भूलोक का परिभ्रमण करने देवता स्वर्ग लोक से चले। उन्हें आशा थी कि धरती के निवासी उनका स्वागत करेंगे और कृतज्ञता व्यक्त करेंगे, पर देवताओं की ओर किसी ने आँख उठाकर भी नहीं देखा। अपेक्षित स्वागत कहीं नहीं मिला। वरदान देने की अपनी क्षमता पर उन्हें जो गर्व था वह टूट गया।
उन दिनों खेतों में अनाज के पौधे लहलहा रहे थे। बालें और कलियाँ निकल रही थीं। लोग उन्हें देखकर फूले नहीं समा रहे थे। चारों ओर बसन्ती मस्ती छाई हुई थी। सर्वत्र बसन्तोत्सव मनाने की तैयारियाँ चल रही थीं।
देवताओं का अनुमान था कि अभावग्रस्त मनुष्य उनकी अनुकम्पा पाने के लिये गिड़गिड़ायेंगे और न जाने क्या-क्या मांगेंगे। याचकों की मनोकामना पूर्ण करने से यश मिलता है, देवता यह भली-भाँति जानते थे। वरदान देने की क्षमता उनमें है ही। सो वे देने का आनन्द भी प्राप्त करना चाहते थे। पर उनकी यह कामना पूरी होती नहीं दिखाई पड़ी।
निराशा की स्थिति में जब देवता वापस लौटने लगे तो उन्होंने धरती से पूछा- “तुम्हारे पुत्र किस खुशी एवं उपलब्धि में इतने हर्ष-विभोर हो रहे हैं? अभावग्रस्त होते हुए भी वे हमसे कुछ माँगने क्यों नहीं आते?”
धरती ने देवताओं को पहचाना, उनका अभिवादन किया तथा नम्रता पूर्वक बोली- “इस लोक में भी एक देवता है, वह भी आपकी तरह ही सामर्थ्यवान है। मेरे पुत्र उसकी ही पूजा करते हैं। फलस्वरूप जो चाहते हैं, सो प्राप्ति कर लेते हैं। आजकल उसी की अनुकम्पा सर्वत्र बरस रही है। इसलिये सबका ध्यान उसी के स्वागत में लगा हुआ है। आप लोग कुसमय भूलोक पर पधारे। दूसरे दिनों आते तो सम्भव है आपकी पूजा-अर्चना भी होती।”
देवता आश्चर्यचकित रह गये। मन ही मन सोचने लगे कि सभी देवता तो स्वर्ग लोक में निवास करते हैं। भला ऐसा कौन-सा देवता है जो भूलोक में रहता तथा हमसे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा था। असमंजस को दूर करने के लिये उन्होंने पूछा- “भला इस मनुष्य लोक में भी कोई देवता बसता है? और वह हम लोगों की तरह ही सामर्थ्यवान है? ऐसा हमें अब तक मालूम न था। यदि ऐसा है तो हमें उसका नाम बताओ, स्थान दिखाओ।”
धरती मुस्कराई। खेत में कार्य कर रहे एक मनुष्य को बुलाया और उसकी हथेली दिखाते हुए बोली- “वह देवता यहाँ रहता है, खेत-खेत में उसी की विभूति बिखरी पड़ी है। मेरे सभी पुत्रों का भरण-पोषण उसी के द्वारा होता है। श्री और समृद्धि, प्रगति एवं समुन्नति सभी कुछ उससे मिलता है।”
गुत्थी सुलझने के स्थान पर और भी उलझ गई। असमंजस घटने के बजाय बढ़ गया। हथेली में रहने वाला, न दीखने वाला तथा इतनी विभूतियों का अधिपति भला कौन देवता होगा? स्वर्ग के देवताओं के लिये यह एक विचित्र पहेली थी। सुलझा ना पाने की स्थिति में पूछ ही पड़े- “देवी! जरा अपनी बात और स्पष्ट करो। उस देवता का सही नाम और रूप तो बताओ।”
स्वाभिमान से धरती की छाती तन गयी, बोली- “वह देवता है- श्रम”। मेरे पुत्रों ने उसी की उपासना आराधना करने की ठानी है। वे आज नहीं तो कल इस लोक में स्वर्ग की रचना अवश्य कर लेंगे। खेतों में हरियाली के रूप में यह श्रम ही लहलहा रहा है। उसी का अनुदान- वरदान पाकर धरती पुत्र कृतकृत्य हो रहे हैं। जब तक उसकी अर्चना होती रहेगी भूलोक पर वैभव की कमी न पड़ेगी।”
“श्रम की प्रतिष्ठापना तथा आराधना जहाँ भी होगी वहाँ किसी प्रकार की कमी कभी भी नहीं हो सकती। ऐसी कमी जिसकी पूर्ति के लिये देवताओं को कष्ट सहना पड़े।” देवतागण इस तथ्य से परिचित हुए, वस्तुस्थिति को जाना और अपनी निरुपयोगिता को समझा। मनुष्य ने उपेक्षा क्यों की, यह रहस्य उन्हें विदित हुआ। जैसे आये थे वैसे ही वापस वे स्वर्ग लोक को चले गये।