तत्त्वज्ञान और सेवा साधन

February 1986

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संगीत मल्ल विद्या, चिकित्सा आदि अनेकों विषय ऐसे हैं जिनके सिद्धान्त रट लेने भर से काम नहीं चलता उसका प्रयोग और अभ्यास भी करना पड़ता है। पानी में घुसे बिना तैरने में कौन निष्णात् बन सकता है?

अध्यात्म सिद्धान्तों को पढ़ना-सुनना, समझना अच्छी बात है। उससे दिशाबोध होता है, पर मंजिल तो चलने से ही पार होती है।

अध्यात्म का अर्थ है- अन्तर्मुखी होना। अपने भीतर भरी हुई देव विभूतियों को जागृत और जीवन्त करना। देवता की उपासना साधक को देवता बना सके, उन जैसी विशेषताएं उत्पन्न कर सके, तभी उस प्रयास की सार्थकता है।

परमार्थ परक पुण्य प्रयोजन पूरा करने में संलग्न होना वह उपाय उपचार है, जिससे अध्यात्म तत्वज्ञान को कार्य रूप में परिणित करने का अवसर मिलता है और उसी अभ्यास के बलबूते तत्वज्ञान को कर्म में विकसित होने का अवसर मिलता है। यही सार्थक अध्यात्म है।

आग का प्रज्वलित रहना ईंधन की व्यवस्था पर निर्भर है। तत्वज्ञान का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे सेवा साधना द्वारा कार्य रूप में परिणत होने दिया जाये। अध्यात्मवादी और सेवाभावी होना एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं।


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