न अकेला ज्ञान पर्याप्त है न केवल तप। दोनों का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का आधार बनता है।
उच्चस्तरीय स्वार्थ का नाम ही परमार्थ है। परमार्थी को त्याग तो करना पड़ता है, पर घाटा उठाने की स्थिति नहीं आती।