विदेशी को जासूस समझा (kahani)

June 1983

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एक राजा ने किसी विदेशी को जासूस समझा और उसे मृत्यु दण्ड सुना दिया। सजा सुनकर बन्दी को बहुत दुःख हुआ और उसने भर पेट राजा को गालियाँ सुनाईं।

राजा उसकी भाषा समझता न था, सो जानकार को बुलाकर पूछा- “यह क्या कह रहा है।” भाषाविद् विचारशील था। उसने कहा- “यह आपकी बहुत प्रशंसा कर रहा है और मरने से पूर्व अनेकों दुआएँ दे रहा है। उसे अपने मरने की चिन्ता नहीं। आपको अधिक सुखी समृद्ध होने का मनोरथ कर रहा है। यही है उसके कथन का तात्पर्य।

राजा उसकी सदाशयता का परिचय पाकर बहुत प्रभावित हुआ और मुक्त करने का आदेश दिया। वह चला गया। दूसरे दिन बंदी की भाषा समझने वाले एक दूसरे दरबारी ने कहा- ‘राजन्! आपको गलत बताया गया है। असल में उसने भर पेट गालियाँ दी थीं।

राजा ने इस असमंजस को सुलझाते हुए कहा- पहले का कथन सत्य है और दूसरे का झूठ। क्योंकि सत्य असत्य की विवेचना मात्र यथार्थ कथन को ही सत्य नहीं कहते, किन्तु उसके द्वारा क्या परिणाम निकला यह देखकर उसका स्वरूप समझा जाना चाहिए।’

प्रथम विद्वान के कथन झूँठ होते हुए भी उसने एक निर्दोष की जान बचाई इसलिए वह झूठ होते हुए भी सत्य था। जबकि दूसरे के कथन से उसकी जान चली जाती इसलिए वह सच भी झूठ था।


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