जो कुछ किया जाता है वह सारे का सारा मात्र आज की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ही नहीं होता। उसे भविष्य को ध्यान में रखते हुए भी किया जाता है। भोजन आज का बनाया आज खाया जाता है पर अन्न भण्डार इसलिए भरा जाता है कि अगले दिनों भी उसका उपयोग हो सके। महत्वपूर्ण योजनाएँ इसी दृष्टि से बनती हैं। रहने के मकान इसी दृष्टि से बनते हैं कि उनमें बुढ़ापा कट सके और सन्तान को भी उसमें रहने का अवसर मिल सके। राष्ट्रीय प्रगति की विविध योजनाएँ न केवल आज का समाधान ध्यान रखते हुए बनती हैं, वरन् उनके पीछे उज्ज्वल भविष्य की संरचना को भी ध्यान में रखा जाता है। युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित प्रज्ञा अभियान भी इसी प्रयोजन के लिए है कि अगले दिनों की व्यवस्था प्रगति समृद्धि का क्रमिक विकास चल पड़े।
भविष्य निर्माण की समस्त योजनाओं में मूर्धन्य यह है कि भावी पीढ़ियों का स्तर कैसा हो? उसी के ऊपर समस्त सम्भावनाएँ निर्भर हैं। मात्र सम्पत्ति भर की बात सोचने से काम नहीं चलेगा। साधन जुटा देना पर्याप्त नहीं। महत्वपूर्ण बात स्तर की है। किसी देश का क्षेत्रफल, जनसंख्या, प्रकृति सम्पदा, उद्योग, शस्त्र सज्जा आदि के आधार पर उसकी सही गरिमा का मूल्यांकन नहीं हो सकता। यह सभी साधन ऐसे हैं जो तनिक-सी प्रतिकूलता उत्पन्न होने पर देखते-देखते धराशायी हो सकते हैं। स्थायी और सच्चा बल वैभव सुदृढ़ व्यक्तित्वों पर निर्भर है। वे जहाँ, जितनी संख्या में जिस स्तर के होंगे वहाँ समर्थता और सम्पदा उसी अनुपात से विकसित होती चलेगी। नागरिकों का स्तर गया-गुजरा रहे तो साधन सम्पदा भर से उज्ज्वल भविष्य की आशा नहीं की जा सकती।
रावण की लंका में धनबल, जनबल, शस्त्रबल और कौशल की कुछ भी कमी नहीं थी किन्तु व्यक्तित्वों का स्तर निकृष्ट रहने के कारण वह समूचा वैभव नष्ट-भ्रष्ट हो गया। निवासियों को असीम त्रास सहने पड़े। और वे अपने संपर्क क्षेत्र में भी अनीति अशान्ति का माहौल बनाते रहे। दूसरों को दुःखी करते रहे और स्वयं दुःखी हुए। इसे कहते हैं व्यक्तित्वों की गिरावट।
अब से पचास वर्ष पूर्व अपने देश में महान व्यक्तित्वों का बाहुल्य था। तिलक युग, गान्धी युग पर दृष्टिपात करते हैं तो भारतीय आकाश पर उज्ज्वल नक्षत्र चमकते दीखते हैं। उन दिनों महामानवों की भरमार थी। फल यह हुआ कि हजार वर्ष की गुलामी से पददलित मनोबल से नया उभार आया और लाखों सत्याग्रहियों ने इतनी बड़ी शक्ति से जूझने का जौहर व्रत अपनाया। अंग्रेज चले गये। स्वाधीनता मिली। इसे योजनाओं की, साधनों की नहीं वरन् समुन्नत व्यक्तित्वों की प्रखरता का प्रतिफल कहा जायगा।
इन दिनों भी जापान, इस्राइल, क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश अपने प्रबल पराक्रम का परिचय देते देखे जाते हैं। इसका कारण वहाँ की सम्पदा नहीं वरन् नागरिकों की प्रखरता है। वह जहाँ भी होगी, साधनों की कमी न रहेगी। इसके विपरीत जहाँ गये-गुजरे निकृष्ट स्तर के लोगों की भरमार होगी वहाँ नित नये कलह, और संकट खड़े दृष्टिगोचर होंगे। ‘नीत्से’ ने अपनी व्यंग्यात्मक शैली में इन्हें ही चाण्डाल की श्रेणी में रखते हुए जड़ मूल से समाप्त करने का प्रतिपादन किया था। इससे भले ही हम सहमत न हों, व्यक्तित्व के स्तर सम्बन्धी तथ्य एवं तर्क अपने स्थान पर सही हैं।
मनुष्य यदि सच्चे अर्थों में मनुष्य हो तो वह उतना शक्तिशाली सिद्ध होता है जिस पर विशाल शस्त्रागार और रत्न भण्डार निछावर किये जा सकें। ऐसे लोग अपने पुरुषार्थ से कठिन परिस्थितियों में भी समुचित वैभव उपार्जित कर लेते हैं। कम पड़े तो भी मितवाद का जो है उसी का भावभरा वितरण करके सुख सौभाग्य का हँसता हँसाता वातावरण बना लेते हैं। अस्तु यदि उज्ज्वल भविष्य की संरचना वस्तुतः अभीष्ट ही हो तो इसके लिए भावी पीढ़ी के स्तर को ऊँचा उठाने की दूरगामी योजना बननी और गम्भीरतापूर्वक क्रियान्वित होनी चाहिए। इस एक ही प्रसंग की उपेक्षा किये जाने पर वे सभी दिवा स्वप्न निरर्थक सिद्ध होंगे जिनमें साधनों की बहुलता के आधार पर भावी समृद्धि एवं प्रगति की मनुष्य में देवत्व तथा धरती पर स्वर्ग के अवतरण की आशा की गई है। कुपात्र के जो हाथ में है उसे भी उजाड़ देते हैं और सत्पात्रों के हाथ खाली हों तो भी वे उन्हें अपना पसीना मोती बनाकर इन्द्र और कुबेर जैसी विभूतियों से भर लेते हैं।
भावी पीढ़ियों के निर्माण के लिए क्या किया जाय? यह विचारने से पूर्व यह सोचना होगा कि वर्तमान जनक और जननियों को क्या सिखाया और कराया जाय। जिससे वे सुप्रजनन के उत्तरदायित्व का सही निर्वाह कर सकें। ऊसर भूमि में कुछ भी बोया जाय, कैसी ही सिंचाई सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाय, कुछ काम बनेगा नहीं। क्योंकि जब भूमि ही किसी काम की नहीं और बीज ही घुना हुआ है तो उसमें उगेगा ही क्या? और जो उगेगा उसका सन्तोषजनक परिणाम कैसे दृष्टिगोचर होगा?
बच्चों का शारीरिक विकास आहार-विहार जलवायु पर निर्भर रहता है। शिक्षण के आधार पर उन्हें क्रिया कुशल सम्पन्न भी बनाया जा सकता है। सामान्यतया इतना कर पाना ही अभिभावकों के लिए सम्भव होता है। इतने पर भी व्यक्तित्वों की प्रखरता के संबंध में यह तथ्य अनिर्णीत ही रह जाता है कि उन्हें सद्गुणी, एवं प्रामाणिक कैसे बनाया जाय। इस संदर्भ में अधिक से अधिक इतना ही कहा या किया जा सकता है कि पारिवारिक वातावरण में सज्जनता एवं सुव्यवस्था का समावेश रखा जाय ताकि उसका प्रभाव ग्रहण करके कच्ची आयु की कच्ची मिट्टी को उपयोगी ढाँचे में ढलने का अवसर मिले। अच्छे स्कूलों में भर्ती करने को अच्छे अध्यापकों का सुयोग बिठाने की बात सारगर्भित है। इन सब प्रसंगों के संबंध में बाल-विकास में रुचि रखने वाले बहुत कुछ कहते करते भी रहे हैं और उस व्यवस्था का परिणाम भी कुछ न कुछ हितकर ही होता है।
इतने पर भी एक रहस्य जहाँ का तहाँ ही बना रहता है कि बालकों में उस जन्मजात प्रतिभा की स्थापना कैसे हो जो परिस्थितियों की परवा न करके उलटी दिशा में भी चलती है। अच्छी परिस्थितियों में पले हुओं में से कितने ही न केवल दुर्गुणी वरन् मूढ़मति भी होते हैं। इसके विपरीत विपन्न परिस्थितियों में पैदा हुए बालक बुद्धि-कौशल की दृष्टि से ऊँचे उठते भी देखे जाते हैं।
ऐसे प्रसंग भले और बुरे दोनों ही स्तर के हो सकते हैं। बुरे परिवारों में अच्छे व्यक्तित्व उभरने पर कीचड़ में कमल की उपमा दी जाती है और श्रेष्ठ घरों में हेय सन्तान जन्मने पर ‘उत्तम कुल पुलिस्त कर नाती” कहे जाने वाले रावण कुम्भकरण बनते देखे गये हैं। ऐसे ही उदाहरणों में सन्त कबीर के पुत्र कमाल का भी उल्लेख होता है। “डूबा वंश कबीर का उपजे पूत कमाल” अब एक उक्ति बन गई है जिसे उपयुक्त वातावरण की अवहेलना करके सन्तानों के कुमार्गगामी होने पर प्रयुक्त किया जाता है।
इस संबंध में विभिन्न कारणों के प्रस्तुतीकरण में अधिक वजनदार वह प्रतिपादन है जिसमें वंशानुक्रम की परिणति का महत्व बताया जाता है। पूर्वजों की अनेक पीढ़ियों का प्रभाव रज वीर्य के साथ गुँथा रहता है। जीन्स- क्रोमोसोम आदि का ऊहापोह वैज्ञानिक क्षेत्रों में इसी संदर्भ में होता रहता है। आवश्यक नहीं कि माता-पिता के सदृश ही बालक हो। कई पीढ़ी पूर्व की मात्र परम्परा या पितृ परम्परा के साथ जुड़े हुए विशेष तथ्य अपना काम करते रहते हैं और बहुत समय तक दबे रहने पर भी जब अनुकूल परिस्थिति पाकर उभरते हैं तो उनके विशेष प्रभाव परिणाम भी सन्तानों में दृष्टिगोचर होते हैं। यह भले भी हो सकते हैं और बुरे भी। पर उनका बहुत कुछ आधार वंशधरों की विशिष्टता पर ही निर्भर रहता है। सामान्य स्वभाव और निर्वाह वाले व्यक्तियों की सन्तानें भी सामान्य स्तर की गुजर-बसर करती देखी गई हैं। पर जिनमें प्रतिभा होती है, उनकी पीढ़ियों में से कुछ में ऐसे असाधारण तत्व पाये जाते हैं जिनमें परिवार स्तर की अवहेलना करके ऐसी सन्तानें जन्में जिन्हें भले या बुरे स्तर की ‘विशिष्ट’ कहा जा सके।
वंशानुक्रम विज्ञान पर इन दिनों बहुत गहरी खोजें हुई हैं और पाया गया है कि सुप्रजनन के लिए जन्मदाताओं का सुसंस्कारी होना आवश्यक है। जिस प्रकार माता-पिता के रंग रूप से मिलता-जुलता शरीर बालकों का होता है उसी प्रकार उनकी प्रतिभा एवं आदत में भी ऐसा ही साम्य पाया जाता है। विशेषतया गर्भस्थापना के दिनों उनकी जैसी मनःस्थिति रही होती है उसकी छाप सन्तान पर विशेष रूप से देखी गई है।
शारीरिक मानसिक रोगों के बारे में यह तथ्य बहुत पहले ही स्वीकारा जा चुका है। इसके समर्थन में अगणित प्रमाण सर्वत्र दीखने को मिलते हैं। श्वास, रक्त विकार, कुष्ठ, उन्माद आदि से ग्रसित अभिभावकों की सन्तानें आरम्भ में न सही बड़े होने पर उन रोगों की शिकार अकारण ही हो जाती हैं। कई परिवारों में अल्पायु या दीर्घायु होने का सिलसिला पीढ़ियों तक चलता रहता है। कइयों में दाँत जल्दी गिरने या देर तक स्थिर रहने की परम्परा चलती रहती है। अब एक कदम आगे बढ़कर इतना परिशिष्ट और भी इस प्रतिपादन में जुड़ा है कि आदतों के संबंध में भी पैतृक विशेषताएँ सन्तान को प्रभावित करती हैं। चारित्रिक गुण दोष भी लम्बी अवधि तक पीढ़ियों में दृष्टिगोचर होते रहते हैं। स्वभाव का भी एक ढर्रा इसी आधार पर घूमता रहता है। राजपूतों में साहसिकता और ब्राह्मणों में नम्रता की विशेषता अनायास ही पाई जाती है। वैश्य परिवार में व्यवसाय बुद्धि न केवल वातावरण के प्रभाव से विकसित होती है वरन् जन्मजात रूप से वह कौशल और रुझान अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाया जाता है।
इन दिनों हर क्षेत्र में उत्कृष्टता संवर्धन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। साधन सामग्री से लेकर चिकित्सा, सुरक्षा आदि के सभी क्षेत्र में अधिक उत्तम को जुटाया जाता है। कपड़े और फैशन में- द्रुतगामी वाहनों के उपयोग में- विनोद मनोरंजनों में अब घटिया का तिरस्कार होता है और बढ़िया की ढूँढ़-खोज चलती है, भले ही वह महंगी ही क्यों न पड़े?
भावी पीढ़ियों को अधिक प्रतिभावान, सुयोग्य समुन्नत बनाने में भी यह सुरुचि काम करती है। लोग अपनी-अपनी सन्तानों को सजाने में ही नहीं समुन्नत बनाने में भी रुचि लेते हैं। इसके लिए कुछ कृपणों या असमर्थों को छोड़कर प्रत्येक अभिभावक अपनी क्षमता के अनुरूप प्रयत्न भी करता है। बात बढ़कर समाज के मूर्धन्यों की दृष्टि में भी जमी है और राष्ट्रों के कर्णधार सोचते हैं कि उनके नागरिक अधिक समर्थ एवं सुयोग्य हों। उनकी प्रतिभा से सर्वतोमुखी प्रगति का लाभ मिले। साथ ही यह भी सोचा जाता है कि शारीरिक मानसिक दृष्टि से असमर्थों, अविकसितों, खण्डित व्यक्तित्वों का उत्पादन रोका जाय। बुरी आदतों और विकृत मनोभावों वाले व्यक्ति न केवल अपने लिए ही वरन् सम्बद्ध लोगों के लिए भी संकट उत्पन्न करते हैं। उनके कुकृत्यों द्वारा समूचे समाज को क्षति पहुंचती है। इसलिए जिस प्रकार अपराधियों की, आक्रमणकारी आतंकवादियों की रोकथाम की जाती है उसी प्रकार कुप्रजनन पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाय। अच्छे उत्पादन के साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि हेय या निकृष्ट के संबंध में प्रतिरोधात्मक प्रबन्धों की व्यवस्था की जा रही है या नहीं।
देव मानवों का निर्माण सुगढ़ सुसंस्कारी दम्पत्ति ही कर पाते हैं। स्तर बदले बिना सुसन्तति को जन्म दे पाना सम्भव नहीं। ऊपरी उपचार का- शिक्षा का- वातावरण का कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है, पर वह इतना नहीं होता जिससे जन्मदाताओं की स्थिति में सर्वथा विपरीत प्रकार का व्यक्तित्व विनिर्मित हो सके। अच्छों के बुरे होना तो सरल है, पर बुरों से अच्छे उत्पन्न करने में असाधारण पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ेगी। शुभारम्भ वहीं से करना होगा जहाँ उत्पादनकर्त्ताओं का स्तर साधना पराक्रम द्वारा अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि में समर्थ बनाया जा सके।