसी में संलग्न रहें।
भगवान ने नारद को भूलोक निवासियों के समाचार लाने भेजा।
नारद कुछ समुदायों से मिले। कुशल समाचार पूछे। पाया कि सभी दुःखी, असन्तुष्ट थे, और भगवान से सहायता चाहते थे।
दरिद्रों ने कहा- हम अभावों से पीड़ित हैं। भगवान से धन दिलाइए।
धनियों ने कहा- ईर्ष्यालु और चोर पीछे पड़े हैं इनसे रक्षा कराइए।
साधुओं से पूछा- साधना की कठिनाइयों से बचाइए। जल्दी से सिद्धियाँ दिलाइए।
आगे बढ़ने की इच्छा हुई। देखा सभी दुःखी हैं और सभी भगवान से याचना करते हैं। कुछ को देखकर- सबका अनुमान लगाने में नारद जैसे तत्वदर्शी को क्या कठिनाई पड़ती।
भगवान ने समाचार सुने। और नारद को दुबारा भेजा। कहना-भगवान पुरुषार्थ के बदले ही वरदान देते हैं। दुःखी लोग, अपने कर्तव्य में प्राणपण से जुटें। इससे कम में भगवान से किसी सहायता की आशा न रखें।
नारद फिर लौटे। सभी से दुबारा मिले। दरिद्रों से कहा- अब लोग अधिक श्रम करें और व्यवस्था अपनायें। धनियों से कहा- जमा न करें, विलास में न खर्चें जो कमायें परमार्थ में लगायें। साधुओं से कहा- सेवा धर्म अपनायें, निस्पृह बनें। इसी प्रकार अन्य वर्गों ने ईश्वरीय सन्देश सुना। पुरुषार्थ और सद्गुणी बने। भगवान के अनुग्रह की किसी को कमी न रही।