धारावाहिक लेखमाला- - महाकाल की महाकाली- सावित्री

February 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री महाशक्ति का उपयोग दक्षिण मार्गी भी है और वाममार्गी भी। दक्षिण मार्ग, अर्थात् सीधा रास्ता शुभ लक्ष्य तक ले जाने वाला रास्ता। वाम मार्ग माने कठिन रास्ता- भयानक लक्ष्य तक ले पहुँचने वाला रास्ता।

चाकू के दोनों ही प्रयोग हो सकते हैं- कागज काटने, पेन्सिल बनाने, फल काटने आदि के उपयोगी कार्यों के लिए भी और किसी को चोट पहुँचाने, अंग-भंग करने- प्राण लेने के लिए भी। यह प्रयोक्ता की समझ ओर चेष्टा के ऊपर निर्भर है कि वह उसका किस प्रकार उपयोग करे।

गायत्री का दक्षिण मार्गी प्रयोग हमने सीखा और सिखाया है। वह व्यक्तित्वों का परिष्कार करती है। जन स्तर को ऊँचा उठाना एक बहुत बड़ा काम है। वह सदा सर्वदा प्रयोग करने योग्य है। उसमें लाभ-ही-लाभ है। भले ही वह समग्र विधान के अभाव में सीमित प्रतिफल प्रस्तुत करे, पर उसमें किसी प्रकार की हानि की- प्रतिकूल परिणति की आशंका नहीं है। माचिस का प्रयोग भी चाकू जैसा ही है। उससे आग जलाकर शीत से बचने, भोजन पकाने, शतपुटी आयुर्वेदीय रसायनें- रस भस्में बनाने जैसे उपयोगी कार्य भी हो सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि उसी माचिस से घर में आग लगाकर समूचे गाँव को भस्म कर दिया जाये। आग लगाकर आत्महत्या भी की जा सकती है और किसी दूसरे का प्राण हरण भी हो सकता है।

गायत्री के तान्त्रिक प्रयोग भी हैं। देवी भागवत में गायत्री तन्त्र का एक स्वतन्त्र प्रकरण भी है। विश्वामित्र कल्प में उसके विशेष विधानों का वर्णन है। लंकेश तंत्र में भी उसकी विधियाँ हैं, पर हैं वे सभी संकेत मात्र! तान्त्रिक प्रयोगों को गोपनीय इसलिए रखा जाता है कि उसे कुपात्र की जानकारी में पहुँचा देने से भस्मासुर जैसे संकट बताने सिखाने वाले के लिए भी खड़े किये जा सकते हैं। द्रोणाचार्य ने जिन शिष्यों को वाण विद्या सिखाई थी, उन्होंने उसी शिक्षा के सहारे शिक्षक का ही कचूमर निकाल दिया। इसलिए उसके प्रयोगों को, विधानों को गुरु परम्परा में ही आगे बढ़ाया जाता है, ताकि पात्रता की परख करने के उपरान्त ही शिक्षण का प्रयोग आगे बढ़े।

रावण वेदों का विद्वान था। उसने चारों वेदों के भाष्य भी किये थे, जिनमें से कोई-कोई भाग अभी भी मिलते हैं, पर उसने वेदमाता गायत्री का वाम मार्ग अपना कर उसे अनर्थकारी प्रयोजनों में ही लगाया, स्वार्थ ही साधे, सोने की लंका बनाई, पारिवारियों को अपने जैसा ही दुष्ट बनाया, देवताओं को सताया, मारीच को वेश बदलने की विद्या सिखाकर सीता हरण का षड्यन्त्र बनाया। इन तात्कालिक सफलताओं का लाभ लेते हुए भी अन्ततः अपना सर्वनाश किया और अनेकों ऋषि-मुनियों को त्रास देने में कोई कमी न रखी। यही है तन्त्र मार्ग- वाममार्ग। यह मनुष्य की अपनी इच्छा है कि शक्तियों को सत्प्रयोजनों में लगाये या अनर्थ के लिए प्रयुक्त करे।

तन्त्र मार्ग एक प्रकार की भौतिकी है। उसकी परिधि भी सीमित है और प्रयोग भी कुछ दुर्बल स्तर के लोगों पर ही हो सकता है। बहेलिये लोमड़ी, खरगोश, कबूतर जैसे प्राणियों पर ही घात लगाते हैं। उनकी हिम्मत शेर, बाघ, चीते, घड़ियाल जैसे जानवर पकड़ने की नहीं होती। उनकी खाल की कीमत भी बहुत मिल सकती है, पर साथ में जान जोखिम का खतरा भी है। इसलिए प्रहार दुर्बलों पर ही होते हैं। जाल में वे ही फँसते हैं।

तान्त्रिक प्रयोग भी मनस्वी लोगों पर नहीं चलते। उनकी तेजस्विता से टकराकर वापस लौट आते हैं। ऐसा न होता तो हिटलर, मुसोलिनी जैसे खलनायकों को तो किसी तान्त्रिक ने ही मार दिया होता। पुरातन काल में तंत्र प्रचलित था। पर वह वृत्रासुर, महिषासुर, हिरण्यकश्यपु जैसों पर नहीं चला। हीन मनोभूमि के लोग उसे गुलेल की तरह दुर्बल प्राणियों को आहत करने में ही प्रयुक्त करते हैं। हिप्नोटिज्म में भी दुर्बल मन वाले लोग से प्रभावित होते हैं।

तन्त्र के अनेक माध्यम हैं। उन्हीं में एक गायत्री तन्त्र भी है। उसकी साधना किसी व्यक्ति विशेष को ही हानि पहुँचा सकती है। व्यापक क्षेत्र में उसका प्रयोग नहीं हो सकता। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि प्रयोगों के तन्त्र विधान हैं। इनमें किसी व्यक्ति विशेष को कठिनाइयों में फँसाया जा सकता है, प्रतिशोध लिया जा सकता है, पर ऐसा कुछ नहीं है जिसमें किसी को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने या संकट से उबारने का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा हो सके।

गायत्री त्रिपदा है। दक्षिण मार्ग में उसका सही स्वरूप प्रयुक्त होता है। ब्राह्मी, वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के रूप में उसका तत्वज्ञान हृदयंगम किया जाता है और विधान अपनाया जाता है। किन्तु जब उसका तान्त्रिक प्रयोग करना हो तो वह नाम रूप नहीं रहता। तब उसे त्रिपुरा या ‘त्रिपुर भैरवी’ कहते हैं। यह शिव के भूत-पिशाचों में सम्मिलित है। इसे ‘रौद्री’ या ‘चण्डी’ कहते हैं। यह तमोगुणी शक्तियाँ हैं और अनर्थ करने में ही समर्थ हैं। रक्तपात में ही उन्हें मजा आता है, किन्तु साथ ही यह जोखिम भी है कि वह तनिक-सी भूल हो जाने पर अपना क्रोध उलटकर प्रयोक्ता पर ही निकाल दे और उसे उन्मादी, उद्धत, अपराधी स्तर का बना दे। दूसरे को हानि पहुँचाने वाले, प्रयोग उलटा पड़ने पर स्वयं भी कम जोखिम नहीं उठाते हैं। व्यभिचारी जूतों से पिटते, हत्यारे फाँसी पर चढ़ते और उद्दण्ड घूँसे का जवाब लाठी से प्राप्त करते देखे गये हैं। इसलिए तन्त्र साधना को प्रोत्साहन नहीं दिया गया, उसे गोपनीय रखा गया है।

बन्दूक की गोली आगे को चलती है, पर चलते समय पीछे को धक्का भी मारती है। यदि चलाने वाला अनाड़ी हुआ तो अपनी हँसली की हड्डी तोड़ लेता है। ऐसे लोग निन्दा के पात्र तो बनते ही हैं, उनका कोई सच्चा मित्र नहीं बनता, क्योंकि डर लगा रहता है कि अनैतिक व्यक्ति तनिक से कारण पर मित्र से शत्रु बन सकता है, आज सहयोगी है, कल अनर्थ करने पर उतारू हो सकता है। इसलिए गायत्री उपासकों से दक्षिण मार्गी साधना करने और माता जैसा स्नेह-दुलार का रिश्ता बनाने के लिए कहा गया है।

गायत्री के तान्त्रिक प्रयोगों में ब्रह्मदण्ड, ब्रह्मास्त्र और ब्रह्मशीर्ष के प्रयोग का वर्णन आता है। दण्ड कहते हैं लाठी को या प्रताड़ना को। ब्रह्मदण्ड का प्रयोक्ता किसी को आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक क्षति पहुँचा सकता है। डंडे से पीटने की तरह या न्यायाधीश द्वारा दिये गये जेल जुर्माने की सजा की तरह। ब्रह्मास्त्र इससे बड़ा हथियार है। वह व्यर्थ नहीं जाता। उसमें सिंह से लड़ने जैसा पराक्रम और जोखिम उठाना पड़ता है। मेघनाद ने लक्ष्मण जी पर ब्रह्मास्त्र का ही प्रहार किया था। कोई दूसरा होता तो निश्चय ही जान से हाथ धो बैठता। स्वयं शेष जी के अवतार होने तथा सुखेन वैद्य और हनुमान जी द्वारा संजीवनी बूटी की व्यवस्था करने पर ही उनके प्राण बच सके।

ब्रह्मशीर्ष दुर्बुद्धि उत्पन्न करने के काम आता है। जिस पर यह प्रयोग होता है वह सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग अपनाता है, दुर्बुद्धि का आश्रय लेता है। हर आक्रमणकारी आरम्भ में सामने वाले के असावधान होने के कारण लाभ उठा लेता है पर जब लोकमत और शासन उसके विरुद्ध पड़ता है तो साँसारिक क्षति भी कम नहीं उठानी पड़ती। इसके अतिरिक्त ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था का अपना विधान है, उससे किसी का बच निकलना नितान्त असम्भव है। देर भले ही लगे पर अनाचारी अपने कुकृत्य का फल अवश्य पाते हैं। देर हो सकती है, पर इस विश्व व्यवस्था में अन्धेर नहीं है। इसलिए तन्त्र विज्ञान का गोपनीय ही रखा गया है और चाहे जिसके हाथ में थमा देने का निषेध किया गया है। रिवाल्वर को खिलौने की तरह खेलने के लिए नहीं दिया जा सकता।

विज्ञान का प्रत्येक पक्ष हर किसी के लिए खुला नहीं होता। अणु बम बनाने वाले देश उसके रहस्यों को दूसरे देशों को बताने के लिए तैयार नहीं होते। उसे नितान्त गोपनीय रखते हैं। अमेरिका स्टार वार की तैयारी वाले अस्त्र बना रहा है, पर उनकी प्रक्रिया इतनी गोपनीय रखी जा रही है कि रूस को या अन्य किसी देश को उसकी जानकारी न मिल जाये। इसलिए काम करने वाले वैज्ञानिकों की भी इतनी चौकीदारी रखी जाती है कि उनका कोई देश अपहरण न कर ले अथवा किसी रीति से उनके निर्माण की विधि जानकर उसकी वरिष्ठता छीनकर समानता की प्रतिद्वंद्विता न करने लगे।

तन्त्र ऐसा ही गोपनीय है। उसमें विपक्ष के बलिष्ठ हो जाने और अपने पक्ष की वरिष्ठता छिन जाने का खतरा तो है। एक और भी बड़ी बात है दुरुपयोग करके अपना या पराया अनर्थ न होने लगे। बारूद के गोदाम में किसी प्रकार एक चिनगारी जा पहुँचे तो विरोधी का नहीं, निर्माता एवं संग्राहक का ही अनर्थ होगा।

बच्चे अपनी ही होते हैं, पर उनसे पैसा-आभूषण आदि छिपाते हैं। भेद पूछकर कोई चोर-उचक्का उन्हें लूट सकता है। वे बच्चों के हाथ पड़े तो भी उनसे छिन जाने का या जान जाने का खतरा है। वे लोभ में तो कोई ऐसी चीज भी खरीद सकते हैं, जिनसे उनको या परिवार को भारी हानि सहन करनी पड़े। पैसा चुराकर शराब खरीदा जावे और उसे पी मरे, तो पैसा भी गया, बालक भी गया और सावधानी न बरतने के कारण अपनी भर्त्सना भी हुई।

वरदान देने की शक्ति दक्षिण मार्गी साधनाओं से जाती है और शाप देने की तान्त्रिक विधानों से। दुर्वासा के बारे में प्रसिद्ध है कि वे जरा-जरा सी बात से तुनक कर चाहे जिसको शाप दे डालते थे और पीछे पछताते थे। अम्बरीष को, शकुन्तला को शाप देकर उन निर्दोषों को कष्ट में डाला और स्वयं बदनाम हुए। तान्त्रिक साधना का विधान हो ऐसा है, जिसमें साधक नीति-अनीति का बोध खो बैठता है और अपना दर्प दिखाने के लिए जिस-तिस के छोटे कारणों से आक्रोश में भर शाप देने लगता है।

जिस प्रकार दक्षिण मार्गी साधनाओं में गायत्री महाशक्ति को धारण करके पात्रता विकसित करने के लिए अधिक-से-अधिक पवित्र और सात्विक बनना पड़ता है। उसी प्रकार तान्त्रिकों को क्रूर कर्म करने के लिए स्वयं भी क्रूर-अनाचारी बनना पड़ता है, ताकि उस प्रयोग को करते समय मन में आत्मग्लानि न उठे। आत्मा को दबाने, दबोचने और अपवित्रता, दुस्साहसिकता से भरे-पूरे ही तन्त्र साधना के प्रयोग पहले साधक को अपने ऊपर करने पड़ते हैं।

हत्यारे अक्सर उस क्रूर कर्म को करने से पूर्व डटकर मद्यपान कर लेते हैं, ताकि उस कृत्य को करते हुए आत्मा में करुणा न उपजे और हाथ न रुकें। तान्त्रिकी साधना अक्सर श्मशानों में होती है। मुर्दों की चिताओं पर भोजन पकाते-खाते हैं। कापालिक मनुष्य के कपालों में भोजन करते, पानी पीते और मुण्ड-मालाएँ गले में लटकाये रहते हैं। अघोरी मल-मूत्र तक खा जाते हैं, ताकि अनौचित्य के प्रति घृणा भाव समाप्त हो जाये।

वाम मार्ग में साधक को पंच मकारों का अभ्यास करना पड़ता है- (1) मघं (2) मासं च (3) मीनं च (4) मुद्रा (5) मैथुन एव च। यह पाँचों मकार हेय कर्म हैं। शराब, गाँजा, भाँग आदि तीव्र नशों का सेवन। माँस भक्षण और इस प्रयोजन के लिए देवता के नाम पर पशु-पक्षियों का ही नहीं, मनुष्यों तक को वध करना। मछली, मेढ़क जैसे आसानी से मिल सकने वाले प्राणियों की आये दिन हत्या करना और उन्हें भूनते-तलते रहना। मुद्रा का एक अर्थ भयंकर आकृति बना कर त्रिशूल जैसे शस्त्र लेकर नग्न नृत्य करना भी है और अनीति युक्त धन संग्रह करना भी, ताकि उसके सहारे व्यभिचार-बलात्कार आदि कुकृत्य किये जा सकें। बुद्धकाल में ऐसे वाममार्गी अनाचार शस्त्रों और देवताओं के नाम पर चल रहे थे। भगवान बुद्ध ने इस अनाचार के विरुद्ध क्रान्ति की और जिन शास्त्रों में ऐसा उल्लेख और जो देवता ऐसे क्रूर कर्म में सहायता करते हैं, उन्हें मान्यता देने से इन्कार कर दिया।

उस अनाचार को घटाने और मिटाने के लिए- अहिंसा धर्म का प्रचार करने के लिए उन्हें संगठित संघर्ष करना पड़ा। यहाँ तक कि देववाद ही नहीं, ईश्वरवाद तक का खण्डन करने, अपने को शून्यवादी तक घोषित करना पड़ा। हमने भी तन्त्रवाद से सर्वथा असहयोग रखा है। न सीखा है, न किसी को सिखाया है।

प्रकारान्तर से यह तान्त्रिक मनोवृत्ति अनायास ही लोगों के स्वभाव में बरसात के उद्भिजों की भाँति ही पनप रही है। ऐसी दशा में कहीं तान्त्रिक विधान का आश्रय भी मिल जाये, तो स्थिति दुर्गति की चरम सीमा तक जा पहुँचेगी।

यहाँ स्थिति का स्पष्टीकरण इसलिए करना पड़ा कि सावित्री की सविता की प्रचण्डता देखते हुए कोई उसकी संगति तान्त्रिक विधान या विज्ञान के साथ न जोड़ने लगे। सविता परब्रह्म का स्वरूप है और सावित्री उसकी ब्राह्मी शक्ति। वह आदि से अन्त तक सात्विकता से सराबोर है। किन्तु सार्वजनिक और विशाल-प्रचण्ड कार्यों के लिए उसका प्रयोग आवश्यक हो जाता है। इसलिए उस विज्ञान पर प्रकाश डालना पड़ा, उसे पुनर्जीवन देना पड़ा और स्वयं भी उसकी साधना में संलग्न होना पड़ा। इसे बिना हम या हमारे अनुयायी निजी व्यक्तित्व की दृष्टि से कितने ही परिष्कृत क्यों न हों निजी व्यक्तित्व में भले ही स्वर्ग मुक्ति या दूसरों की सीमित भलाई कर सकने वाली शक्ति क्यों न प्राप्त कर लें, विश्व कल्याण एवं युग परिवर्तन के लिए उससे बड़ी शक्ति चाहिए। वही है सविता महाकाल की महाकाली सावित्री।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118