पुरातत्व विभाग ने ऐसी अनेकों प्रतिमाएं शोध उत्खनन में प्राप्त की हैं जो ताण्डव नृत्य की तरह अर्ध नारी नटेश्वर के रूप में भी हैं। लगता है सर्वप्रथम शिव प्रतिमा पवित्र नदियों में पाये जाने वाले लिंग स्तर के पाषाणों से ही बनी थीं। वैष्णव सम्प्रदाय में जिन पाषाण खण्डों में चौड़ाई अधिक देखी उन्हें शालिग्राम बना दिया। जिनमें लम्बाई का अनुपात ज्यादा था, उन्हें शिवलिंग की तरह प्रयोग किया गया।
मूर्ति कला का जब से विकास हुआ तब से काल की दृष्टि से शिव अधिक पुरातन हैं और विष्णु उसके उपरान्त के। विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमाएं बनीं। लक्ष्मी उनके साथ हैं। आयुध और वाहनों को देखते हुए विष्णु को भौतिक स्मृति का प्रतीक माना है और शिव को योग का, तप का प्रतीक। इन्हीं दोनों के मिलन को अध्यात्म कहते हैं। शिव का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत इसी दिशा में है।
अध्यात्म का उद्गम मृत्यु चिन्तन से आरम्भ होता है। जिन्हें अपना जीवन लाखों करोड़ों वर्ष जितना लगता है, उन्हीं को वासना, तृष्णा और अहन्ता दबोचती है। वे ही हर्ष से इतराते और लिप्साओं के साथ गुड़ के साथ चींटे की तरह चिपकते हैं। पीछे भले ही उन्हें सिकन्दर की तरह पछताना और दौलत साथ जाने का कोई संयोग न बनते देखकर मृत शरीर के हाथ ताबूत से बाहर निकालने पड़ें।
शिव तांडव में प्रलय काल का पूर्वाभास है। उनका निवास मरघट में, विष कण्ठ में, सर्प भुजाओं में लिपटे रहने से मृत्यु की प्रधानता ही दर्शाई गई है। गले में मुण्ड माला, कटि प्रदेश में व्याघ्र चर्म हाथ में त्रिशूल, भस्म लेप यह सारा सरंजाम ज्ञानवान को एक ही बोध कराता है कि मृत्यु को कच्चे धागे से बंधी हुई, शिर पर लटकती तलवार समझा जाय और मरण की पूर्व तैयारी करके इतना निश्चित रहा जाये कि शरीर बदलते ओर परिकर का परित्याग करते समय कुछ भी अप्रत्याशित न लगे। ब्रह्मा सृजन के, विष्णु पालन के देवता हैं पर शिव तो परिवर्तन-मरण की ही व्यवस्था करते रहते हैं। इस तथ्य को जो ध्यान में रख सकेगा, वह भगवान की सर्वोत्तम अनुकम्पा के रूप में मिली काया का दुरुपयोग न करेगा। एक-एक साँस को हीरे-मोतियों से बढ़कर समझते हुए उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करेगा।
महान जीवन की सम्भावनाओं का परित्याग करके मनुष्य क्यों हेय जीवन जीता है, इसकी गहराई में उतरने पर प्रतीत होता है कि समस्त भव बंधनों की जड़ कामुकता है। उसके साथ जुड़ी हुई सरसता के प्रति मनुष्य इतना अधिक आसक्त हो जाता है कि फिर आगे-पीछे का कोई विवेक उसके हाथ नहीं रहता। यौनाचार के साथ प्रजनन जुड़ा हुआ है और वह इतना बोझिल तथा इतना जटिल है कि उन्हें सुलझाते सम्भालते मनुष्य का कचूमर निकल जाता है और ऐसा कुछ करने धरने के लिए मन एवं अवकाश नहीं रहता जिसे महान कहा जा सके। पेट और प्रजनन के दो चक्की के पाटों में गेहूँ के बीच फंसे हुए घुन की तरह लोग पिसते और बिलखते रहते हैं।
इस स्थिति से कैसे उबरा जाये? क्या नारी से सर्वथा पृथक रहा जाये? बैरागी की तरह एकाकी भ्रमण किया जाये? काम दमन में अपनी शक्ति को जुटाया जाये? यह सभी काम अति कठिन हैं और प्रकृति व्यवस्था के प्रतिकूल भी।
इस गुन्थी का समाधान करता है शिव का अर्धनारी नटेश्वर रूप। इस प्रकार की पुरातन प्रतिमाओं में आधा अंग नारी का और आधा नर का दिखाया गया है। इस कल्पना में कितने ही भाव छिपे हुए हैं।
एक यह कि नारी और नर एक ही मनुष्य जाति के दो अविच्छिन्न अंग हैं। उनके अधिकार और कर्त्तव्य समान हैं। दोनों को एक संयुक्त इकाई माना जाये। जिस प्रकार हाथ पैर आदि अंग अवयव मिलकर एक होते हैं उसी प्रकार नर और नारी की सत्ता पृथक-पृथक होते हुए भी उन्हें सम्मिलित इकाई माना जाये। उन्हें वैयक्तिक, सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से एक करके माना जाय। किसी को किसी से छोटा बड़ा न माना जाय, दोनों हिल-मिलकर एक रहें। इस प्रकार रहें जिसमें किसी को किसी से न्यूनाधिक न माना जाये। किसी को वरिष्ठ कनिष्ठ न माना जाये। गाड़ी के दो पहिए जिस प्रकार समान होते हैं, उसी प्रकार दोनों के बीच घनिष्ठता, एवं कर्त्तव्य उत्तरदायित्व की भावना में कहीं कोई न्यूनाधिकता न रहने पाये।
दूसरा भाव आत्मीयता का है। एक परिवार के सदस्य एक इकाई बनकर रहते हैं। सब के बीच आत्मीयता इस सीमा की रहती है कि परायेपन में जो कामुकता उत्पन्न होती है वह घर में प्रवेश नहीं कर पाती। सगी बहिन, सगी बेटी, सगी माता के प्रति कामुकता का उद्रेक नहीं होता, उसी प्रकार धर्मपत्नी के प्रति भी अपनापन रहे। दो पुरुष मित्रों या नारी मित्रों से साथ-साथ रहने पर कामुकता की कुदृष्टि नहीं उभरती उसी प्रकार निजी धर्मपत्नी को अपने शरीर का ही एक अंग मानकर उसके प्रति भावनाएं ऐसी ही उठें जैसे अपने निज के शरीर को देखकर उठती हैं। मल-मूत्र त्याग के समय अपनी जननेन्द्रिय पर दृष्टि पड़ती है। पर इतने भर से कोई उद्रेक नहीं उठता। फिर पत्नी को अपना ही अंश मानकर उसे स्वस्थ सुविकसित करने का ही भाव मन में क्यों रहे? उसका शरीर गलने और अपनी जिम्मेदारियाँ बढ़ाने के लिए मन क्यों ललके?
सामुदायिक रूप से भी ऐसी ही मान्यता रखी जा सकती है। एक ही सड़क पर- एक ही रेल में अनेक नर नारी साथ-साथ चलते हैं। सभी आपस में हंसते-हंसते बात करते जाते हैं। पर उस समुदाय में कुदृष्टि से देखने का मन किसी का भी नहीं होता। ऐसी ही मनोदशा नर-नारी के बीच में भी रखी जाये, दोनों एक दूसरे का अपने ही वर्ग के समझें और भेद बुद्धि न करें यह पूर्णतया सम्भव है।
नर और नारी एक दूसरे की अपूर्णता दूर करते हैं। मिलकर मनुष्य जीवन के अनेक पक्षों को पूरा करते हैं। उसकी इस योग्यता का सदुपयोग इसलिए नहीं हो पाता कि काम कौतुक के वशीभूत होकर एक नया जाल-जंजाल बुन लेते हैं। अतएव नारी को घर की चहारदीवारी में बच्चों की देखभाल के लिए आजीवन कैद रहना पड़ता है। न वह अपनी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक प्रगति कर पाती है और न ही देश, धर्म, समाज-संस्कृति के लिए कुछ कहने लायक काम कर पाती है। नारी के लिए बच्चे बन्धन होते जाती हैं और नर के लिए बच्चे ही नहीं, नारी भी बन्धन हो जाती है। वह चाहे कि कुछ युग धर्म का निर्वाह करने के लिए- समाज को ऊंचा उठाने के लिए कुछ कहने लायक काम कर सकें तो इसके लिए उसके पास न समय बचता है न मन, न साधन। ऐसी दशा में कामुक विवाह बन्धन रूप ही सिद्ध होते हैं और एक दूसरे की कोई कहने लायक सेवा सहायता नहीं कर पाते।
अर्ध नारी नटेश्वर की शिव प्रतिमा व्यक्ति और समाज को यही उच्चस्तरीय शिक्षण देती है कि काम-क्रीड़ा की अपेक्षा आत्मीयता विकसित करें और एक-दूसरे की सत्ता के सम्मिश्रण से एक विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करें।
वानप्रस्थ लेने की बात सोचते तो कई हैं। तीर्थयात्रा तो दूर, इस दिशा में योजना बनाकर कदम उठा लेना एक बड़ी बात है। दो मित्र एक आम के बगीचे के पास से गुजरे। पके हुए सुन्दर आम देखकर उनका जी ललचाने लगा। माली उधर से निकला तो उसने बताया कि मालिक के आदेशानुसार तुम शाम तक जितने आम चाहो खा सकते हो। रात में यहाँ कोई नहीं ठहर सकता। दोनों प्रसन्नता पूर्वक बाग में घुस गये। एक पेड़ पर चढ़ गया और शाम वक खूब पेट भर आम खाये। दूसरा केवल मीठों की ही खोज करने में लगा रहा और शाम हो गई। दोनों बाहर निकल गये। एक का पेट भरा हुआ था दूसरे का खाली। योजना बनाते रहने की अपेक्षा काम में जुट पड़ना अच्छा।