शरीरगत प्रचण्ड शक्ति स्रोत- कुण्डलिनी

February 1986

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पृथ्वी पर तथा उसके इर्द-गिर्द अनेकों सूक्ष्म गतिविधियाँ इस प्रकार चलती हैं कि उन्हीं के सहारे प्राणियों के शरीर वनस्पति, जल जगत, अन्तरिक्ष, खनिज, भूगर्भ आदि क्षेत्रों की गतिविधियों का सूत्र संचालन होता है। इनमें गुरुत्वाकर्षण सर्वविदित है, क्योंकि वह ऊपर से नीचे की ओर गिरने वाली वस्तुओं को देखकर ही बालकों तक को प्रतीत हो जाती है। फिर धरती का अधर में टँगा होना दूसरों के साथ स्वयं बँधा रहना तथा अपने साथ सौर मण्डल के अन्याय ग्रह उपग्रहों को बाँधे रहना और भी बड़े रूप में यह सिद्ध करता है कि पृथ्वी कोई बहुत बड़ा चुम्बक है। जिसकी पकड़ अपने कलेवर से बाहरी भाग को भी सन्तुलित रखती है और भीतरी क्षेत्र को भी इस प्रकार गतिशील बनाये रहती है कि जड़ चेतन स्तर के सभी पदार्थों का गति क्रम सुनियोजित ढंग से चलता रहे। पदार्थ में पाये जाने वाले परमाणु परिकर और जीवधारियों के शरीर में काम करने वाले जीवाणु तक परस्पर इसी चुम्बकत्व के सहारे अपने क्रिया-कलापों को चलाते हैं, जो पृथ्वी के चुम्बकत्व के असीम भण्डार में से उन्हें थोड़ी-थोड़ी मात्रा में उपलब्ध होता है। वनस्पतियों का बढ़ना, बादलों का उठना, गरजना, कड़कना समुद्र में ज्वार-भाटे आना आदि क्रियाओं का होना इसी चुम्बकत्व से सम्बन्धित है, जिसे भूमण्डल का प्राण भी कह सकते हैं। उसी महाशक्ति ने एक स्वनिर्मित कवच को राजछत्र की तरह अपने ऊपर धारण किया हुआ है, जिनसे अन्तरिक्षीय विकिरणों से रक्षा होती है और कोई उल्का उससे टकराये तो जल-बल कर खाक हो जाती है। इसे आयनोस्फियर कहा जाता है। जिसे पृथ्वी का प्राणमय कोश भी कह सकते हैं।

यह पृथ्वी का प्राण किस-किस क्षेत्र में किस प्रकार फैला हुआ है और उसका उपयोग कैसे हो सकता है, इसी जानकारी का यत्किंचित् पता लगाने में भौतिक विज्ञान सफल रहा है। जिसे वह प्रकृति पर विजय कहता है। यद्यपि जो जाना जा सका है, उससे असंख्य गुना जानने को शेष है। नित नये आविष्कारों का जो सिलसिला चल रहा है उसे इसी शक्ति भांडागार की कुरेद बीन कह सकते हैं।

यहाँ चर्चा मात्र शरीर पिण्ड के सम्बन्ध में करनी है। उसके जीवकोश, रसायन, हारमोन, जीन्स आदि की अपनी सुविस्तृत व्यवस्था है। यहाँ उसका उल्लेख सम्भव नहीं। चर्चा मात्र मेरुदण्ड की और उसके दोनों सिरों की (पोल्स) हो रही है। यह क्षेत्र समग्र काया की तुलना में बहुत छोटा होते हुए भी इतना महत्वपूर्ण है कि उसे योगाभ्यास की अति महत्वपूर्ण धारा कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

मानवी काया यों है तो ब्रह्माण्ड की अनुकृति पर उसे छोटे रूप में समझाने के लिए एक भूमण्डल मान लेने में भी बहुत ही ज्ञातव्य बातें हस्तगत हो जायेंगी। पृथ्वी अपने उत्तरी ध्रुव से अन्तरिक्षीय भण्डार में से अपने काम की वस्तुएँ ग्रहण कर लेती है। यह उसका मुख है। मुख चाहे जो नहीं खाने लगता। जो उपयोगी होती है उन्हीं को स्वाद और स्वरूप के आधार पर पकड़ता और पेट में पहुँचाता है। उसी प्रकार अन्तरिक्ष में मंडराती रहने वाली असंख्य शक्तियों में से पृथ्वी उन्हीं को पकड़ती है और अपने लोक की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयुक्त करती है। प्रयुक्त करने के बाद जो कचरा बच जाता है उसे मलद्वार से- दक्षिण ध्रुव से निकाल बाहर करती है। पचे हुए उपयोगी अंश से ही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। मानवी शरीर भी इसी क्रिया का अनुसरण करता है। उसका उत्तरी ध्रुव मस्तिष्क है और दक्षिणी ध्रुव वह जिसे मल मूत्र स्थानों का मध्य भाग मूलाधार चक्र कहते हैं। उत्तरी ध्रुव को सहस्रार चक्र कहते हैं। इन दोनों के मध्य एक प्रचण्ड शक्ति प्रवाह बहता रहता है जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं।

पृथ्वी द्वारा खींचा गया अन्तरिक्षीय प्रवाह भूमध्य रेखा के साथ-साथ चलता है। अंतर्ग्रही शक्तियों का पृथ्वी पर प्रवाह किस प्रकार बहता है और उसकी क्षमता अन्याय क्षेत्रों में किस प्रकार काम करती है? इसकी जाँच पड़ताल करने के लिए वैज्ञानिक इसी क्षेत्र में अपने विविध अन्वेषण करते रहते हैं। संसार की महत्वपूर्ण वेधशालाएँ इसी भूमध्य रेखा पर बनाई गई हैं। इसी क्षेत्र के लम्बे पर्यवेक्षण से अनेकानेक रहस्यों का उद्घाटन हो सका है।

शरीर की भूमध्य रेखा मेरुदंड है। वह स्वयं तो अध्यात्म प्रयोगों की दृष्टि से आश्चर्यजनक है ही, उसके दोनों सिरे भी असाधारण हैं जिन्हें जादुई ही कह सकते हैं। मेरुदण्ड के शक्ति प्रवाह में तीन धाराएँ बहती हैं, जिन्हें इडा- पिंगला- और सुषुम्ना कहा जाता है। बिजली की दो धाराएँ होती है। एक को निगेटिव- दूसरी को पॉजिटिव कहते हैं। इन दोनों का जहाँ मिलन होता है वहाँ तीसरा “करेन्ट” बहने लगता है। इडा, पिंगला का जहाँ मिलन होता है वहीं से तीसरी धारा सुषुम्ना का उद्भव होता है। इसी को शास्त्रकारों ने गंगा यमुना के मिलन की सरस्वती कहा है और उस संगम को त्रिवेणी नाम दिया है। सरस्वती प्रत्यक्ष नहीं है। वह मिलन संगम पर पाताल से आकर मिलती है। इसी बात को यों भी कहा जाता है कि जिस प्रकार पीला नीला रंग मिलाने से तीसरा अलग से हरा रंग बन जाता है, ठीक उसी प्रकार इस सुषुम्ना संगम को कहा जा सकता है। यह त्रिविधि संगम ऐसा है जिसे लक्ष्मी, काली और सरस्वती के संगम की उपमा दी जा सकती है।

जब हवा बहुत तेजी से बहती है तो ‘चक्रवात’ उत्पन्न होते हैं। नदी के तीव्र प्रवाह में भी “भंवर” पड़ते हैं। चक्रवातों और भँवरों में सामान्य प्रवाह की तुलना में सैकड़ों गुनी शक्ति अधिक होती है। उनकी चपेट में जो भी आ जाता है वह नाचने लगता है। वैज्ञानिक गण इन दिनों खोज में हैं कि चक्रवातों और भँवरों की असीम शक्ति को किसी प्रकार नियन्त्रित करके उपयोगी काम में लगाया जाये।

मेरुदण्ड के बीच बहने वाली गंगा यमुना इडा पिंगला में भी ऐसे ही चक्र बनते हैं, जिन्हें षट् चक्र कहा गया है। वस्तुतः वे सात हैं। मेरुदण्ड की सीमा में तो छह ही आते हैं। पर उनका ऊपरी सिरा सहस्रार भी उससे जुड़ा हुआ है। इसलिए मेरुदण्ड की सीमा से एक कदम और आगे बढ़ा जाये तो सहस्रार का कैलाश पर्वत आ जाता है जहाँ से गंगा और यमुना दोनों का मूलभूत उद्गम माना गया है।

मेरुदण्ड संरचना का कार्य विश्लेषण करने पर उनमें उस प्रकार की रक्त वाहिनियाँ भी पाई जाती हैं और शक्ति धाराएँ भी। वैज्ञानिक इडा प्रक्रिया को- “सिम्पैथेटिक सिस्टम” और पिंगला को “पैरासिम्पैथेटिक सिस्टम” कहते हैं। इन दोनों का उद्गम जिस कैलाश से है उसे मस्तिष्क मध्य में अवस्थित “हाईपोथेलेमस” कहते हैं। इसी के दो सिरे ‘पीनियल’ और ‘पिट्यूटरी’ मस्तिष्क में ही अवस्थित रहते हैं। इन दोनों को मिलाने वाली शृंखला ही हाइपोथेलेमस है। इसे सहस्रार चक्र कहा गया है। ब्रह्मरन्ध्र भी इसी के साथ जुड़ा हुआ है, जिसकी संगति “कॉपर्स कैलोजम” के समीप से बैठती है। चक्र वेधन, सहस्रार उन्नयन एवं मूलाधार का शक्ति उद्घाटन यह तीनों ही कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया को पूर्ण कर लेने के लिए आवश्यक हैं।

कहा जा चुका है कि मूलाधार मलमूत्र छिद्रों के मध्य है। इस स्थान की शल्य क्रिया करने पर जो नाड़ी गुच्छक पाया गया है उसे ‘सेक्रलप्लेक्सस’ कहते हैं। इससे स्नायु प्रवाह माध्यम से प्रायः कामोत्तेजना उभरती रहती है और सन्तानोत्पादन के लिए शुक्राणु, डिम्बाणु प्रजनन अंगों में बनते रहते हैं। यहीं से दाढ़ी, मूँछ, पौरुष, साहस, श्रम योग्य कठोरता उभारने वाले हारमोन उत्पन्न होते हैं। योगाभ्यास में इसे अग्निकुण्ड, कुण्डलिनी निवास आदि का नाम दिया गया है।

मस्तिष्क मध्य में निवास करने वाले केन्द्र में अप्रत्यक्ष रूप से काम करने वाले विद्युत उत्पादन केन्द्र को सहस्रार के अतिरिक्त “रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम” भी कहते हैं। इसे अति संवेदनशील विद्युत मापक यन्त्रों की सहायता से ही मापा जा सकता है। यहाँ क्षण-क्षण में विद्युत स्फुल्लिंग उभरते रहते हैं। इसे असली हृदय कहा जा सकता है। छाती में धड़कने वाला हृदय रक्त को फेंकने वाली धड़कन जारी रखता है। मस्तिष्क के माध्यम से उछलती रहने वाली रहस्यमयी क्षमता को असली हृदय भी कह सकते हैं। सहस्रार चक्र का इससे सीधा सम्बन्ध है। उसे ब्रह्मरन्ध्र का उद्गम भी कह सकते हैं। इन स्फुल्लिंगों को ही शतदल कमल कहा गया है और शतमुख वाला महा सर्प जिस पर क्षीर सागर में विष्णु भगवान शयन करते हैं।

मूलाधार और सहस्रार को मिलाने वाला छोटे-छोटे घटकों से मिलकर बना मेरुदण्ड है। इसी को बोल-चाल की भाषा में रीढ़ कहते हैं। स्पाइनल कार्ड इसके अन्दर होता है। इसी के मध्य व दोनों और वे तीनों नाड़ियाँ-शक्ति धाराएँ बहती हैं, जिनका उल्लेख ऊपर इड़ा पिंगला के रूप में किया गया है। इन्हीं दोनों की मध्यवर्ती सुषुम्ना है। मेरुदण्ड मार्ग को ‘इक्वेटोरियल लाइन’ विषुवत् रेखा कहते हैं। किन्तु इसका मध्यवर्ती प्रवाह “सेन्ट्रल केनाल” (स्पाइनल कार्ड का केन्द्रीय भाग) के नाम से जाना जाता है। यही सब मिलकर वैसी स्थिति बनती है जैसी कि पृथ्वी पर भूमध्य रेखा की है। ऐसे तो समस्त शरीर ही शक्तिपुँज है किन्तु योग साधना से सम्बन्धित प्रचण्ड शक्ति का केन्द्र उसी भाग को समझा जाना चाहिए जो मूलाधार से लेकर सहस्रार तक मेरुदण्ड माध्यम से शक्ति पुँज बनकर अवस्थित है।

कुण्डलिनी जागरण एक क्रिया नहीं है वह विभिन्न पक्षों, अवयवों में बँटी हुई है और उसके प्रत्येक अवयव को इस प्रकार झकझोरना पड़ता है जिससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति होती हो। मूलाधार, सहस्रार, इडा, पिंगला, सुषुम्ना यह पाँच घटक मोटे अंग अवयवों के रूप में गिने जा सकते हैं। अब इनके अन्तराल में सन्निहित शक्तियों का विवरण चलता है। मेरुदण्ड मार्ग में छह चक्र हैं। इन्हें छह स्तर की विद्युत शक्तियाँ कह सकते हैं। इनमें से जो अपने लिए विशेष उपयुक्त है उसी पर प्रयत्न केन्द्रित करने पड़ते हैं। छहों चक्रों को जगाने का तात्पर्य तो ऐसा है जैसा किसी विशाल कारखाने के अनेकानेक कल पुर्जों की समग्र जानकारी प्राप्त करना। यह व्यर्थ है। उनमें से जिनके साथ अपना सीधा संपर्क हो, उतने की ही जानकारी प्राप्त कर लेने में एक मध्यवर्ती साधक का काम चल सकता है। यही बात मूलाधार के अनेक पक्षों में से जो अपने लिए अभीष्ट है उसी अंग पर हाथ डाला जाये। यह सिद्धान्त सहस्रार की हजार या सौ धाराओं में से अपने उपयोगी पक्ष को चुनने के सम्बन्ध में है।


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