अपनों से अपनी बात - युग धर्म को समझें और स्वीकारें

June 1983

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आज की अभिलाषा को आज ही हल करने की उतावली में प्रायः कुछ ऐसा करना पड़ता है, जिसके लिए पीछे पश्चात्ताप करना पड़े। तुरन्त धनी बन जाने की आतुरता को एक ही मार्ग सूझता है कि अनीति अपनाकर जैसे भी बने वैसे, जहाँ से भी मिल वहाँ से, अभीष्ट धन प्राप्त कर लिया जाय। इसी ललक में आमतौर से लोग अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाते हैं। इस तरह जो मिलता है, दुर्व्यसनों में चला जाता है, अप्रामाणिकता उजागर होती है, फलतः असहयोग-तिरस्कार की लानत बरसने लगती है। प्रतिशोध और प्रताड़ना की प्रतिक्रिया भी सामने आती है। कुछ समय बाद ही यह प्रतीत होता है कि सोने का एक अण्डा नित्य देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर एक ही दिन में सारे अण्डे निकाल लेने की योजना गलत थी।

बात अपराधी प्रवृत्तियां अपनाने या मुर्गी का पेट चीरने की नहीं, उस अदूरदर्शिता की है, जो तत्काल का लाभ सोचती, और भविष्य की ओर से आंखें मीच लेती है। अदूरदर्शिता से बढ़कर और कोई हानिकारक तथ्य इस संसार में है नहीं। जिनने बचपन में विद्या नहीं पढ़ी, ब्रह्मचर्य नहीं रखा, कुसंग में दिन काटे, वे उस भूल के लिए आजीवन पछताते रहे हैं। यौवन के दिनों असंयम बरतने वाले, अपव्यय अपनाने वाले वृद्धावस्था में कितने दुःख सहते और पग-पग पर ठोकर खाते हैं, इसे अपने इर्द-गिर्द ही नजर उठाकर देखा जा सकता है। आलस्य और प्रमाद में समय गुजारने वाले प्रस्तुत बहुमूल्य अवसरों को गँवाते और पिछड़ेपन की हेय परिस्थितियों में दिन गुजारते हैं। यह आदत तब और भी अधिक कष्टकारक होती है, जब सुरदुर्लभ जीवन-सम्पदा को गँवाकर, पाप का पोटला सिर पर लादे हुए सृष्टा के दरबार में जाना और नारकीय यन्त्रणाओं के कोल्हू में पिलना पड़ता है।

दूरदर्शिता ही प्रकारान्तर से मानवी सौभाग्य का सराहनीय सोपान है। किसान, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी, अध्यवसायी, योद्धा, कलाकार, तपस्वी, परमार्थी इसी को अपनाकर भविष्य उज्ज्वल बनाते हैं, भले ही आरम्भिक पूँजी नियोजन की तरह श्रम, संयम बरतना और संचित को खर्च करना पड़े। दूरदर्शी आरम्भ में कुछ घाटा-सा उठाते जैसे दीखते हैं। आतुर उद्धत अपनी चतुरता पर इठलाते और भविष्य-निर्माण में संलग्न लोगों का उपहास उड़ाते देखे जाते हैं, किन्तु तथ्य सामने आते देर नहीं लगती। हथेली पर सरसों जमाने वाले कौतुक कौतूहल से मन बहलाने जैसी विडम्बना भर रच पाते हैं। आम्र-उद्यान लगाकर पीढ़ियों तक आजीविका और प्रशंसा मिलते रहने जैसा लाभ उन दूरदर्शियों को ही मिलता है, जो बीज बोने और फसल काटने के नियतिक्रम को ठीक प्रकार समझते और तद्नुरूप रीति-नीति अपनाते हैं।

व्यक्ति और समाज के सम्मुख उपस्थित समस्याओं, कठिनाइयों, विपत्तियों, विग्रहों और विभीषिकाओं के मूल में एकमात्र आस्था-संकट ही काम करता है। यह आस्था-संकट क्या है? इसका उत्तर एक शब्द में प्राप्त करना हो, तो उसे ‘अदूरदर्शिता’ कहा जाता है। आँखों की रोशनी घट जाने पर दूर का दीखना बन्द हो जाता है और उतना ही दीखता है, जितना आँखों के अत्यन्त निकट हो। ऐसे ही लोग ठोकरें खाते, खाई-खड्डों में गिरते, मोच और चोट से आहत होते देखे जाते हैं। लगता है कब्ज की तरह अदूरदर्शिता की बीमारी जन-जन के पीछे लग गई है। संकीर्ण स्वार्थपरता का कुहासा इतना गहरा, कि दस कदम आगे तक का कुछ सूझता नहीं। स्वार्थपरता को दोष देना हो, तो समझ लेना चाहिए कि यह मात्र अदूरदर्शिता का ही दूसरा नाम है।

कौरव जब द्रौपदी के महल में गये थे, तब वहाँ उन्हें जल में थल, और थल में जल दीखने जैसा भ्रम हुआ था, उपहासास्पद बने थे। लगता है, या जो जमाना उलट गया है, या मनुष्य ने अपनी विवेक बुद्धि से काम लेना बन्द कर दिया है। यही कारण हँसते-हँसते सुखी-सम्पन्न जी सकने योग्य मनुष्य जन्म पर अगणित रोग शोकों के घटाटोप छाये रहते हैं। पतन-पराभव के चित्र विचित्र दृश्य सामने खड़े रहते हैं। तत्कालिक लाभ देखना बुरी बात नहीं। आये दिन की समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने ही पड़ते हैं, किन्तु यदि औचित्य एवं धैर्य का परित्याग कर दिया जाय, तो उस आतुरता में अनीति अपनाना ही एक विकल्प रह जाता है। इन दिनों विलास, संचय, व्यामोह, अहंकार ही हर किसी पर प्रेत-पिशाच एवं सन्निपात की तरह चढ़ा हुआ है। मर्यादा, नीतिमत्ता शालीनता, उदारता जैसे आदर्शपालन से उपलब्ध होने वाले दूरगामी लाभों को एक प्रकार से विस्मृत कर दिया है। यह है युग संकट, जिसने मनुष्य के सामने सामूहिक आत्महत्या करने जैसी विवशता उत्पन्न कर दी है।

मानवी सत्ता काया में विरमती दीखती भर है, वस्तुतः वह चेतना है। चिन्तन का स्तर ही व्यक्तित्व का आधार है। उसी के आधार पर आकाँक्षाएँ उभरती मान्यताएँ बनती, विचारणा तरंगें बहती और गतिविधियाँ चलती हैं। यही कारण है, कि चिन्तन को दिशा देने वाले तत्वदर्शन को जीवनधारा कहा गया है। उसी पर किसी का उत्थान-पतन निर्भर रहता है। इसी सीढ़ी पर चढ़ते हुए लोग स्वर्ग या नरक में प्रवेश करते हैं।

व्यक्ति और समाज को जिन अवाँछनीयताओं ने इन दिनों बेतरह आच्छादित किया गया है, उसके मूल में अदूरदर्शिता से उत्पन्न विषाक्तता काम करती देखी जाती है। इसे हटाया-मिटाया न जा सके, तो घटाने के लिए तो तत्पर होना ही चाहिए, अन्यथा बुद्धिमान-अबुद्धिमानों से लदी हुई यह नाव एक साथ डूबेगी और सूखे के साथ गीला भी जलेगा। विपन्नता बढ़ती जा रही है। अवसर हाथ से निकलता जा रहा है। प्रस्तुत विभीषिकाओं से निपटना और विनाश को विकास में बदलना तभी सम्भव हो सकता है जब अदूरदर्शिता के विरुद्ध मुहीम खड़ी की जाय और महामारी से भी बढ़कर इस बढ़ती हुई विपत्ति की रोकथाम पर समूचा ध्यान केन्द्रित किया जाय। इस विपत्ति को बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, दुर्घटना स्तर की समझ कर समय रहते राहत कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए।

प्रज्ञा अभियान इसी प्रक्रिया का नाम है, उसका संघर्ष पक्ष अदूरदर्शिता के भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण के विरुद्ध मोर्चाबन्दी करता है, उसका सृजन पक्ष लोकमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन में निरत है। इसे धुलाई-रंगाई की, गलाई-ढलाई की समन्वित प्रक्रिया कह सकते हैं। इस प्रयत्न-प्रवाह की सफलता-असफलता पर ही भविष्य का अन्धकारमय होना या समुज्ज्वल बनना पूरी तरह निर्भर है। इस तथ्य को गम्भीरता पूर्वक समझा और विश्वासपूर्वक अपनाया जाना चाहिए। इन दिनों करने को असंख्यों काम सामने हैं, पर आपत्ति धर्म की तरह जिसे प्रमुखता मिलनी चाहिए, वह एक ही है कि प्रज्ञा अभियान को व्यापक एवं सफल बनाने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किया जाय। उपेक्षा को आड़े न आने दिया जाय।

यह उत्तरदायित्व प्रज्ञा-परिजनों के कंधों पर आया है कि जन-जन के मन में दूरदर्शी विवेकशीलता का बीजारोपण करें, और उसे सींचते रहकर लहलहाती फसल के स्तर तक पहुँचायें। स्मरण रहे, परिस्थिति मनःस्थिति की परिणति मात्र होती है। परिस्थिति बदलनी हो, तो जनमानस की आस्थाओं और प्रचलन में समाविष्ट आदतों को बदलना पड़ेगा उलटे को उल्टा कर सीधा करने का एक ही मार्ग है कि प्रज्ञा अभियान को गति प्रदान करें उसे चिनगारी से ज्वालभाल बनाने में अपने श्रम, सहयोग एवं अनुदान की भावभरी श्रद्धाँजलियाँ प्रस्तुत करने में कुछ उठा न रखें। युग धर्म यही है। जागरुक युग प्रहरियों को समय की इस पुकार को सुनना ही चाहिए, प्रस्तुत चुनौती को स्वीकार करना ही चाहिए।


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