भावनाओं का अमृत यों ही न बहायें

June 1983

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भाव सम्वेदनाओं से युक्त अन्तःकरण को मानव जीवन की एक महान उपलब्धि कहा गया है। ऐसे अन्तःकरण से युक्त व्यक्ति जिस भी समाज एवं देश में रहते हैं, उनकी सुख-शान्ति बढ़ाने में सहायक होते हैं। पवित्र अन्तःकरण एवं उच्चस्तरीय भावों का गुणगान संसार के सभी धर्म एवं शास्त्र करते हैं। भावनाओं की महिमा गाते शास्त्र नहीं अघाते। सन्तों ने तो यहाँ तक कहा है “भावों के भूखे हैं भगवान”। तत्त्वदर्शियों के अनुसार वह परमात्मा भावनाओं में निवास करता है, उसी के सहारे अन्तःकरण में दर्शन देता है। भावनाशील होना मानवी गरिमा के अनुकूल हैं एवं उत्कर्ष की और बढ़ने का प्रथम चिन्ह हैं।

परन्तु भावों के प्रवेश पर विवेक का अंकुश न हो तो वह कितनी ही प्रकार की समस्याओं को जन्म दे सकता है। अनियन्त्रित भावनाएँ भावातिरेक कहलाती हैं। इनकी प्रतिक्रिया मनः असन्तुलन, मानसिक विक्षोभ, चिन्ता, आतुरता जैसे व्यतिरेकों के रूप में दिखायी पड़ती है। ये असन्तुलन समूचे विचार तन्त्र को ही गड़बड़ा देते हैं। फलतः किसी भी विषय पर सही सोचते अथवा निर्णय लेते नहीं बनता। मनःशास्त्रियों ने भावातिरेक को एक मानसिक रोग माना है तथा इससे बचने के लिए कठोर निर्देश दिये हैं। भावों पर अंकुश न रहने तथा उनमें औचित्य एवं दूरदर्शिता का समावेश न रहने से वे अति भावुकता के प्रवाह के रूप में प्रकट होते हैं।

उल्लेखनीय है कि मनोकायिक रोगों की चिकित्सा पद्धति में यह सर्व सम्मत से स्वीकार किया जाने लगा है कि शरीर के हारमोनल स्रावों की न्यूनाधिकता में विचारों एवं भावनाओं का विशेष प्रभाव पड़ता है। वे सन्तुलित न होने के कारण मानसिक असन्तुलन को ही जन्म देते हैं। फलतः समूची शरीर की संचार प्रणाली अव्यवस्था की शिकार हो जाती है। उसकी प्रतिक्रिया अनेकानेक शारीरिक-मानसिक रोगों के रूप में प्रकट होती दिखायी पड़ती हैं।

प्रख्यात चिकित्सा शास्त्री डा. फ्लैन्ड्रस डूनेवर ने अपने प्रयोग परीक्षणों का निष्कर्ष “इमोशन्स एण्ड बॉडिली चेन्जेज” में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें यह सप्रमाण उल्लेख किया गया है कि भावनाओं का शरीर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भय, चिन्ता, क्रोध, आवेश जैसी उत्तेजनाओं से एड्रिनल ग्रन्थि के स्राव में कमी आती है। प्रायः देखा भी जाता है कि उत्तेजनाग्रस्त होने पर उसकी बाह्य प्रतिक्रिया जीभ सूखने, जीभ लड़खड़ाने के रूप में होती है। यह भी प्रयोगों में देखा गया है कि उत्तेजना से रक्त संचार की गति बढ़ जाती है। चेहरे की दमक उठना, आँखों का लाल हो जाना उसका बाह्य संकेत हैं। ऐसी स्थिति में रक्त नलिकाओं के फटने तक की सम्भावना रहती है। अतिशय तनाव तथा बारम्बार इस तनाव की पुनरावृत्ति ब्रैन हैमरेज का भी कारण बन सकती है, कई बार बनती भी है।

नोबेल पुरस्कार विजेता डा. अलेक्सिस कैरेल ने अपने प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला है कि घृणा, भय क्रोध, चिन्तातुरता जो भावातिरेक के कारण पैदा होते हैं, जब हमारी आदत के अंग बन जाते हैं तो कई कायिक परिवर्तनों व रोगों को जन्म देते हैं। प्रख्यात चिकित्सा शास्त्र की पुस्तक ‘वाथवेज ऑफ साइन्स’ में एक रूसी वैज्ञानिक ने रोगोत्पत्ति और भावनात्मक असन्तुलन में गहरा तादात्म्य स्थापित करते हुए कहा है कि “मनुष्य का भाव जगत एक वरदान है और एक तरह से अभिशाप भी। वरदान इसलिए कि इस क्षेत्र से निस्सृत उच्च-स्तरीय भावनाएँ स्वयं व्यक्ति के शारीरिक मानसिक विकास के लिए न केवल हितकारी हो सकती है वरन् समस्त समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है। यह अभिशाप उस स्थिति में साबित होता है जब व्यक्ति भाव असन्तुलन का शिकार होता है। ऐसी हालत में दूसरों का तो दूर मनुष्य अपना स्वयं का विकास भी नहीं कर पाता। उल्टे ऐसी स्थिति मानसिक असन्तुलन को जन्म देती है। जिसकी परिणति शरीरगत एवं मनोगत रोगों के रूप में होती है।

“पेशेन्ट्स एण्ड डाक्टर्स देयर इन्टररिलेशन” पुस्तक के लेखक हैं- एक ब्रिटिश मेडिकल अधिकारी। उनका कहना है कि “भावनाओं की प्रतिक्रिया हम सम्पूर्ण शरीर में अनुभव कर सकते हैं। उन अनुभूतियों के आधार पर उचित अनुचित का चयन भी कर सकते हैं। अर्थात् किस भाव को मन में स्थान देना चाहिए तथा किसे नहीं, इसका निर्धारण हर कोई कर सकने में सक्षम है। उदाहरणार्थ- किसी खतरे का अवसर सामने प्रस्तुत होते ही सम्पूर्ण शरीर में भय का संचार होने लगता है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शरीर में कंपन, मुँह सूखना, त्वचा का पीला हो जाना, हृदय की धड़कन बढ़ना आदि शारीरिक संकेत मिलते हैं। देश प्रेम की भावना से शरीर रोमांचित हो उठता है। त्याग, बलिदान, उत्सर्ग की प्रेरणाएँ उभरने लगती हैं। समाज सेवा का भाव एक अद्भुत सन्तोष प्रदान करता है। ईर्ष्या द्वेष के भावों से मन विक्षुब्ध हो उठता है। दया, करुणा, क्षमा से एक विशेष प्रकार की शान्ति मिलती है। सच्ची प्रेम भावना का प्राकट्य एक दिव्य मस्ती से मन को भर देता है। प्रतिस्पर्धा की भावना से शरीर एवं मन की गतिशीलता बढ़ जाती है। पुरुषार्थ में माँसपेशियाँ फड़कने लगती हैं।

भावनाओं का एक क्षेत्र वह है जो विशेष प्रकार की प्रेरणाएँ उभारता तथा मनुष्य को एक दिशा विशेष में गतिशील होने को विवश करता है। दूसरा क्षेत्र वह है जो स्वयं के शरीर एवं मन को प्रभावित करता है। स्वास्थ्य एवं सन्तुलन को बनाने अथवा बिगाड़ने में यही काम आता है। निषेधात्मक भावों की प्रतिक्रिया तत्काल मन एवं शरीर पर अनुभव की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर की जीवनी शक्ति चुक रही हो। मन की प्रफुल्लता, प्रसन्नता, उत्साह एवं उमंग धीरे-धीरे समाप्त हो रही हो। ऊब, थकान, एवं अशक्तता, की अनुभूति होती है। विधेयात्मक भाव भी अपनी प्रतिक्रियाएँ मानसिक प्रसन्नता, शान्ति एवं सन्तोष- शारीरिक तत्परता, सजगता के रूप में बहिरंग में दृष्टिगोचर होते हैं। शरीर में जीवनी शक्ति का स्वतः उभार होने लगता है और ऐसा अनुभव होता है जैसे कहीं से अतिरिक्त शक्ति का निर्झर फूट पड़ा हो। निराशा की घड़ियों में जब कभी भी आशावादी विचार उमड़ते हैं तो प्रतिकूलताओं में भी ऐसा प्रतीत होता है कि करने वाले के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। अपनी सामर्थ्य पहले से कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी नजर आने लगती है।

मनोवैज्ञानिक प्रणाली द्वारा भी ऐसे विधेयात्मक अथवा निषेधात्मक विचार उत्पन्न करके तद्नुरूप प्रभाव प्रायः उन व्यक्तियों पर डाले जा सकते हैं जो कमजोर मनोभूमि के हैं। आज की मनःचिकित्सा प्रणाली भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। आटोसजैशन एवं हेट्रोसजैशन के इर्द-गिर्द वह घूमती है। मनःचिकित्सक विधेयात्मक निर्देशन द्वारा ही मानसोपचार में सफल होते हैं। यह प्रक्रिया निषेधात्मक रूप में किसी-किसी के लिए प्राण घातक भी सिद्ध हो सकती है यदि वह व्यक्ति निराशावादी तत्वों से युक्त है। वह घटना प्रख्यात है कि योरोप के किसी देश में एक व्यक्ति को फाँसी दी जानी थी। वह हत्या अभियोग का मुजरिम था। फाँसी निर्धारित तारीख को होनी थी। मनःशास्त्र विशारदों ने एक प्रयोग विचार शक्ति की महत्ता का उस पर किया। उन्होंने अपने प्रयोग का प्रारूप न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करके उसे पूरा करने की अनुमति प्राप्त कर ली। इन विशेषज्ञों का ऐसा विश्वास था कि अपराधी को बिना किसी हथियार के मात्र विचार सम्प्रेषण द्वारा भी मारा जा सकता है।

प्रयोग आरम्भ हुआ। अपराधी की आँख पर पट्टी बाँध दी गयी। चिकित्सकों ने उससे कहा कि तुम्हारे हाथ की नस काट दी जायेगी। उससे होकर शरीर का सारा खून बह जायेगा। इस तरह तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। प्रयोग में एक हल्का-सा चीरा हाथ में लगा दिया गया। पानी की एक ट्यूब इस ढंग से हाथ लगाकर रखी गयी कि अपराधी को उसका पता न चले, मात्र उससे नीचे एक बाल्टी में पानी के गिरने की आवाज सुनायी दे।

निर्देशन प्रक्रिया आरम्भ हुई। चिकित्सकों ने बताया कि तुम्हारी नस काट दी गयी है। पानी के हाथ के समीप हो रहे बहाव को घबराते हुए उसने तीव्र गति का रक्त स्राव समझा। नीचे बाल्टी में द्रव्य गिरने की आवाज उसे स्पष्ट सुनायी दे रही थी। चिकित्सक उसे हर क्षण यही बताते रहे कि शरीर से खून की कितनी मात्रा निकल चुकी है। आधे घण्टे तक यह प्रयोग चलता रहा। इस बीच उसके हृदय की गति दुगुनी हो गयी थी, होंठ सूख चुके थे तथा भय के चिन्ह चेहरे पर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे थे। प्रयोग समाप्ति के पूर्व ही एकाएक उसके हृदय की गति अपने आप रुक गयी और सचमुच ही वह बिना किसी रक्तस्राव के मर गया। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के इतिहास में विशेषज्ञों ने यही पहली बार अनुभव किया कि विचार शक्ति इतनी अधिक सामर्थ्यवान हो सकती है। भावनाओं की विधेयात्मक अथवा निषेधात्मक दिशाधारा इतनी प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है इसे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया। यह अनुभव किया गया कि दूसरे के ऊपर निर्देशन द्वारा इतना प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है तो स्वयं के ऊपर तो उनकी प्रतिक्रियाएँ असाधारण रूप से पड़ती ही होंगी। कम्युनिस्ट राष्ट्रों ने तो ‘ब्रेन वाशिंग’ की तकनीक में विशेष रूप से इसी पद्धति को अपनाया है। ‘बायो फीड बैक’ की आधुनिक योग पद्धति भी इसी विधा की प्रशाखा है।

शरीर संस्थान, बुद्धि संस्थान की तरह भाव संस्थान भी मनुष्य के साथ जुड़ा हुआ है। शरीरबल बुद्धिबल की अपेक्षा भावबल कहीं अधिक सामर्थ्यवान है। व्यतिरेक होने अथवा बेलगाम छोड़ देने पर तो शरीर तन्त्र और बुद्धि तन्त्र दोनों ही बेलगाम घोड़ों की तरह हो जाते हैं। इन्द्रियों पर अंकुश न हो- उन्हें खुली छूट दे दी जाय तो शरीर का जर्जर, निर्बल अशक्त हो जाना सुनिश्चित है। बुद्धि की दिशाधारा निश्चित न हो, उसके चिन्तन को जहाँ-तहाँ बहने दिया जाय तो न केवल उसकी क्षमता मारी जाती है वरन् दुष्प्रयोजनों में निरत होकर कई बार तो अनेकों प्रकार के विग्रह विक्षोभ उत्पन्न करती है। भाव सम्वेदनाएँ इन दोनों की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान है। वह जितनी सूक्ष्म है उतनी अधिक गतिवान भी होती है। उनका उभार एवं उफान वेगवती नदी की भाँति उमड़ता है। अनियन्त्रित होने पर वे बुद्धि और शरीर को भी अपने साथ मनचाही दिशा में बहा ले जाती हैं। बाढ़ के पानी को रोकने के लिए बाँध बाँधे जाते हैं। गतिवान भाव सम्वेदनाओं का नियन्त्रण भी होना चाहिए। उन्हें उपयुक्त दिशा देना भी उतना ही आवश्यक है। भावातिरेक की स्थिति की जाँच पड़ताल विवेक की कसौटी पर भी करनी चाहिए। प्रयत्न यह हो कि वे हमेशा उच्चस्तरीय हों, महान प्रयोजनों से जुड़ी हों। यदि ऐसा सम्भव हो सके तो सचमुच ही भावसरिता का अभिसिंचन पाकर जीवन रूपी उपवन में अगणित प्रकार के सद्गुणों के रंग-बिरंगे पुष्प खिल सकते हैं। उस उद्यान की सुवास से व्यक्ति का जीवन महक उठेगा, उसे धन्य बनायेगा और अपने सौरम्भ से असंख्यों का जीवन महकायेगा।


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