यह जगत बड़ा विचित्र है। इसमें अनगढ़ एवं सुगढ़ दोनों प्रकार के व्यक्ति रहते हैं। इच्छित प्रकृति के सुसंस्कृत व्यक्ति ही सदा मिलते रहें, ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा दुराग्रह करना भी अनुचित है। यह संसार मात्र हमारे लिए ही नहीं बना है। इसमें भाँति-भाँति के जीवों-मनुष्यों के निर्वाह की विधाता ने गुँजाइश रखी है। इस संयुक्त समुदाय के रसोई घर में सदा वह नहीं पक सकता जो हम चाहते हैं। हमें तो मात्र श्रेष्ठजनों से प्रेरणा लेनी चाहिए, उन्हीं से घनिष्ठता साधने का उपक्रम बनाना चाहिए। सामान्यों के साथ तालमेल बिठा सके, बिना टकराये जीवन गुजारा जा सके इसी की बात सोचनी चाहिए।
हर किसी के साथ अनावश्यक उदारता बरतने की भावुकता अन्ततः बड़ी महंगी पड़ती है। संपर्क क्षेत्र में इसी कारण एक सामान्य वर्गीकरण एवं स्तर के अनुरूप अपने व्यवहार में हेर-फेर अनिवार्य हो जाता है। एक कठिनाई वहाँ आती है, जहाँ अनगढ़ों से वास्ता पड़ता है। यह विचित्र प्राणी अहंकारी व दुराग्रही तो होते हैं, निजी विवेक के सहारे किसी निर्णय पर पहुँचना उनके बसकी बात भी नहीं रहती। ऐसों के लिए प्रताड़ना से सुधार अपना काम नहीं, शासन तन्त्र का है। ऐसे में टकराव से बचना ही उचित है। अनगढ़ दुराग्रहियों के प्रति वैसा ही रुख रखा जाय जैसा कि मनोरोगियों के प्रति रखा जाता है। न तो क्षमाशील बना जाय, नहीं उपचार से विमुख हुआ जाय। लेकिन सत्परामर्श मान ही लिया जायेगा, यह नहीं सोचना चाहिए। अनीति के प्रति असहयोग व्यक्त ही नहीं, चरितार्थ भी करना चाहिए। सच्ची आदर्शवादिता यही है। जब एकाकी साहस जुट पड़ता है तो स्वतः ऐसे व्यक्तित्व पीछे-पीछे खिंचे चले आते हैं। अनगढ़ों में भी परिवर्तन होकर ही रहता है।