बलिष्ठता और समर्थता की साकार विभूतियां›

June 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

औसत आदमी की श्रमशक्ति गधे-घोड़े से भी कम है। सफर करने, बोझ उठाने, काम में जुटने की दृष्टि से गधे, घोड़े, बैल आदि की तुलना में मनुष्य कहीं पीछे है। बन्दर की औलाद कहने वाले उसके शरीर की क्षमता का मूल्याँकन उस रूप में कहते रह सकते हैं, किन्तु यदि सामान्य को असामान्य वाले कौशल हस्तगत हो सकें तो फिर उस नगण्य-सी क्षमता में असंख्य गुना अभिवृद्धि हो सकती है। बीज के अन्तराल में विद्यमान शक्ति आमतौर से प्रसुप्त स्तर की ही रहती है। किन्तु उसे जगा दिया जाय तो अंकुर फूटने, पौधा बनने, वृक्ष रूप लेने तथा फलों-फूलों से लद जाने की परिणति भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सकती है।

पौराणिक और ऐतिहासिक काल में ऐसे अगणित व्यक्ति हुए हैं, जिनकी शारीरिक क्षमता असाधारण मानी जाती है। हनुमान का पहाड़ उखाड़ना, समुद्र छलाँगना, भीम का हाथियों के झुण्ड को गेंद की तरह आकाश में उछालना, यदि किसी की समझ में न आता हो तो पृथ्वीराज चौहान के शब्दबेधी बाण का स्मरण किया जा सकता है। प्रो. राममूर्ति किसी जमाने में अपने सीने पर हाथी खड़े करते थे और मोटी चट्टानों को हथौड़ों से तुड़वाते थे। उन दिनों उन्हें बजरंगी भी कहा जाता था। ऐसे उदाहरण संसार के कोने में समय-समय पर देखे जाते रहे हैं।

जर्मनी का भीमकाय मैक्ससिक वजन उठाने की कला में अपने समय का दैत्य माना जाता था। वह खुद तो 147 पौण्ड भारी था, पर 200 पौंड भारी वजन को आसानी से उठा कर दिखा देता था। उसने एक प्रदर्शन में 200 पौंड भारी एक मनुष्य को अपने सिर से ऊंचा उठाकर दिखाया। यह प्रदर्शन एक बार नहीं पूरे सोलह बार उसने एक हाथ से किया। दूसरे हाथ में उसने पानी से लबालब भरा गिलास थामा और दिखाया कि एक हाथ से वजन उठाने में उसे कुछ भी असाधारण कठिनाई नहीं उठानी पड़ती है। यदि ऐसा होता तो दूसरे हाथ के लबालब भरे गिलास का कुछ बूँद पानी तो फैलता।

अरब का खलीफा इब्ने अबीतालिब अपने समय का सर्वाधिक बलिष्ठ शासक था। उसका जीवनकाल सन् 602 से 661 तक था। खैबर की लड़ाई में उसकी ढाल टूट गई। बचाव के लिये उसने किले के एक छोटे फाटक को एक ही घूँसे में उखाड़ लिया और उसी को ढाल की तरह प्रयोग किया। यह छोटा फाटक भी 850 पौण्ड भारी था। लड़ाई जीतने के बाद उस फाटक को उठाने का अन्य बलवान साथियों ने भी प्रयत्न किया, पर सात सरदारों में से कोई भी उसे उठाने में सफल न हो सका।

भुजाओं की मजबूती का वैसा कोई उदाहरण अभी तक दूसरा सुनने को नहीं मिला, जैसाकि लाक्सन फ्राँस के मडटेव रिहार्द ने प्रस्तुत किया। वह ठगों के एक गिरोह का सरदार था। एक बाद दो साथियों में माल के बँटवारे को लेकर मुठभेड़ हो गई। दोनों एक बड़ी मेज पर चढ़ कर चाकुओं से परस्पर आक्रमण करने लगे। रिहार्द को और तो कुछ न सूझा, उसने उस पत्थर से बनी भारी मेज को सिर पर उठा लिया, जिस पर खड़े होकर वे दोनों लड़ रहे थे। मेज समेत वह दोनों का बोझ लादकर कमरे से आँगन तक गया और मेज पटक कर दोनों को गिरा दिया। इस चमत्कार को देखकर दोनों लड़ने वाले हतप्रभ रह गये और उस दैत्य से बचने के लिये भाग खड़े हुए।

विगोरीज, फ्राँस के एक शिकारी वैरन क्रिस्टोफ टर्सन के घोड़े की टाँग आखेट की उछल-कूद से टूट गई। घोड़े को उस दयनीय स्थिति में छोड़ना टर्सन ने उचित न समझा। उसने उस 420 पौण्ड भारी घोड़े को कंधे पर उठाया और डेढ़ मील दूरी तक उतना भार वहन करते हुए पशु चिकित्सक के पास पहुँचाया।

गुन्नार हैमण्डरसन आइसलैण्ड द्वीपसमूह के क्षेत्र में समुद्री डाकुओं के सरदार थे। लड़ते समय उन दिनों लोहे का रक्षा कवच पहनने का रिवाज था। वह भी उस भारी परिधान को समय-समय पर धारण करता। इस वजन से लदा होने पर भी वह खड़े आदमी को छलाँग लगाकर पार जा सकता था। इतना ही नहीं वह उल्टी छलाँग पीठ की दिशा में भी इतनी ही ऊंची लगा सकता था। पीठ पीछे खड़े हुए आदमी को भी उल्टी छलाँग लगा कर पार करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती थी।

वाइजैन्टिवम का राजा रोमैनस पंचम युद्ध के समय लोहे का तकब पहनता था, जो प्रायः चालीस पौण्ड भारी था। वह तकब पहने जमीन पर से उछल कर ऊंचे कद के घोड़े पर सवार होता था। सहारा लेकर जीन पर वह कभी चढ़ा ही नहीं।

बर्फीली पहाड़ियों पर रहने वाले “लैप” जाति के लोग बर्फीली खाइयां पार करने के लिये छलाँग लगाने का अभ्यास करते हैं। उनमें से युवा लोग 125 फुट तक की लम्बी छलाँग लगाते देखे गये हैं।

अपने सैनिकों का साहस बढ़ाने के लिये मिश्र के एक बादशाह वैवर्स ने एक अजीब उपाय सोचा और अजीब रवैया अपनाया। वही 38 पौण्ड भारी लोहे का कवच पहन कर रोज नील नदी की तेज धार को पार करता और उसी भार से लदकर वापस आता। यह रवैया उसने पूरे 17 वर्षों तक जारी रखा।

कोरिया में जन्मा और जापान में बड़ा हुआ, नाटे कद का “मौस” नामक व्यक्ति मात्र 4 फुट 1 इंच का था, पर इतनी सामर्थ्य से भरा कि जापान और अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पहलवानों तक को बातों-बातों में पछाड़ देता था।

जापान में प्रदर्शन के समय वह विशेष पद्धति से बनाई गयी कठोर ईंटों को हथेलियों से दबाकर चूर-चूर कर देता। एक बार तो हारे हुए पहलवानों ने एक साँड से कुश्ती लड़ने की चुनौती उसे दी। पहले तो उसने इन्कार कर दिया, किन्तु बार-बार चिढ़ाये जाने पर तैयार हो गया। 13 मन वजन के साँड को नशा पिलाकर दंगल में लाया गया। डाक्टरों और पुलिस की व्यवस्था पहले से ही कर ली गई थी। दंगल में उन्मत्त साँड और निहत्था मौस उतर पड़े। पहला वार करने का मौका साँड को दिया गया। प्रशिक्षित साँड ने वैसा ही किया। मौस चट्टान की तरह अडिग खड़ा रहा। प्रत्याक्रमण में उसे एक घूँसा भर मारा कि साँड चक्कर खाकर गिर पड़ा और दम तोड़ दिया।

अमरीका में मौस को चुनौती दिये जाने पर उसने वहाँ के चैम्पियन डिकरियल के साथ कुश्ती लड़ना स्वीकार कर लिया। 6 फुट 7 इंच का डिकरियल और 4 फुट 1 इंच का मौस, दर्शकों की भीड़ इस बेतुकी कुश्ती को देखने से पहले ही छंटने लगी, किन्तु जब थोड़ी ही देर में मौस ने डिकरियल को चित्त कर दिया तो लोगों के आश्चर्य का पारावार न रहा। एक हजार डालर का इनाम मौस को मिल गया।

कीवैस्ट (अफ्रीका) निवासी पीटर जेकाक्स के हाथ इतने मजबूत थे कि वह अपने हाथों के दोनों हथेलियों पर दो जवान आदमी बिठा लेता था और उन्हें सड़क पर लिये-लिये फिरता था।

स्विट्जरलैंड और लीशेन स्टेज के मध्य 235 वर्ष तक सीमा विवाद चला और झंझट होता रहा। अन्ततः एक सूझ-बूझ वाले लकड़हारे कास्टोडड ने उसे सुलझाया। वह एक बलिष्ठ व्यक्ति था। उसने कहा वह 1040 पौण्ड भारी पत्थर पीठ पर लाद कर चलेगा। वह जहाँ गिरे वहीं विभाजन रेखा मान ली जाय। दोनों पक्ष सहमत हो गये। वह उस भारी चट्टान को लाद कर चला और 1 मील 4500 फुट तक उसे वहन कर सका। फिर थक कर गिर पड़ा वह पत्थर जहाँ गिरा उसी स्थान को सीमा विभाजन चिन्ह मान लिया गया और झंझट मिट गया।

वस्तुओं को दूर तक तेजी से फेंकने वालों में मैक्लेन वर्ग, जर्मनी का एडोल्फ प्रख्यात था। एक प्रदर्शन में उसने चाँदी के सिक्के को बीस फुट दूर खड़े होकर बेलूत के पेड़ में खींचकर मारे। सिक्के इतनी गहराई तक घुस गये थे कि उन्हें कुदाल से खोदकर निकालना पड़ा।

मानवी काया की संरचना ऐसी है कि वह लम्बे समय तक जीवित रह सकती है। आहार विहार की अनियमितता और प्रकृति विरोधी आचरण में अपनी मौत बुलाई और असमय ही विदाई ली जाती है। शरीर की ठीक प्रकार से साज-सम्भाल रखी जा सके और उसके साथ तोड़-फोड़ की उच्छृंखलता न बरती जाये तो सामान्य स्तर के मनुष्य भी बिना किसी कठिनाई के लम्बे समय तक जीवित रह सकते हैं फिर उन लोगों का कहना ही क्या जो विशेष साधन-उपचारों की सहायता लेकर सामान्य लोगों की तुलना में कई गुनी आयु का उपभोग करते और प्रसन्नता भरा जीवन बिताते हैं।

अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन तथा जेरियाट्रिक्स सोसायटी के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. एडवर्ड बोर्ड के अनुसार मनुष्य इन सात भूलों से बचकर विश्वासपूर्वक शतायु बन सकता है-

(1) आहार सम्बन्धी मर्यादाओं का उल्लंघन (2) अत्याधिक या अत्यन्त परिश्रम (3) अस्त-व्यस्त दिनचर्या (4) नशेबाजी (5)काम वासना सम्बन्धी असंयम (6) अधिक मानसिक तनाव (7) स्वच्छता शुचिता की उपेक्षा।

डॉ. केनिथ रोंसले ने अनेक सूक्ष्म प्रयोगों के बाद प्रतिपादन यह किया कि यदि मनुष्य शरीर के कोशों में कोई गड़बड़ी न आये तो गुर्दे 200 वर्ष और हृदय 300 वर्ष तक जीवित रखे जा सकते हैं। इसके बाद इन्हें बदला भी जा सकता है। हृदय प्रत्यारोपण के प्रयोग तो बहुत ही सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त चमड़ी, फेफड़े और हड्डियों को तो क्रमशः 1000 वर्ष और 4000 वर्षों तक भी जीवित रखा जा सकता है।

भारतीय धर्म-ग्रन्थों में जीवेम् शरदः शतम्” ‘हम सौ वर्ष के आयुष्य का उपभोग करें’ की कामना की गई है। वह उस समय के संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या को देखते हुए अत्युक्ति नहीं थी। सूत्र स्थान अध्याय 27 में आचार्य चरक ने मनुष्य की आयु में 36000 रात्रियाँ होने का उल्लेख किया है। यदि मनुष्य हंसी-खुशी, परिश्रम और सादगी का आचरण करें तो इतनी आयु का होना कोई कठिन बात नहीं है।

ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। सन् 1750 में हेगरी का बोविन 172 वर्ष की आयु में मरा तब उसकी विधवा पत्नी 164 वर्ष की थी और सबसे बड़े बेटे की उम्र 115 वर्ष थी। वियना के सोलियन साबा 132 वर्ष की आयु के होकर मरे थे, उन्होंने 98 वर्ष की आयु में सातवीं शादी की थी।

‘नार्थ चाइना हैरल्ड’ में उत्तर चीन के शांगचूआन ग्राम के निवासी वानशियन जिच नामक वृद्ध की आयु के सम्बन्ध में अनेकों विश्वस्त प्रमाणों का संग्रह प्रकाशित करते हुए यह सिद्ध किया गया गया है कि वह 255 वर्ष तक जिया। उसका भोजन पूर्ण शाकाहारी था और दिन में दो बार ही जो कुछ खाना होता, खाता था।

लन्दन के सेंटू लियोवार्ड चर्च में रखे जन्म मृत्यु तिथि रजिस्टर में एक ऐसे व्यक्ति का नाम भी अंकित है, जिसका जन्म 1588 में हुआ था और मृत्यु 17695 में 207 वर्ष की आयु में। जब उसकी मृत्यु हुई उसके पूर्व उसके दीर्घ जीवन का रहस्य जानने के लिये लोग बड़ी संख्या में बराबर उससे संपर्क करते रहते थे।

आगस्ता माईने निवासी जॉन मिल्ले वृद्धावस्था में भी जवान रहे और मरते समय तक यौवन का आनन्द लूटते रहे। उनने 80 वर्ष की आयु में एक 18 वर्षीया युवती से विवाह किया। उससे उसे दस बच्चे हुए और 44 वर्ष तक सधवा रही। मिल्ले 124 वर्ष की उम्र में मरे। तब तक उनके सफेद बाल फिर से लौटकर काले हो गये थे।

इन उदाहरणों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि मनुष्य की प्रसुप्त क्षमताएँ असाधारण हैं। इन्हें प्रयत्नपूर्वक पराक्रम द्वारा या संयोगवश जगने का अवसर मिले तो यही नगण्य सा शरीर ऐसे अद्भुत पराक्रम प्रस्तुत कर सकता है, जिसे देखते हुए सामान्यजनों को भी आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118