देवत्व का अभिवर्धन प्रवृत्तियों के शोधन से

June 1983

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व्यवहार विज्ञान पर विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने समय-समय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। भारतीय मनोविज्ञान जहाँ अचेतन की बहिरंग में प्रतिक्रिया को व्यावहारिक मनोविज्ञान नाम देता है- संस्कारों एवं अभ्यासजन्य प्रवृत्तियों की कर्म में परिणति को अपना मुख्य सिद्धान्त मानता है। वहीं पाश्चात्य जगत के विद्वान पशु प्रवृत्तियों को ही मुख्य मानते हुए किसी भी संवेगात्मक अनुभूति को व्यवहार का मूल कारण ठहराता है। इसे उन्होंने ‘स्वयंभू’ प्रवृत्तियाँ (इंस्टिक्ट्स) कहा है।

सामान्य जीवधारियों में उनकी सहज वृत्तियाँ भूख, सुरक्षा और युवा होने पर विपरीत लिंगी साथी की आवश्यकता इन तीन के ही इर्द-गिर्द चक्कर काटती रहती है। प्रकृति प्रेरणा से वे यह कार्य सहज ही करते रहते हैं। इन्हें इनके पीछे किसी विशेष प्रयोजन का भान नहीं होता। प्रकृति ने भूख-प्यास प्रजनन आदि की आवश्यकताओं में ऐसा आकर्षण पैदा करके रखा है कि मानव के अतिरिक्त प्रायः सभी प्राणी उस प्रवाह में अपने जीवन की इतिश्री कर देते हैं उनकी जीवनचर्या इसी परिधि के अंतर्गत गतिशील रहती- प्रकृति की सहज प्रेरणाओं से संचालित होती देखी जाती है। सामान्य मनुष्यों के क्रियाकलाप भी इसी श्रेणी के होते हैं। उनके चिन्तन और कर्तृत्व में इन्हीं सहज क्रियाओं का ताना-बाना चलता रहा है।

मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए अनुसन्धानों से पता चलता है कि वस्तुतः जिन प्रवृत्तियों या क्रियाओं को ‘मूल प्रवृत्तियाँ’ कहा गया था वे सब स्थायी रूप से वैसी ही नहीं रहतीं, उनमें परिवर्तन भी सम्भव है। पहले यह समझा जाता था कि बिल्ली में चूहे को मारने की मूल प्रवृत्ति है इसलिए वह चूहों का शिकार अचूक ढंग से कर लेती है। किन्तु जेड. वाई. क्यो. महोदय ने अपने अनुसन्धानों से सिद्ध कर दिया कि बिल्ली के जो बच्चे चूहों के साथ पाले जाते हैं और जिन्होंने अपनी माता बिल्ली को चूहे मारते हुए नहीं देखा वे चूहों के साथ खूब खेलते एवं स्नेह प्रदर्शित करते हैं। इसका विवरण उन्होंने ‘जर्नल ऑफ कम्पेरेटिव साइकोलॉजी’ वाल्यूम 2 में ‘रिसपान्स टू दी रैट’ नामक शीर्षक में प्रस्तुत किया था।

मूल प्रवृत्तियों के बारे में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों में कुछ मतभेद हो सकता है किन्तु एक तथ्य सभी स्वीकार करते हैं कि प्राणियों के जीवन के लिए विभिन्न आवश्यकतायें होती हैं उन्हीं के लिए वे चेष्टा करते हैं और पूर्ति होने पर तृप्ति या सन्तुष्टि अनुभव करते हैं उन्हें नाम चाहें जो भी दिया जाय। शरीर के लिए भोजन आवश्यक है अस्तु भोजन की आवश्यकता पूर्ति सभी जीवधारियों को समान रूप से तृप्तिदायक होती है। पशु−पक्षियों एवं अन्य प्राणियों की आवश्यकताएँ दैहिक सुरक्षात्मक होती हैं। बहुत से जीवधारी अपनी सुरक्षात्मक आवश्यकता के कारण ही सामूहिक रूप से झुण्डों में रहते और परस्पर मैत्री भावना रखते पाये जाते हैं।

मनुष्य को भी प्रारम्भ में सुरक्षा की आवश्यकता के लिए ही समूह में रहना पड़ा, इस सामूहिकता की भावना से वह विकसित होता चला गया और आज उसकी बौद्धिक क्षमताएँ उसी का परिणाम हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ‘मेस्लो’ महोदय ने मनुष्य की आवश्यकताओं को कई श्रेणियों में वर्गीकृत किया है उनके अनुसार मनुष्य के विकसित स्तर के साथ-साथ उसकी आवश्यकताओं का स्तर भी होता जाता है। उन्होंने कहा है कि- ‘शारीरिक एवं सुरक्षात्मक आवश्यकताएँ तो प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं। उसके उपरान्त प्रेम, आदर, जानने व समझने और आत्म वास्तविकीकरण की आवश्यकताएँ अनुभवों की वृद्धि के साथ बढ़ती जाती हैं। व्यक्तियों की आवश्यकताओं की समानता उनके समान अनुभवों और विभिन्नता अनुभवों की विविधताओं के कारण होती हैं।’

आधे से अधिक मानवीय प्रवृत्तियाँ अनुकरण की परिणाम होती हैं बच्चे तो अधिकाँश दूसरों को देखकर ही भली-बुरी आदतों को सीखते हैं और अभ्यास होने पर उनकी भी वैसी ही आदतें विनिर्मित हो जाती हैं। प्राणी जो आचरण अभ्यास में लाता है उसके प्रति लगाव (आसक्ति) हो जाता है। इस संदर्भ में खरगोशों और पक्षियों पर किए अनुसन्धानों से पता चला है कि खरगोश अपने बिल के एक निश्चित कोने में ही मल-विसर्जन करते हैं। पक्षी अपने घोंसले निश्चित स्थानों पर ही बनाते हैं। सामान्य मनुष्य भी जिस स्थान विशेष में रहते हैं, उस स्थान से उनका लगाव हो जाता है और घुमक्कड़ लोगों को अपना स्थान बदलने में ही आनन्द आता है वे अपने आचरण एवं अभ्यास से उसी तरह की अपनी वृत्ति बना लेते हैं फिर उनकी जीवन पर्यन्त स्थान परिवर्तित करते रहने में ही प्रसन्नता होती है।

मनःशास्त्रियों का कहना है कि दो विपरीत प्रवृत्तियों में जिसे विकास का पहले अवसर मिल जाता है वही व्यक्ति पर हावी हो जाती है और वह तद्नुरूप आचरण का अभ्यस्त हो जाता है। प्रायः देखा जाता है कि बहुत से बच्चे कुत्ते को देखकर भयग्रस्त हो जाते हैं और बहुत से उनसे खेलने के लिए उद्यत हो जाते हैं। इस भिन्नता के मूल में उनके प्रारम्भिक अनुभव ही उत्तरदायी होते हैं। जिस बच्चे ने पहली बार कुत्ते को क्रोधित भौंकती अवस्था में देखा होगा उसके मन में कुत्ते के प्रति भय की वृत्ति बैठ गयी। दूसरी ओर जिन बच्चों को पहली बार कुत्ते के साथ खेलने का अवसर मिला- उसकी दुम कान पकड़कर किलकारियाँ करते रहे उनमें पहले से विपरीत अर्थात् प्रेम की भावना घर कर गयी। फिर तो वे बच्चे कुत्ते के भौंकने पर भी अपनी उसी प्रेमवृत्ति का परिचय देते हैं, डरते नहीं देख जाते।

कुछ मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि अभ्यास में लाए गए आचरण अथवा अभ्यास से परिपक्व आदतें ही प्राणियों की स्वयंभू प्रवृत्तियों की तरह काम करने लगती हैं। उनका कहना है कि प्रवृत्तियों के विकास की एक निश्चित अवधि होती है जिसके पश्चात् वे सक्रिय नहीं हो पातीं- जैसे बच्चे की प्रवृत्ति माँ के स्तनों से चूसकर दूध पीने की होती है, पर यदि जन्म के बाद कुछ दिनों तक बच्चे को माँ से अलग रखा जाय तो उसकी यह वृत्ति निष्क्रिय हो जाती है फिर उसे चूसकर दूध पीने में अत्यधिक अस्वाभाविकता लगती है।

यदि उनकी विवेक बुद्धि और संकल्प जागृत हो जाय तो इन दुर्व्यसनों से छूटते देर नहीं लगती- उल्टे इनके प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है तथा अपने उदाहरण से अन्यों को भी इन दूषित प्रवृत्तियों से छूटने में सहायता प्रदान करते हैं। इस तथ्य को सभी मनःशास्त्री स्वीकार करते हैं कि मानवी विवेक एवं मनोबल प्रवृत्तियों को बदल देने में सक्षम हैं। मूल प्रवृत्तियों का परिशोधन परिष्कार करके ही मानव से महामानव, देव मानव बना जा सकता है। कुछ सहज वृत्तियाँ तो निश्चित रूप से मनुष्य में जन्मजात पायी जाती हैं। इस संदर्भ में प्रसिद्ध व्यावहारिक मनोविज्ञानवेत्ता डॉ. वाट्सन का कथन उल्लेखनीय है।

मनुष्य को ऐसी मानसिक विशेषता मिली हुई है कि वह उचित-अनुचित, लाभ-हानि का विचार कर सकता है और विचार मन्थन में मुक्ति संगत औचित्यपूर्ण निष्कर्ष निकाल कर उन्हें ग्रहण कर सकता है। इसी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता या विवेकशीलता के आधार पर प्रदत्त प्रवृत्तियों को विकसित एवं परिष्कार करके मानव-जीवन को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। सामान्य मनुष्य से महामानव स्तर तक वे ही पहुँचे हैं जिन्होंने अपनी प्रवृत्तियों को शोधित एवं परिष्कृत कर लिया। अस्तु मूल प्रवृत्तियों को औचित्य एवं विवेक की कसौटी पर कसकर अपनाने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। यही भारतीय मनोविज्ञान की विशेषता रही है कि उसने देवत्व को मुख्य माना है- विकासवाद की चरम सीमा को महामानव बनना माना है। यही वास्तविक मानवी प्रगति का स्वरूप है, वह नहीं जो पारम्परिक मनोविज्ञान वेत्ता सदा में कहते चले आ रहे हैं।


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