“महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मी य क्रियते तनुः”

June 1983

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परिव्राजकों में परस्पर चर्चा चल रही थी। समाधान न मिलता देख उनमें से एक जिज्ञासावश संघ स्थविर आचार्य अभिष्यन्द से पूछ बैठा- “महामन्। आपने सर्व श्रेष्ठ दान को ही महायज्ञ की संज्ञा दी है। मूढ़ मान्यताओं से ग्रसित- बलि प्रथा से अभिशिप्त यज्ञ परम्परा को तो हम बौद्ध नहीं मानते। इस नाम से संव्याप्त अनाचार का तो हमने खण्डन भी किया है। परन्तु महायज्ञ का स्वरूप समझ पाने में हम असफल रहे हैं। कृपया इसकी व्याख्या करें ताकि किसी प्रकार का भ्रम न रहे।

जिज्ञासा को पूरा सम्मान देते हुए आचार्य श्री ने कहा- ‘भद्रजनों! यज्ञ का अर्थ है उदारशील-दानवृत्ति, सत्प्रवृत्तियों का अभिनन्दन एवं सामूहिकता को समर्थन।’ यदि अन्तः से उदार आत्मीयता का निर्झर निस्सृत होने लगे, सम्वेदना से अभिपूरित मानवी सत्ता अपनी गरिमा को पहचान कर व्यष्टिगत स्वार्थ को समष्टिगत हित में बदलने के लिये आतुर हो उठे तो मानना चाहिए कि व्यक्ति में देवत्व जाग उठा। महायज्ञ इसी पुनीत प्रयोजन को कहा गया है।

संघ स्थविर प्रमुदित मन से बोल उठे- “भद्रजनों! आपने सम्राट अशोक का तो नाम सुना ही होगा जिन्होंने कलिंग के नर संहार के बाद अपना जीवन क्रम ही बदल डाला। बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर उन्होंने सारा जीवन भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में लगा दिया।

“हे परिव्राजक गणों! श्रेष्ठतम दान धन मुद्राओं का समर्पण नहीं, अपितु इससे भी ऊँचा है। सम्राट अशोक अपने अन्तिम समय में मृत्यु शैय्या पर पड़े थे। अपना घर, परिवार, धन, विलास दुःखी पीड़ितों की सेवार्थ- परिव्राजकों के लिये संघाराम निर्माण हेतु लगाने के बाद भी उसके मन में असन्तोष ही बना हुआ था। भगवान के आह्वान पर एक साधारण गृहस्थ अनाथ पिण्डक द्वारा सौ करोड़ मुद्राएँ देने के बाद उन्होंने भी इतनी ही राशि जनहित में दान करने का संकल्प लिया था। विद्यालयों, मठों और लोक कल्याण के अन्यान्य कार्यों के लिए वे छियानवे करोड़ मुद्राएँ दे चुके थे। संकल्प पूर्ति के पूर्व ही रुग्ण होने के कारण वे क्षुब्ध होने लगे। लगा कि कहीं मृत्यु ने समय से पूर्व ही काल कवलित कर लिया तो वे अपना संकल्प पूरा नहीं कर सकेंगे। सम्राट कुणाल के पुत्र सम्पदी को युवराज बना चुके थे। राज्य के कोष से दान देने की व्यवस्था पर अंकुश लग चुका था। सत्ता अब नये राजा के हाथ में थी विवश सम्राट अपने निजी उपयोग की वस्तुएँ दान में देने लगे। स्वयं वे मिट्टी के पात्रों व नाम मात्र के वस्त्रों से काम चलाने लगे।

अन्तिम दिन संघाराम से आए भिक्षुक को दुःखी सम्राट ने काँपते हाथों से सूखे आँवले का आधा शेष भाग दे दिया और कहा- “अब मेरे पास इसके अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं बचा है। इसे ही अन्तिम दान समझें और स्वीकार करें।” संघ अधीक्षक ने उस आँवले के टुकड़े को श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर चूर्ण रूप बनाकर भिक्षुओं के लिये बनने वाले अमृताशन में मिला दिया। सबने उस महाप्रसाद को पाया। इस बीच सम्राट अशोक की अन्तिम वेला के समय आचार्य संघाराम उनके पास गए और मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा- “राजन्! आप शान्तिपूर्वक स्वर्ग प्रयाण कीजिए। आपका संकल्प पूरा हुआ। आपने जो आधे आँवले का दान किया था, वह सहस्रों करोड़ मुद्राओं से भी अधिक पुण्यदायक है। उसका मूल्य आँका नहीं जा सकता। आपका संकल्प पूरा हुआ।” सम्राट ने सन्तोष की साँस ली व सदा-सदा के लिए अपने नेत्र बन्द कर लिए।

भिक्षुकों को सम्बोधित करते हुए आचार्य बोले- “यही सर्व मेध यज्ञ है- महायज्ञ है। इससे बढ़कर पुण्यदायक मुक्ति प्रदाता और कोई कर्म नहीं।”


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