शक्तिपात आध्यात्मिक भी साँसारिक भी

February 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य शरीर में अनेक रसायन ही नहीं, उसमें जैव-विद्युत का भी एक बड़ा भाग है। मशीनें लोहे से बनी होती हैं पर वे अपने आप नहीं चलती। उन्हें चलाने के लिए अतिरिक्त शक्ति चाहिए। बड़े कारखानों में बड़ी मोटरें लगी होती हैं और उन्हीं की शक्ति से सभी यन्त्र चलते हैं। बिजली फेल हो जाये तो समूचे कारखाने की गतिविधियाँ ठप्प हो जाती हैं।

मनुष्य शरीर की बिजली ही उसकी गतिविधियों का मुख्यतया सूत्र संचालन करती है। भोजन से उत्पन्न रस रक्त तो कल पुर्जों में चिकनाई भरता रहता है ताकि वे घिसने लड़खड़ाने न पायें।

मनुष्य का आकार उसकी विशिष्टता का आधार नहीं है। स्थूलता के आधार पर किसी को बलिष्ठ नहीं कह सकते। प्राण ऊर्जा ही जीवनी शक्ति के रूप में काम करती है और वही शरीर में बलिष्ठता, चेहरे पर सुन्दरता एवं मस्तिष्क में प्रतिभा बनकर प्रकट होती है।

अध्यात्म क्षेत्र में इस बिजली घर को कुण्डलिनी कहते हैं। उसका प्रभाव मनुष्य की इच्छा शक्ति एवं संकल्प शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। महत्वपूर्ण साहस एवं पराक्रम भी उसी के आधार पर बन पड़ता है। पतन पराभव के लिए तो व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई जन्म-जन्मान्तरों की संग्रहित पशुता ही पर्याप्त है। किन्तु आदर्शों की दिशा में बढ़ते और महानता के अनुरूप उठने के लिए जिस विशिष्ट बल की आवश्यकता होती है उसी का मनोबल या आत्मबल कहा जाता है। इसी को परिपक्व करने के लिए कई आध्यात्मिक साधनाएं करनी पड़ती हैं।

इस अभ्युदय का एक और भी तरीका है। प्रतिभाशील व्यक्तित्वों का सान्निध्य- संपर्क एवं तद्नुरूप वातावरण में निवास उस क्षेत्र की गतिविधियों में रस लेना, योगदान देना और अभ्यास करना। यह भी व्यावहारिक स्तर का कुण्डलिनी जागरण है।

विद्युत शक्ति अपने केंद्र में समाहित तो रहती है पर उसके अनुकूल पदार्थ या प्राणी सम्पर्क में आते हैं तो उनमें भी दौड़ने लगती है। नल में बिजली का तार बाँध दिया जाय या कहीं शार्ट सर्किट हो रहा हो तो उससे पानी तक में करेंट आ जाता है और झटका मारता है। एक व्यक्ति को बिजली पकड़ ले और उसे दूसरा छुड़ाने लगे तो पकड़ में वह भी आ जायेगा। दूसरे को तीसरा पकड़े तो उसकी भी यही दशा होगी।

अध्यात्म क्षेत्र में भी ऐसे ही प्रयोग होते रहते हैं। हर व्यक्ति जनरेटर नहीं बना सकता। कठोर साधनाएं लम्बे समय तक करते रहने पर ऋषि कल्प लोग ही प्रचुर परिमाण में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचय कर पाते हैं। पर उनके सम्पर्क में आने वाले उस प्रभाव से एक सीमित मात्रा में पात्रता के अनुरूप अनायास ही लाभ उठा लेते हैं।

सत्संग और कुसंग की परिणति की हर कहीं चर्चा होती रहती है। कुसंग में फेर में पड़कर मनुष्य अपना चरित्र, यश और भविष्य गंवा बैठते हैं। पर सत्संग का परिणाम वैसा ही होता है जैसे कि इत्र के कारखाने में काम करने वाले कर्मचारियों के कपड़े अनायास ही महकने लगते हैं। राजा के, पी.एम. के चपरासी तक की शान और इज्जत होती है।

प्रतिभावानों में इस प्राण ऊर्जा की अधिकता होती है। वह सम्पर्क में रहने वालों के व्यक्तित्व को अनायास ही प्रभावित करते रहते हैं। जिस मिट्टी के ढेले पर सुगंधित फूल टूटकर गिरते रहते हैं, वह ढेला भी सुगंधित हो जाता है। चंदन वृक्ष के निकट उगे हुए झाड़ झंखाड़ भी सुगंधित होने लगते हैं। कोयले की खदान में काम करने वाले मजदूरों के कपड़े और हाथ पाँव सभी काले हो जाते हैं।

आत्मिक ऊर्जा का उपार्जन तो होता ही है। उसे योगी तपस्वी करते भी हैं। परंतु इस कमाई का लाभ उनके निकटवर्ती लोगों को भी मिलता रहता है। आम के बगीचे की रखवाली करने वाले मजदूरों को भी वे चखने के लिए मिलते रहते हैं।

उपार्जन की तरह अनुग्रह का भी महत्त्व है। एक व्यक्ति धन कमाता है तो उसके कुटुम्बी, संबंधी, सेवक, मित्र भी किसी न किसी प्रकार उसका लाभ उठाते हैं। तपस्वी अपने विश्वस्तों को अपने उपार्जन से लाभान्वित करते रहते हैं।

रामकृष्ण परमहंस ने अपनी तप साधना विवेकानंद में भर दी थी। समर्थ और शिवाजी के बीच में ऐसा ही हस्तांतरण हुआ था। ऐसे और भी अनेकों प्रमाण हैं।

दैनिक जीवन में भी ऐसा ही होता है। पति-पत्नी के बीच घनिष्ठता हो तो बलिष्ठ पक्ष की क्षमता दुर्बल पक्ष की ओर दौड़ने लगती है और उसका प्रतिफल भी असाधारण रूप में देखने को मिलता है। लक्ष्मी बाई रानी ने छोटी ही आयु में अपने पराक्रमी पीत का सारा कौशल हस्तगत कर लिया था। पार्वती राजा हिमाचल की पुत्री थी पर वे शिव के साथ विवाहे जाने पर शक्ति रूप में परिणत हो गईं। कस्तूरबा गाँधी को भी अपने पति की विशिष्टता के कारण ही इतना मान गौरव मिला था। पार्वती को गणेश और कार्तिकेय जैसे देवपुत्र शिवजी के अनुग्रह से ही प्राप्त हुए। साधारण राजाओं की लड़कियां तो साधारण राजकुमारों को ही जन्म देती हैं।

अध्यात्म क्षेत्र में समर्थ गुरू अपने साधारण शिष्यों को अपने जैसा महान महत्त्वपूर्ण बना लेते हैं। लोमस ऋषि के पुत्र या शिष्य शृंगी ऋषि बचपन से ही अपने पिता के समतुल्य बन गये थे।

ऐसे प्रसंगों में आंतरिक घनिष्ठता ही प्रधान कारण होती है। वह गहरी और गम्भीर न हो तो बात नहीं बनती। उथली चापलूसी या दिखावटी सेवा पूजा इस क्षेत्र में काम नहीं आती। वास्तविकता और बनावट अनायास ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर देती है। बनावट असफल ही रहती है ‘बहरूपिये’ कई तरह के मुखौटे और सज्जा साधन धारण करके कुछ से कुछ बनते रहते हैं। पर उनकी असली हैसियत किसी से छिपी नहीं रहती। अध्यात्म एक ठोस यथार्थता है उसमें गुरू शिष्य या मित्र की घनिष्ठता भी तभी आदान प्रदान का द्वार खोलती है, जब वह वास्तविक हो।

यहाँ सत्संग और कुसंग को ही एक प्रभावशाली तथ्य मान लेना चाहिए। मरते समय तो मनुष्य के साथ पाप पुण्य ही जाता है पर अपने भौतिक उपार्जन को सम्पन्न लोग अपने कुटुंबियों और संबंधियों को भी दे जाते हैं। आध्यात्मिक उपार्जन का संस्कार पक्ष तो तपस्वियों के साथ ही चला जाता है पर वे अपना सिद्धियों वाला पक्ष उन्हें भी दे जाते हैं जो उनके शरीर तक की निकटता नहीं रखते वरन् श्रद्धा– सद्भावना के आधार पर अंतराल की गहराई तक प्रवेश करके अपना स्थान बना लेते हैं।

ऋषि बनने के लिए तो मनुष्य को अपना अंतरंग और बहिरंग जीवन तपोमय बनाना पड़ता है। चेतना को व्यामोह से छुड़ाकर परब्रह्म के साथ सहयोगी बनाना पड़ता है। स्वयं की साधना के बिना ऋषि तो नहीं बना जा सकता। पर उनके सान्निध्य से महानता का लाभ मिल सकता है। यदि ऐसी आकांक्षा व पवित्रता अंदर विद्यमान है। ऐसी सम्पदा वे अनुग्रह पूर्वक सुपात्रों को देते भी रहते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118