जीव को परब्रह्म से मिलाने वाला प्रभावी उपक्रम- प्रार्थना

June 1983

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समर्थ होते हुए भी मनुष्य सर्व समर्थ नहीं हैं। उसकी भी अपनी सीमा है। मूलतः पूर्ण होते हुए भी उस पूर्णता को व्यक्त कर पाना उसके लिए अति कठिन पड़ता है। सर्व समर्थ बनने तथा तथा पूर्णता प्राप्त करने में सबसे बड़ा अवरोध- सबसे बड़ा असमंजस उसके एकाँगी जीवन का होता है। उस नियामक सत्ता से विलगाव बने रहने- उससे जुड़े न होने से मनुष्य की शक्ति सीमित ही बनी रहती है। फलतः वह साधना मार्ग के कष्टकर पथ पर अपने को असहाय महसूस करता है। उसके विचलित होने की प्रबल सम्भावना रहती है। उसे सत्ता का अवलम्बन मिल जाये- उससे अपना आपा जुड़ जाये तो वह असमंजस दूर हो जाता है जिससे भटकाव की सम्भावना रहती है।

योग का शाब्दिक अर्थ होता है- जोड़ना। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के परमात्मा से जुड़ने को योग कहते हैं। यों तो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग की तीन विभिन्न धाराएँ जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बतायी गयी हैं, पर उस सत्ता से तारतम्य सही अर्थों में भक्ति का अवलम्बन किये बिना नहीं बन पाता तथा योग का- जुड़ने का उपक्रम भी पूरा नहीं हो पाता। कर्मयोग एवं ज्ञानयोग की शुष्कता, नीरसता भक्तियोग से पूरी होती है। साधना मार्ग का एक सबसे बड़ा अवरोध अहम् को माना गया है। कर्मयोग- ज्ञानयोग की साधनाओं में प्रायः साधक अपने अहम् को विगलित नहीं कर पाते। सोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, अहंब्रह्मास्मि आदि की सच्ची अनुभूति विराट् से जुड़कर ही हो पाती है। उस अनुभूति में अपना शुद्र अहम्, विराट् का एक क्षुद्र घटक मात्र दिखायी पड़ता है। पर इन अनुभूतियों तक पहुँचने के लिए पूर्ण समर्पण का होना आवश्यक है, जो भक्ति योग के बिना पूरा नहीं हो पाता। समर्पण न होने पर सोऽहम् का तत्व दर्शन साधक के अहम् को ही उत्प्रेरित करता है। अन्तःकरण के अनुभूति प्रधान धरातल को स्पर्श नहीं कर पाता। यही है वह तात्विक एवं मनोवैज्ञानिक व्यतिरेक जिसके कारण साधनाएँ बहुधा असफल होती देखी जाती हैं। इसी कारण आर्ष ग्रन्थों में भक्तियोग की भूरि-भूरि महिमा प्रतिपादित की जाती रही है। साधना मार्ग के भटकावों से बचने की दृष्टि से ही नहीं उस परम शक्ति का सहयोग, सामर्थ्य एवं अनुदान प्राप्त करने की दृष्टि से भी भक्ति का सम्बल साधन के लिए आवश्यक है।

विश्व के सभी धर्मों ने भक्ति की महत्ता को विभिन्न रूपों में स्वीकारा अपनाया है। प्रार्थना, स्तुति, स्तवन, जप आदि माध्यमों से साधक अपनी श्रद्धा को परिपुष्ट करते तथा समर्पण भाव को सुदृढ़ बनाते हैं। श्रद्धा ही पोषित- अभिवर्धित होकर ईश्वरीय सत्ता से तारतम्य जोड़ती- उसे द्रवीभूत होने तथा परस्पर दिव्य आदान-प्रदानों के लिए विवश करती है।

सन्त ‘मदर टेरेसा’ का कहना है- “प्रार्थना अपने सबसे विश्वस्त, सर्व समर्थ तथा सबसे आत्मीय सत्ता से जुड़ने की एक सरल किन्तु अत्यन्त प्रभावशाली, आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो क्रिया में सामान्य होते हुए भी प्रतिक्रिया की दृष्टि से असामान्य है। पवित्र भावों से का गयी प्रार्थना असम्भव को भी सम्भव कर सकने में सक्षम है।”

महात्मा गाँधी कहते थे कि “प्रार्थना के बिना धर्म का कोई स्वरूप नहीं बनता। वह याचना की नहीं समर्पण की एक ऐसी महान प्रक्रिया है जो साधक के व्यक्तित्व को अगणित विभूतियों से सुसम्पन्न बना देती है।”

साधु सुन्दरसिंह कहते हैं- “साधना का लक्ष्य प्रार्थना के बिना कभी पूरा नहीं हो सकता। साधक के लिए प्रार्थना का उतना ही महत्व है जितना मनुष्य का साँस लेना। आत्मा की परमात्मा से मिलने की तीर्थयात्रा में प्रार्थना एक निरापद, पर समर्थ वाहन है।”

मनःशास्त्री विलियम जेम्स लिखते हैं- “प्रार्थना चेतन से अचेतन भावनाओं में बहने की एक ऐसी क्रिया है जिसमें मानसिक परिशोधन का प्रयोजन अपने आप पूरा होता चलता है। यह मस्तिष्कीय विचारों का एक स्फोट है जो अदृश्य सत्ता से संपर्क साधने का काम करता है।”

प्रार्थना अनुनय-विनय की प्रक्रिया नहीं है। आत्मशोधन तथा सद्गुण सम्वर्धन के लिए दुहरा प्रयास इसमें करना पड़ता है, जिसमें भक्त इष्ट के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना- उससे शक्ति माँगता है ताकि उन्हें दूर करने का सत्साहस उत्पन्न हो सके। सच्चे हृदय से जो प्रार्थना करता है, उसे दैवी शक्तियों का सहयोग मिलता है। ऋग्वेद की एक ऋचा में उल्लेख है- “अपने दोषों को जो सच्चे मन से स्वीकार करता तथा प्रायश्चित के लिए तैयार रहता है, उसके ऊपर वरुण देव कृपा करते हैं।

प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय में किसी न किसी रूप में प्रार्थना प्रचलित है। सेन्ट्रल अफ्रीका के बौने आदिवासी भगवान की प्रार्थना करते समय कहते हैं- “हे ईश्वर तुझे धन्यवाद। तुमने हमें पशु दिए, मधु दिया, सोम समान अमृत दिया।”

नवाज वस्तुतः प्रार्थना का ही एक रूप है जिसे हर मुस्लिम के लिए आवश्यक माना गया है। कुरान के अनुसार दिन में तीन बार- प्रातः दोपहर तथा सायं को नवाज पढ़ने के लिए निर्देश है। जिसमें ‘अल्लाह श्रेष्ठ है’ की प्रार्थना की जाती है, नेकी की राह पर चलने हेतु शक्ति माँगी जाती है।

इस्लाम धर्म की नींव मुहम्मद साहब ने 700 ए.डी. में रखी। इस्लाम अरबी का एक बहु प्रचलित शब्द है जिसका अर्थ होता है- ‘समर्पण’। उस अर्थ के अनुसार जिसमें खुदा के प्रति समर्पण की भावना है वही मुसलमान है। कुरान की मूल नींव ही भक्तियोग की साधना पर आधारित है। कुरान के अनुसार सच्चे दिल से पुकारने पर सर्वत्र मौजूद अल्लाह इंसान की मदद के लिए प्रकट होता है- और सही मार्ग दिखाता है।

क्रिश्चियन धर्म के अनुयायिओं को हर रविवार को चर्च में जाकर सामूहिक प्रार्थना में भाग लेना पड़ता है। ईसाई “ओ लार्ड! कम लार्ड! हैव मरसी,” जैसे प्रार्थना युक्त शब्दों में अपने उद्गार प्रकट करते हैं। जीसस ने अपने शिष्यों को ईश्वर की प्रार्थना करने का सन्देश इन शब्दों में दिया था- “अपने कमरे में चले जाओ और दरवाजे बन्द कर लो और तब अपने गुप्त पिता की पूरी भावना से प्रार्थना करो” मैथ्यू. 6, 6 आशय यही था कि अन्तर्मुखी होकर गहराई में जाकर प्रार्थना का अभ्यास किया जाय।

जापान का प्रसिद्ध धर्म है- शिष्टो ‘शिष्टो’ शब्द का अर्थ है- “दी वे ऑफ क्रामी”- अर्थात् ‘श्रेष्ठता पवित्रता’। देवताओं की यही विशेषता व उन तक पहुँचने का मार्ग प्रार्थना है। इस धर्म का इतिहास 712 ए. डी. तथा 420 ए.डी. में लिखी गयी दो पुस्तकों में- “रिकार्डस् ऑफ एन्सि एण्टमैटर्स” तथा “क्रॉनिकल्स ऑफ जापान” में मिलता है। अन्य कोई ग्रन्थ शिष्टो धर्म का नहीं मिलता। प्रार्थना ही साधना की उनकी एक मात्र प्रणाली है। शिष्टो धर्म की मान्यता है कि देवता अदृश्य अशरीर धारी दिव्य शक्तियाँ हैं, जो सच्ची प्रार्थना का प्रत्युत्तर भी दिया करती हैं। शिष्टो धर्म का कथन है- “मैन इज कामीज चाइल्ड” अर्थात् मनुष्य देवताओं का पुत्र है। अतः मूलतः उसकी प्रकृति भी देवताओं जैसी है। गन्दगी के आवरण के कारण मनुष्य का मूल पवित्र स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता। पर यदि मनुष्य मन से प्रार्थना करे तो उस आवरण को हटा सकता है तथा अपनी पवित्र स्थिति को प्राप्त कर सकता है। इस कार्य में पुकारने पर देव शक्तियाँ सहयोग भी देती हैं।”

अनुभव सिद्ध है कि वह करुणामयी सत्ता पुकारने पर कभी स्नेहमयी माँ बनकर, कभी पिता के रूप में, कभी सखा बनकर अपनी अदृश्य सहायता पहुँचाती है। पौराणिक उपाख्यानों से लेकर ऐतिहासिक घटनाक्रमों में असंख्यों उदाहरण मौजूद हैं जो इस सत्य की पुष्टि करते हैं। उस सत्ता से सचमुच ही संपर्क जुड़ जाय तो वह सब कुछ प्राप्त कर सकना सम्भव है जिनसे ईश्वरीय सुसत्ता ओत-प्रोत है। भक्तियोग की समर्पण साधना इसी महती प्रयोजन की पूर्ति करती है।


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